विजय माथुर जी ने ‘क्रांति स्वर‘ के माध्यम से अपनी विचारधारा को पेश करने की एक अनाधिकार चेष्टर की है। वर्तमान काल में यह देखने में आ रहा है कि जो आदमी धर्म के बुनियादी सिद्धांतों तक से कोरा है और जिसके आचरण में धर्म कम और पश्चिमी कल्चर ज़्यादा है , वह भी नए नए मत खड़े करने की कोशिश कर रहा है। यही वजह है कि विजय माथुर जी सत्य को न पा सके।
दयानंद जी देवी भागवत पुराण सहित सभी पुराणों के विरूद्ध थे। इन्हें वे नदी में डुबोने की प्रेरणा देते थे और मानते थे कि इनमें ईश्वर और ऋषियों की निंदा भरी हुई है। एक ओर तो विजय माथुर दयानंद जी के सिद्धांतों को स्वीकार करते हैं और दूसरी ओर वे पुराणों से प्रमाण देते हैं जिन्हें नदी में डुबाने के बाद ही दयानंद जी को उनके गुरू बिरजानंद जी ने अपने शिष्यत्व में स्वीकार किया था। यह एक खुला विरोधाभास है।
विजय माथुर जी की कोशिश तो यह रही होगी कि रामायण के अनेक प्रसंगों पर उठने वाली आपत्तियों का निराकरण कर दिया जाए और यह प्रयास वाक़ई स्वागतयोग्य है । इसका तरीक़ा यह है कि जो भी प्रसंग श्रीरामचंद्र जी या सीता माता के प्रति लांछन लगाने वाला सिद्ध हो, उसे एक क्षेपक मानकर रामायण का अंश न माना जाए, बस। हरेक आपत्ति का निराकरण हो जाएगा। मैं ऐसे ही करता हूं और इसीलिए मुझे श्रीरामचंद्र जी, उनके पूर्वजों या उनके वंशजों के प्रति कोई भी अश्रृद्धा पैदा नहीं होती।
जो व्यक्ति मेरे मार्ग से हटकर चलेगा, वह पुरानी चली आ रही आपत्तियों का निराकरण तो कर नहीं पाएगा बल्कि नई और खड़ी कर देगा, जैसे कि विजय माथुर जी ने कर डाली हैं और कह दिया है कि
1. श्रीरामचंद्र जी विश्वपति के रूप में अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहते थे।
2. उन्होंने सत्ता सम्हालते ही वेदोक्त परिपाटी का त्याग दिया था।
3. उन्होंने अपने मंत्री मंडल से ऋषियों को अपदस्थ कर दिया था।
4. सीता जी का उनसे कोई मतभेद था और उन्होंने स्वयं श्रीरामचंद्र जी के साथ रहने के बजाय उन्हें त्याग देना उचित समझा।
5. सीता माता ने श्रीरामचंद्र जी के साथ रहने की अपेक्षा आत्महत्या करना पसंद किया।
आखि़र धर्म की इस सर्वथा नवीन व्याख्या को क्रांतिकारी कैसे कहा जा सकता है ?, जो कि सिरे से ही झूठ है।
श्रीरामचंद्र जी ने कभी भी वेदोक्त रीति-नीति का त्याग नहीं किया और न ही अपने मंत्री मंडल से कभी ऋषियों को निकाला। उनके गुरू वसिष्ठ आदि सदैव उनके कुलगुरू रहे और वे उनसे सदैव परामर्श लेते रहे। सीता माता ने वन में लक्ष्मण जी से जो कुछ कहा, वह इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि वे आजीवन अपने पति के साथ ही रहना चाहती थीं।
विजय माथुर जी के विचारों को जितना आपकी पोस्ट के द्वारा जाना, उन पर संक्षेप में मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि इसी तरह की कोशिशें पूर्व में तुलसी आदि भी कर चुके हैं लेकिन इस तरह की कोशिशों से आपत्तियों का निराकरण कभी नहीं हुआ बल्कि नई और खड़ी हो जाती हैं।
मैं एक आर्य हूं और आर्य महापुरूषों में आस्था रखता हूं। इसी नाते मैं सादर विनती करता हूं कि राम-सीता के आदर्श चरित्र को और ज़्यादा कलंकित करने के प्रयास न किए जाएं।
धन्यवाद !
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दयानंद जी देवी भागवत पुराण सहित सभी पुराणों के विरूद्ध थे। इन्हें वे नदी में डुबोने की प्रेरणा देते थे और मानते थे कि इनमें ईश्वर और ऋषियों की निंदा भरी हुई है। एक ओर तो विजय माथुर दयानंद जी के सिद्धांतों को स्वीकार करते हैं और दूसरी ओर वे पुराणों से प्रमाण देते हैं जिन्हें नदी में डुबाने के बाद ही दयानंद जी को उनके गुरू बिरजानंद जी ने अपने शिष्यत्व में स्वीकार किया था। यह एक खुला विरोधाभास है।
विजय माथुर जी की कोशिश तो यह रही होगी कि रामायण के अनेक प्रसंगों पर उठने वाली आपत्तियों का निराकरण कर दिया जाए और यह प्रयास वाक़ई स्वागतयोग्य है । इसका तरीक़ा यह है कि जो भी प्रसंग श्रीरामचंद्र जी या सीता माता के प्रति लांछन लगाने वाला सिद्ध हो, उसे एक क्षेपक मानकर रामायण का अंश न माना जाए, बस। हरेक आपत्ति का निराकरण हो जाएगा। मैं ऐसे ही करता हूं और इसीलिए मुझे श्रीरामचंद्र जी, उनके पूर्वजों या उनके वंशजों के प्रति कोई भी अश्रृद्धा पैदा नहीं होती।
जो व्यक्ति मेरे मार्ग से हटकर चलेगा, वह पुरानी चली आ रही आपत्तियों का निराकरण तो कर नहीं पाएगा बल्कि नई और खड़ी कर देगा, जैसे कि विजय माथुर जी ने कर डाली हैं और कह दिया है कि
‘साम्राज्यवादी रावण क़े अवसान क़े बाद राम अयोध्या क़े शासक क़े रूप में नहीं विश्वपति क़े रूप में अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहते थे। यही कारण है कि उन्होंने सत्ता सम्हालते ही उस समय प्रचलित वेदोक्त.परिपाटी का त्याग कर ऋषियों को मंत्री मण्डल से अपदस्थ कर दिया था। वे बताते हैं कि महारानी सीता जो ज्ञान.विज्ञान व पराक्रम तथा बुद्धि में किसी भी प्रकार राम से कम न थीं। वे उनकी हाँ में हाँ नहीं मिला सकती थीं। जब उन्होंने देखा कि राम उनके विरोध की परवाह नहीं करते हैं तो उन्होंने ऋषीवृन्द की पूर्ण सहमति एवं सहयोग से राम.राज्य को ठुकराना ही उचित समझा। अपनी इस स्थापना के समर्थन में वे तर्क देते हुए कहते हैं कि यही कारण था कि जब लव.कुश द्वारा राम की सेना को परास्त करने के बाद राम ने उन्हें वापस बुलवायाए तो सीता ने महल में जाने से इनकार कर दिया और अपनी इहलीला समाप्त कर ली।‘इसमें उन्होंने श्रीरामचंद्र जी और सीता माता पर निम्न इल्ज़ाम लगाए हैं -
1. श्रीरामचंद्र जी विश्वपति के रूप में अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहते थे।
2. उन्होंने सत्ता सम्हालते ही वेदोक्त परिपाटी का त्याग दिया था।
3. उन्होंने अपने मंत्री मंडल से ऋषियों को अपदस्थ कर दिया था।
4. सीता जी का उनसे कोई मतभेद था और उन्होंने स्वयं श्रीरामचंद्र जी के साथ रहने के बजाय उन्हें त्याग देना उचित समझा।
5. सीता माता ने श्रीरामचंद्र जी के साथ रहने की अपेक्षा आत्महत्या करना पसंद किया।
आखि़र धर्म की इस सर्वथा नवीन व्याख्या को क्रांतिकारी कैसे कहा जा सकता है ?, जो कि सिरे से ही झूठ है।
श्रीरामचंद्र जी ने कभी भी वेदोक्त रीति-नीति का त्याग नहीं किया और न ही अपने मंत्री मंडल से कभी ऋषियों को निकाला। उनके गुरू वसिष्ठ आदि सदैव उनके कुलगुरू रहे और वे उनसे सदैव परामर्श लेते रहे। सीता माता ने वन में लक्ष्मण जी से जो कुछ कहा, वह इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि वे आजीवन अपने पति के साथ ही रहना चाहती थीं।
विजय माथुर जी के विचारों को जितना आपकी पोस्ट के द्वारा जाना, उन पर संक्षेप में मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि इसी तरह की कोशिशें पूर्व में तुलसी आदि भी कर चुके हैं लेकिन इस तरह की कोशिशों से आपत्तियों का निराकरण कभी नहीं हुआ बल्कि नई और खड़ी हो जाती हैं।
मैं एक आर्य हूं और आर्य महापुरूषों में आस्था रखता हूं। इसी नाते मैं सादर विनती करता हूं कि राम-सीता के आदर्श चरित्र को और ज़्यादा कलंकित करने के प्रयास न किए जाएं।
धन्यवाद !
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