Saturday, April 23, 2011

गांधी जी के ' ब्रह्यचर्य के प्रयोग' Brahmcharya


डॉ० वेद प्रताप वैदिक जी ! आपने लिखा है कि<b>
 वे चाहते थे कि वे स्वेच्छया पूर्णरूपेण नपुंसक बन जाएं, जैसा कि बाइबिल और कुरान में कहा गया है| </b>

और आपने यह भी लिखा कि
<b>भारत लौटकर 15-16 साल बाद गांधी जी ने ब्रह्यचर्य के कुछ ऐसे प्रयोग शुरू कर दिए, जो गांधी के पहले दुनिया में किसी ने नहीं किए|</b>

अब आप खुद सोच सकते हैं कि जब उनसे पहले ब्रह्मचर्य के ऐसे घिनौने प्रयोग किसी ने भी नहीं किये तो फिर उनके प्रयोगों को बाइबिल और कुरआन से जोड़ना क्या शरारतपूर्ण नहीं है ?
 ऐसे प्रयोगों की शिक्षा तो गीता भी नहीं देती जिसके वह मुरीद थे और न ही ऐसे प्रयोग श्रीकृष्ण जी ने किये तब गांधी जी को ऐसे प्रयोग करने कि सूझी कैसे ?
इस्लाम में अजनबी औरतों को ही नहीं बल्कि अपनी माँ बहन को भी नग्न देखना मना है . संतानोत्पत्ति ही यौनक्रिया का एकमात्र मक़सद नहीं है . आनंद और साहचर्य के लिए भी पति पत्नी आपस में एकाकार हो सकते हैं , इस्लाम इसकी इजाज़त देता है और मानवीय प्रकृति के विरुद्ध व्रत लेने को निषिद्ध ठहराता है . इसीलिए इस्लाम में संन्यास भी हराम और वर्जित है . धर्म का पालन सरल है लेकिन जो इस्लाम को नहीं मानता वह अपने लिए नए नए दर्शन घड़ता है . सारी समस्याओं की जड़ यही है कि आदमी अपने मन की करता है और वह अपने मालिक का हुक्म मानने के लिए तैयार नहीं है .
--------------------------------------------------
यह कमेन्ट हमने निम्न लेख पर किया 

गांधी के ब्रह्यचर्य पर नई बहस

2011-04-22 05:57 PM को विचार पर प्रकाशित
जोज़फ लेलीवेल्ड का भला हो कि उनकी वजह से गांधी पर एक बार फिर लंबी-चौड़ी बहस शुरू हो गई है| कृतज्ञ भारत गांधी को सिर्फ हर 2 अक्तूबर या 30 जनवरी को याद करने को मजबूर हो जाता है वरना गांधी अब अजायबघर की वस्तु हो गए हैं| लेलीवेल्ड की पुस्तक ”ग्रेट सोल : महात्मा गांधी एंड हिज़ स्ट्रगल विथ इंडिया” कोई चालू किताब नहीं है| लेलीवेल्ड ने वर्षों के अनुसंधान के बाद यह पुस्तक लिखी है| वे ‘पुलिट्रजर’ जैसे प्रतिष्ठित पुरस्कार के विजेता हैं| वे ‘न्यूयार्क टाइम्स’ के कार्यकारी संपादक भी रह चुके हैं| उन्हें भारत और दक्षिण अफ्रीका में रहकर काम करने का भी अच्छा अनुभव है| उन्होंने अपनी पुस्तक पर लगे प्रतिबंध की कड़ी भर्त्सना की है और इस आरोप को बिल्कुल निराधार बताया है कि उन्होंने गांधी को समलैंगिक या नस्लवादी कहा है| उनका कहना है कि इस तरह के शब्द उनकी पुस्तक में कहीं आए ही नहीं हैं|
लेलीवेल्ड बिल्कुल ठीक हैं| उन्हें उनके शब्दों के आधार पर कोई भी नहीं पकड़ सकता लेकिन उनकी पुस्तक की एक समीक्षा ने उन्हें विवादास्पद बना दिया| एक बि्रटिश अखबार ने इस समीक्षा को आधार बनाकर महात्मा गांधी और उनके शिष्य हरमन कालेनवाख के संबंधों को उछाल दिया| उसने लेलीवेल्ड द्वारा वर्णित तथ्यों की ऐसी वक्र-व्याख्या की कि गांधी एक बार फिर चर्चा के घेरे में आ गए| लेलीवेल्ड ने गांधी और कालेनबाख के संबंधों के बारे में जो भी लिखा है, वह प्रामाणिक दस्तावेजों के आधार पर लिखा है| संपूर्ण गांधी वाड्रमय से उन्होंने कालेनबाख के नाम गांधी के पत्रें को उद्रधृत किया है|
ये हरमन कालेनबाख कौन थे ? कालेनबाख गांधी से दो साल छोटे थे| वे जर्मन-यहूदी थे| वे 1904 में गांधी से मिले| गांधी और कालेनबाख इतने घनिष्ट मित्र् बन गए कि वे एक-दूसरे को दो शरीर और एक आत्मा मानते थे| कालेनबाख ने ही अपनी 1100 एकड़ भूमि गांधीजी को दी थी, जिस पर उन्होंने ”तॉल्सतॉय फार्म” नामक आश्रम खड़ा किया था| वे गांधी से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने ब्रह्यचर्य और शाकाहार का व्रत ले लिया| वे गांधीजी के सत्याग्रहों में जमकर भाग लेते, संगठनात्मक कार्य करते और आश्रम की व्यवस्था भी चलाते| ऐसे दो परम मित्रें के बीच समलैंगिक संबंधों की बात कैसे उठी ?
लेलीवेल्ड ने गांधीजी के पत्रें के कुछ शब्दों को इस तरह उद्रधृत किया कि उनके दोहरे अर्थ लगाए जा सकते हैं| जैसे गांधीजी खुद को ‘अपर चेंबर’ (उच्च सदन) और कालेनबाख को ‘लोअर चेम्बर’ (निम्न सदन) लिखा करते थे| लेलीवेल्ड ने इन दो शब्दों को तो उछाला लेकिन उन्होंने और उनके समीक्षकों ने यह नहीं बताया कि वे ऐसा क्यों लिखते थे ? कालेनबाख ‘लोअर हाउस’ की तरह बजट बनाते थे और गांधीजी ‘अपर हाउस’ की तरह उसमें  कतरब्योंत कर देते थे| इस आर्थिक पदावलि को यौन पदाविल में बदलनेवाले मस्तिष्क को आप क्या कहेंगे ? यह आधुनिक पश्चिमी जीवन-पद्घति का अभिशाप है| इसी तरह गांधी के पत्रें में जगह-जगह कालेनबाख के लिए लिखे गए ”स्नेह और अधिक स्नेह” जैसे शब्दों का भी गलत अर्थ लगाया गया| गांधी द्वारा अपने शयन-कक्ष में रखे गए कालेनबाख के चित्र् को भी उसी अनर्थ से जोड़ा गया| गांधी के  लगभग 200 पत्रें में उन्होंने कालेनबाख से अपने पूर्व-जन्म के संबंधों की बात भी कही है| ये सब बातें किसी भी भौतिकवादी सभ्यता के ढांचे में पले-बढ़े विद्वान या पत्र्कार के लिए अजूबा ही हो सकती हैं| वे यह मानकर चलते हैं कि दो पुरूषों या दो महिलाओं के बीच परम आत्मीयता का भाव रह ही नहीं सकता| यौन संबंधों के बिना आत्मीय संबंध संभव ही नहीं हंंै|
वास्तव में गांधी इतने विलक्षण और इतने अद्वितीय थे कि उन्हें न तो परंपरागत पश्चिमी चश्मों से देखा जा सकता है और न ही परंपरागत भारतीय चश्मों से ! गांधी का सही रूप देखने के लिए मानवता को अपना एक नया चश्मा बनाना पड़ेगा| गांधी ने अपनी आत्म-कथा को ”मेरे सत्य के प्रयोग’ कहा है| यदि वे कुछ वर्ष और जीवित रहते और मेरी उनसे भेंट हो जाती तो मैं उनसे कहता कि आप एक आत्म-कथा और लिखिए और उसका शीर्षक दीजिए ‘मेरे ब्रह्यचर्य के प्रयोग’ ! उनकी यह दूसरी आत्म-कथा भी मानवता की बड़ी सेवा करती| मानव-समाज को तब यह मालूम पड़ता कि दुनिया में महापुरूष तो एक से एक बढ़कर हुए लेकिन गांधी-जैसा कोई नहीं हुआ| पिछले 55 वर्षों में गांधीजी के निजी जीवन पर चार-पांच ग्रंथ आ चुके हैं| जिनमें प्रो. गिरजाकुमार का शोध सर्वश्रेष्ठ है लेकिन अभी इस रहस्यमय मुद्दे पर काफी काम होना शेष है|
कामदेव से कौन पराजित नहीं हुआ ? क्या माओ, क्या लेनिन, क्या हिटलर, क्या आइंस्टीन, क्या कार्ल मार्क्स, क्या सिगमिंड फ्रायड, क्या तॉल्सतॉय, क्या लिंकन, क्या केनेडी और क्या क्लिंटन ? दुनिया के किसी भी बलशाली या धनशाली व्यक्ति का नाम लीजिए और उसके पीछे कोई न कोई रेला निकल आएगा| जिन्हें विभिन्न मज़हब और संप्रदाय अपना जनक कहते हैं और जिन्हें अवतारों और देवताओं की श्रेणी में रखा जाता है, ऐसे महापुरूष भी यौन-पिपासा के शिकार हुए बिना नहीं रहे लेकिन गांधी गजब के आदमी थे, वे 79 साल की उम्र में भी कामदेव से लड़ते रहे और उसे परास्त करते रहे| 37 साल की भरी जवानी में उन्होंने जो ब्रह्यचर्य का व्रत लिया, उसे उन्होंने अंतिम सांस तक निभाया| उन्होंने अपनी यौन-शक्ति का उदात्तीकरण किया| वे ऊर्ध्वरेता बने| जब कभी कुछ लड़खड़ाहट का अंदेशा हुआ, उन्होंने उसे छिपाया नहीं| अपने अति अंतरंग अनुभवों को भी उन्होंने अपने संपादकीय में लिख छोड़ा| वे सत्य के सिपाही थे| यदि मन में सोते या जागते हुए भी कोई कुविचार आया तो उन्होंने उसे अपने साथियों को बताया और उसके कारण और निवारण में वे निरत हुए|
ज़रा याद करें कि अपनी आत्म-कथा में उन्होंने अपनी कामुकता का चित्र्ण कितनी निर्ममता से किया है| उन्होंने अंतिम सांसें गिनते हुए पिता की उपेक्षा किसलिए की ? सिर्फ काम-वासना के वशीभूत होने के कारण ! इस काम-शक्ति ने अंतिम दम तक गांधी का पीछा नहीं छोड़ा| दक्षिण अफ्रीका में सिर्फ कालेनबाख ही नहीं, हेनरी पोलक और उनकी पत्नी मिली ग्राहम तथा उनकी 16 वर्षीय सचिव सोन्या श्लेसिन के साथ गांधी के संबंध इतने घनिष्ट और आत्मीय रहे कि कोई चाहे तो उनकी कितनी ही दुराशयपूर्ण व्याख्या कर सकता है| मिस श्लेसिन को केलनबाख ही गांधीजी के पास लाए थे| गांधीजी ने लिखा है कि श्लेसिन बड़ी नटखट निकली ”लेकिन एक महिने के भीतर ही उसने मुझे वश में कर लिया|” अपने पुरूष और महिला मित्रें के साथ गांधी के संबंध इतने खुले और सुपरिभाषित होते थे कि कहीं किसी प्रकार की मर्यादा-भंग का प्रश्न ही नहीं उठता था| तॉल्सतॉय फार्म और फीनिक्स आश्रम में गांधी जैसे खुद रहते थे, वैसे ही वे अपने अनुयायियों को भी रहने की छूट देते थे| उसका नतीज़ा क्या हुआ ? दोनों स्थानों पर अपि्रय यौन-घटनाएं घटीं| गांधी को विरोधस्वरूप उपवास करना पड़ा| कुछ लोगों को निकालना पड़ा| उनके अपने बेटे को दंडित करना पड़ा| गांधी-जैसे लौह-संयम और पुष्प-सुवास की-सी उन्मुक्त्ता क्या साधारण मनुष्यों में हो सकती है ? इन दो अतियों का समागम गांधी-जैसे अद्वितीय व्यक्ति में ही हो सकता था|
गांधीजी के दबाव में आकर आग्रमवासी ब्रह्यचर्य का व्रत तो ले लेते थे लेकिन वे लंबे समय तक उसका पालन नहीं कर पाते थे| स्वयं कालेनबाख इसके उदाहरण बने| गांधी के बड़े-बड़े अनुयायी वासनाग्रस्त होने से नहीं बचे लेकिन गांधी ने कभी घुटने नहीं टेके| गांधीजी के आश्रमों में रहनेवाले युवक-युवतियों को वे काफी छूट देते थे लेकिन उन पर कड़ी निगरानी भी रखते थे|
जहां तक कालेनबाख का सवाल है, वे उन्हें ‘लोअर चेंबर’ कहकर जरूर संबोधित करते थे लेकिन ऐसे अड़नाम उन्होंने अपने कई अन्य पुरूष और महिला मित्रें को दे रखे थे| रवीद्रनाथ ठाकुर की भतीजी सरलादेवी चौधरानी को वे अपनी ‘आध्यात्मिक पत्नी’ कहा करते थे| बि्रटिश एडमिरल की बेटी मिस स्लेड को उन्होंने ‘मीरा बेन’ नाम दे दिया था| अमेरिकी भक्तिन निल्ला क्रेम कुक को वे ‘भ्रष्ट बेटी’ कहा करते थे| बीबी अमतुस्सलाम को वे ‘पगली बिटिया’ बोला करते थे| दक्षिण अफ्रीका के अपने 21 वर्ष के प्रवास में गांधीजी ने ब्रह्यचर्य की जो शपथ ली, उसके पीछे उद्दीपक कारण उनका जेल का एक भयंकर अनुभव भी था| नवंबर 1907 में ट्रांसवाल की जेल में उन्होंने अपनी आंखों से देखा कि एक चीनी और एक अफ्रीकी कैदी किस तरह पूरी रात वीभत्स यौन-क्रीड़ा करते रहे| उन्हें अपनी रक्षा के लिए पूरी रात जागना पड़ा| संतोनोत्पत्ति के अलावा किसी भी अन्य कारण के लिए किए गए सहवास को वे पाप मानने लगे| इस प्रतिज्ञा का पालन उन्होंने जीवन भर किया| अफ्रीकी कैदियों के दुराचरण को नजदीक से देखने के कारण ही गांधीजी ने जो टिप्पणी कर दी, उसके आधार पर उन्हें नस्लवादी कहना सर्वथा अनुचित है|
दक्षिण अफ्रीकी प्रवास के दौरान उन्होंने ब्रह्यचर्य पर काफी जोर दिया लेकिन भारत लौटकर 15-16 साल बाद गांधीजी ने ब्रह्यचर्य के कुछ ऐसे प्रयोग शुरू कर दिए, जो गांधी के पहले दुनिया में किसी ने नहीं किए| वे स्वयं पूर्ण नग्न होकर नग्न युवतियों और महिलाओं के साथ सोते थे, पूर्ण नग्नावस्था में महिलाओं से मालिश करवाते थे और रजस्वला युवतियों को मां की तरह व्यावहारिक मदद देते थे| गांधीजी के इन प्रयोगों पर राजाजी, विनोबा, कालेलकर, किशोरभाई मश्रूवाला, नरहरि पारेख और डॉ. राजेन्द्रप्रसाद जैसे गांधी-भक्तों ने भी प्रश्न चिन्ह लगाए| गांधीजी के साथी प्रो. निर्मलकुमार बोस ने गांधीजी के इस आचरण पर कड़ी आपत्ति भी की| नोआखली यात्र के दौरान गांधीजी के निजी सचिव आर.पी. परसुराम इतने व्यथित हुए कि उन्होंने पंद्रह  पृष्ठ का पत्र् लिखकर गांधीजी के प्रयोगों का विरोध किया और इस्तीफा दे दिया| फिर भी गांधीजी डटे रहे|
गांधीजी क्यों डटे रहे ? क्योंकि गांधीजी के मन में कोई कलुष नहीं था| वे कामशक्ति पर विजय पाने को अपनी आध्यात्मिकता का चरमोत्कर्ष समझते थे| वे चाहते थे कि वे स्वेच्छया पूर्णरूपेण नपुंसक बन जाएं, जैसा कि बाइबिल और कुरान में कहा गया है| वास्तव में वे उस हद तक पहुंच रहे थे| वे अपनी कुटिया में खिड़की-दरवाजें बंद करके कभी नहीं सोए| वे मालिश भी खुले मैदान में करवाते थे| वे अपनी परीक्षा तो रोज करते ही थे, आम लोगों को भी देखने देते थे कि वे इस परीक्षा में सफल हुए या नहीं| उनके बहुत निकट रहनेवाली लगभग दर्जन भर देसी और विदेशी महिलाओं में से किसी ने भी एक बार भी यह नहीं कहा कि गांधीजी ने कभी कोई कुचेष्टा की है| कुछ महिलाओं और युवतियों को गांधीजी ने अपने से दूर किया, क्योंकि उनमें से विकार के संकेत आने लगे थे| महिलाएं गांधीजी के संग क्यों आती थीं और उन पर क्या प्रतिकि्रया होती थी, यह एक अलग विषय है|
गांधीजी का ब्रह्यचर्य केथोलिक और हिंदू ब्रह्यचर्य से काफी अलग था| सहवास के अलावा उनके यहां दरस-परस-वचन-स्मरण आदि की छूट थी लेकिन पारंपरिक ब्रह्यचर्य के इन अपवादों में कहीं रत्ती भर भी वासना न हो, यह देखना गांधी का काम था| सरलादेवी चौधरानी के साथ चले ‘वासनामय’ प्रेम-प्रसंग को भंग करने के लिए गांधी ने जिस आध्यात्मिक साहस का परिचय दिया, वह बड़े-बड़े साधु-संतों के लिए भी ईर्ष्या का विषय हो सकता है| ऐसे गांधी पर कालेनबाख के हवाले से समलैंगिक होने का संदेह करना अपनी विकृत मानसिकता को गांधी पर आरोपित करना है|
जनसत्ता, 07अप्रैल 2011 : जोज़फ लेलीवेल्ड का भला हो कि उनकी वजह से गांधी पर एक बार फिर लंबी-चौड़ी बहस शुरू हो गई है| कृतज्ञ भारत गांधी को सिर्फ हर 2 अक्तूबर या 30 जनवरी को याद करने को मजबूर हो जाता है वरना गांधी अब अजायबघर की वस्तु हो गए हैं| लेलीवेल्ड की पुस्तक ”ग्रेट सोल : महात्मा गांधी एंड हिज़ स्ट्रगल विथ इंडिया” कोई चालू किताब नहीं है| लेलीवेल्ड ने वर्षों के अनुसंधान के बाद यह पुस्तक लिखी है| वे ‘पुलिट्रजर’ जैसे प्रतिष्ठित पुरस्कार के विजेता हैं| वे ‘न्यूयार्क टाइम्स’ के कार्यकारी संपादक भी रह चुके हैं| उन्हें भारत और दक्षिण अफ्रीका में रहकर काम करने का भी अच्छा अनुभव है| उन्होंने अपनी पुस्तक पर लगे प्रतिबंध की कड़ी भर्त्सना की है और इस आरोप को बिल्कुल निराधार बताया है कि उन्होंने गांधी को समलैंगिक या नस्लवादी कहा है| उनका कहना है कि इस तरह के शब्द उनकी पुस्तक में कहीं आए ही नहीं हैं|  लेलीवेल्ड बिल्कुल ठीक हैं| उन्हें उनके शब्दों के आधार पर कोई भी नहीं पकड़ सकता लेकिन उनकी पुस्तक की एक समीक्षा ने उन्हें विवादास्पद बना दिया| एक बि्रटिश अखबार ने इस समीक्षा को आधार बनाकर महात्मा गांधी और उनके शिष्य हरमन कालेनवाख के संबंधों को उछाल दिया| उसने लेलीवेल्ड द्वारा वर्णित तथ्यों की ऐसी वक्र-व्याख्या की कि गांधी एक बार फिर चर्चा के घेरे में आ गए| लेलीवेल्ड ने गांधी और कालेनबाख के संबंधों के बारे में जो भी लिखा है, वह प्रामाणिक दस्तावेजों के आधार पर लिखा है| संपूर्ण गांधी वाड्रमय से उन्होंने कालेनबाख के नाम गांधी के पत्रें को उद्रधृत किया है| ये हरमन कालेनबाख कौन थे ? कालेनबाख गांधी से दो साल छोटे थे| वे जर्मन-यहूदी थे| वे 1904 में गांधी से मिले| गांधी और कालेनबाख इतने घनिष्ट मित्र् बन गए कि वे एक-दूसरे को दो शरीर और एक आत्मा मानते थे| कालेनबाख ने ही अपनी 1100 एकड़ भूमि गांधीजी को दी थी, जिस पर उन्होंने ”तॉल्सतॉय फार्म” नामक आश्रम खड़ा किया था| वे गांधी से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने ब्रह्यचर्य और शाकाहार का व्रत ले लिया| वे गांधीजी के सत्याग्रहों में जमकर भाग लेते, संगठनात्मक कार्य करते और आश्रम की व्यवस्था भी चलाते| ऐसे दो परम मित्रें के बीच समलैंगिक संबंधों की बात कैसे उठी ?  लेलीवेल्ड ने गांधीजी के पत्रें के कुछ शब्दों को इस तरह उद्रधृत किया कि उनके दोहरे अर्थ लगाए जा सकते हैं| जैसे गांधीजी खुद को ‘अपर चेंबर’ (उच्च सदन) और कालेनबाख को ‘लोअर चेम्बर’ (निम्न सदन) लिखा करते थे| लेलीवेल्ड ने इन दो शब्दों को तो उछाला लेकिन उन्होंने और उनके समीक्षकों ने यह नहीं बताया कि वे ऐसा क्यों लिखते थे ? कालेनबाख ‘लोअर हाउस’ की तरह बजट बनाते थे और गांधीजी ‘अपर हाउस’ की तरह उसमें  कतरब्योंत कर देते थे| इस आर्थिक पदावलि को यौन पदाविल में बदलनेवाले मस्तिष्क को आप क्या कहेंगे ? यह आधुनिक पश्चिमी जीवन-पद्घति का अभिशाप है| इसी तरह गांधी के पत्रें में जगह-जगह कालेनबाख के लिए लिखे गए ”स्नेह और अधिक स्नेह” जैसे शब्दों का भी गलत अर्थ लगाया गया| गांधी द्वारा अपने शयन-कक्ष में रखे गए कालेनबाख के चित्र् को भी उसी अनर्थ से जोड़ा गया| गांधी के  लगभग 200 पत्रें में उन्होंने कालेनबाख से अपने पूर्व-जन्म के संबंधों की बात भी कही है| ये सब बातें किसी भी भौतिकवादी सभ्यता के ढांचे में पले-बढ़े विद्वान या पत्र्कार के लिए अजूबा ही हो सकती हैं| वे यह मानकर चलते हैं कि दो पुरूषों या दो महिलाओं के बीच परम आत्मीयता का भाव रह ही नहीं सकता| यौन संबंधों के बिना आत्मीय संबंध संभव ही नहीं हंंै| वास्तव में गांधी इतने विलक्षण और इतने अद्वितीय थे कि उन्हें न तो परंपरागत पश्चिमी चश्मों से देखा जा सकता है और न ही परंपरागत भारतीय चश्मों से ! गांधी का सही रूप देखने के लिए मानवता को अपना एक नया चश्मा बनाना पड़ेगा| गांधी ने अपनी आत्म-कथा को ”मेरे सत्य के प्रयोग’ कहा है| यदि वे कुछ वर्ष और जीवित रहते और मेरी उनसे भेंट हो जाती तो मैं उनसे कहता कि आप एक आत्म-कथा और लिखिए और उसका शीर्षक दीजिए ‘मेरे ब्रह्यचर्य के प्रयोग’ ! उनकी यह दूसरी आत्म-कथा भी मानवता की बड़ी सेवा करती| मानव-समाज को तब यह मालूम पड़ता कि दुनिया में महापुरूष तो एक से एक बढ़कर हुए लेकिन गांधी-जैसा कोई नहीं हुआ| पिछले 55 वर्षों में गांधीजी के निजी जीवन पर चार-पांच ग्रंथ आ चुके हैं| जिनमें प्रो. गिरजाकुमार का शोध सर्वश्रेष्ठ है लेकिन अभी इस रहस्यमय मुद्दे पर काफी काम होना शेष है|  कामदेव से कौन पराजित नहीं हुआ ? क्या माओ, क्या लेनिन, क्या हिटलर, क्या आइंस्टीन, क्या कार्ल मार्क्स, क्या सिगमिंड फ्रायड, क्या तॉल्सतॉय, क्या लिंकन, क्या केनेडी और क्या क्लिंटन ? दुनिया के किसी भी बलशाली या धनशाली व्यक्ति का नाम लीजिए और उसके पीछे कोई न कोई रेला निकल आएगा| जिन्हें विभिन्न मज़हब और संप्रदाय अपना जनक कहते हैं और जिन्हें अवतारों और देवताओं की श्रेणी में रखा जाता है, ऐसे महापुरूष भी यौन-पिपासा के शिकार हुए बिना नहीं रहे लेकिन गांधी गजब के आदमी थे, वे 79 साल की उम्र में भी कामदेव से लड़ते रहे और उसे परास्त करते रहे| 37 साल की भरी जवानी में उन्होंने जो ब्रह्यचर्य का व्रत लिया, उसे उन्होंने अंतिम सांस तक निभाया| उन्होंने अपनी यौन-शक्ति का उदात्तीकरण किया| वे ऊर्ध्वरेता बने| जब कभी कुछ लड़खड़ाहट का अंदेशा हुआ, उन्होंने उसे छिपाया नहीं| अपने अति अंतरंग अनुभवों को भी उन्होंने अपने संपादकीय में लिख छोड़ा| वे सत्य के सिपाही थे| यदि मन में सोते या जागते हुए भी कोई कुविचार आया तो उन्होंने उसे अपने साथियों को बताया और उसके कारण और निवारण में वे निरत हुए| ज़रा याद करें कि अपनी आत्म-कथा में उन्होंने अपनी कामुकता का चित्र्ण कितनी निर्ममता से किया है| उन्होंने अंतिम सांसें गिनते हुए पिता की उपेक्षा किसलिए की ? सिर्फ काम-वासना के वशीभूत होने के कारण ! इस काम-शक्ति ने अंतिम दम तक गांधी का पीछा नहीं छोड़ा| दक्षिण अफ्रीका में सिर्फ कालेनबाख ही नहीं, हेनरी पोलक और उनकी पत्नी मिली ग्राहम तथा उनकी 16 वर्षीय सचिव सोन्या श्लेसिन के साथ गांधी के संबंध इतने घनिष्ट और आत्मीय रहे कि कोई चाहे तो उनकी कितनी ही दुराशयपूर्ण व्याख्या कर सकता है| मिस श्लेसिन को केलनबाख ही गांधीजी के पास लाए थे| गांधीजी ने लिखा है कि श्लेसिन बड़ी नटखट निकली ”लेकिन एक महिने के भीतर ही उसने मुझे वश में कर लिया|” अपने पुरूष और महिला मित्रें के साथ गांधी के संबंध इतने खुले और सुपरिभाषित होते थे कि कहीं किसी प्रकार की मर्यादा-भंग का प्रश्न ही नहीं उठता था| तॉल्सतॉय फार्म और फीनिक्स आश्रम में गांधी जैसे खुद रहते थे, वैसे ही वे अपने अनुयायियों को भी रहने की छूट देते थे| उसका नतीज़ा क्या हुआ ? दोनों स्थानों पर अपि्रय यौन-घटनाएं घटीं| गांधी को विरोधस्वरूप उपवास करना पड़ा| कुछ लोगों को निकालना पड़ा| उनके अपने बेटे को दंडित करना पड़ा| गांधी-जैसे लौह-संयम और पुष्प-सुवास की-सी उन्मुक्त्ता क्या साधारण मनुष्यों में हो सकती है ? इन दो अतियों का समागम गांधी-जैसे अद्वितीय व्यक्ति में ही हो सकता था| गांधीजी के दबाव में आकर आग्रमवासी ब्रह्यचर्य का व्रत तो ले लेते थे लेकिन वे लंबे समय तक उसका पालन नहीं कर पाते थे| स्वयं कालेनबाख इसके उदाहरण बने| गांधी के बड़े-बड़े अनुयायी वासनाग्रस्त होने से नहीं बचे लेकिन गांधी ने कभी घुटने नहीं टेके| गांधीजी के आश्रमों में रहनेवाले युवक-युवतियों को वे काफी छूट देते थे लेकिन उन पर कड़ी निगरानी भी रखते थे| जहां तक कालेनबाख का सवाल है, वे उन्हें ‘लोअर चेंबर’ कहकर जरूर संबोधित करते थे लेकिन ऐसे अड़नाम उन्होंने अपने कई अन्य पुरूष और महिला मित्रें को दे रखे थे| रवीद्रनाथ ठाकुर की भतीजी सरलादेवी चौधरानी को वे अपनी ‘आध्यात्मिक पत्नी’ कहा करते थे| बि्रटिश एडमिरल की बेटी मिस स्लेड को उन्होंने ‘मीरा बेन’ नाम दे दिया था| अमेरिकी भक्तिन निल्ला क्रेम कुक को वे ‘भ्रष्ट बेटी’ कहा करते थे| बीबी अमतुस्सलाम को वे ‘पगली बिटिया’ बोला करते थे| दक्षिण अफ्रीका के अपने 21 वर्ष के प्रवास में गांधीजी ने ब्रह्यचर्य की जो शपथ ली, उसके पीछे उद्दीपक कारण उनका जेल का एक भयंकर अनुभव भी था| नवंबर 1907 में ट्रांसवाल की जेल में उन्होंने अपनी आंखों से देखा कि एक चीनी और एक अफ्रीकी कैदी किस तरह पूरी रात वीभत्स यौन-क्रीड़ा करते रहे| उन्हें अपनी रक्षा के लिए पूरी रात जागना पड़ा| संतोनोत्पत्ति के अलावा किसी भी अन्य कारण के लिए किए गए सहवास को वे पाप मानने लगे| इस प्रतिज्ञा का पालन उन्होंने जीवन भर किया| अफ्रीकी कैदियों के दुराचरण को नजदीक से देखने के कारण ही गांधीजी ने जो टिप्पणी कर दी, उसके आधार पर उन्हें नस्लवादी कहना सर्वथा अनुचित है| दक्षिण अफ्रीकी प्रवास के दौरान उन्होंने ब्रह्यचर्य पर काफी जोर दिया लेकिन भारत लौटकर 15-16 साल बाद गांधीजी ने ब्रह्यचर्य के कुछ ऐसे प्रयोग शुरू कर दिए, जो गांधी के पहले दुनिया में किसी ने नहीं किए| वे स्वयं पूर्ण नग्न होकर नग्न युवतियों और महिलाओं के साथ सोते थे, पूर्ण नग्नावस्था में महिलाओं से मालिश करवाते थे और रजस्वला युवतियों को मां की तरह व्यावहारिक मदद देते थे| गांधीजी के इन प्रयोगों पर राजाजी, विनोबा, कालेलकर, किशोरभाई मश्रूवाला, नरहरि पारेख और डॉ. राजेन्द्रप्रसाद जैसे गांधी-भक्तों ने भी प्रश्न चिन्ह लगाए| गांधीजी के साथी प्रो. निर्मलकुमार बोस ने गांधीजी के इस आचरण पर कड़ी आपत्ति भी की| नोआखली यात्र के दौरान गांधीजी के निजी सचिव आर.पी. परसुराम इतने व्यथित हुए कि उन्होंने पंद्रह  पृष्ठ का पत्र् लिखकर गांधीजी के प्रयोगों का विरोध किया और इस्तीफा दे दिया| फिर भी गांधीजी डटे रहे| गांधीजी क्यों डटे रहे ? क्योंकि गांधीजी के मन में कोई कलुष नहीं था| वे कामशक्ति पर विजय पाने को अपनी आध्यात्मिकता का चरमोत्कर्ष समझते थे| वे चाहते थे कि वे स्वेच्छया पूर्णरूपेण नपुंसक बन जाएं, जैसा कि बाइबिल और कुरान में कहा गया है| वास्तव में वे उस हद तक पहुंच रहे थे| वे अपनी कुटिया में खिड़की-दरवाजें बंद करके कभी नहीं सोए| वे मालिश भी खुले मैदान में करवाते थे| वे अपनी परीक्षा तो रोज करते ही थे, आम लोगों को भी देखने देते थे कि वे इस परीक्षा में सफल हुए या नहीं| उनके बहुत निकट रहनेवाली लगभग दर्जन भर देसी और विदेशी महिलाओं में से किसी ने भी एक बार भी यह नहीं कहा कि गांधीजी ने कभी कोई कुचेष्टा की है| कुछ महिलाओं और युवतियों को गांधीजी ने अपने से दूर किया, क्योंकि उनमें से विकार के संकेत आने लगे थे| महिलाएं गांधीजी के संग क्यों आती थीं और उन पर क्या प्रतिकि्रया होती थी, यह एक अलग विषय है| गांधीजी का ब्रह्यचर्य केथोलिक और हिंदू ब्रह्यचर्य से काफी अलग था| सहवास के अलावा उनके यहां दरस-परस-वचन-स्मरण आदि की छूट थी लेकिन पारंपरिक ब्रह्यचर्य के इन अपवादों में कहीं रत्ती भर भी वासना न हो, यह देखना गांधी का काम था| सरलादेवी चौधरानी के साथ चले ‘वासनामय’ प्रेम-प्रसंग को भंग करने के लिए गांधी ने जिस आध्यात्मिक साहस का परिचय दिया, वह बड़े-बड़े साधु-संतों के लिए भी ईर्ष्या का विषय हो सकता है| ऐसे गांधी पर कालेनबाख के हवाले से समलैंगिक होने का संदेह करना अपनी विकृत मानसिकता को गांधी पर आरोपित करना है|

लेखक/रचनाकार: डॉ० वेद प्रताप वैदिक

[ लेखक भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं। ] अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विशेषज्ञ की हैसियत से अनेक देशों के राष्ट्राध्यक्षों. प्रधानमंत्रियों और विदेशमंत्रियों से व्यक्तिगत परिचय. अफगानिस्तान के लगभग सभी शीर्षस्थ नेताओं तथा पेशावर स्थित मुजाहिदीन नेताओं से सुदीर्घ परिचय और संवाद. अफगानिस्तान में शांति-स्थापना का विशेष प्रयास. फीजी, मोरिशस, त्र्िनिदाद, सूरिनाम और खाड़ी-देशों के भारतवंशियों के लिए सक्रिय सांस्कृतिक-सामाजिक कार्य. संसार भर की हिन्दी संस्थाओं और हिन्दी विद्वानों से सतत संपर्क| हिंदी को विश्व भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए कृतसंकल्प !