Monday, January 31, 2011

क्या इस्लाम के लिए इस देश के आध्यात्मिक मूल्यों को मिटाया जा सकता है ? The Indian traditions

लालच की मंडी के थोक और खुदरा व्यापारी
आजकल वोटर लोग इतने अक़्लमंद हैं कि चुनाव के दौरान हरेक पार्टी के प्रचार कार्यालय में जाते हैं। उन सब प्रत्याशियों से अपने आगे हाथ जुड़वाते हैं, अपनी मिन्नत करवाते हैं। चाय-मिठाई से लेकर उनकी शराब तक अपने हलक़ में उतार लेते हैं और फिर यह देखते हैं इनमें कौन सा बंदा अपने काम आ सकता है ?
1. जब हम दंगा, ख़ून-ख़राबा और लूटपाट करेंगे तो हमें जेल जाने से कौन बचाएगा ?
2. टूरिज़्म के नाम पर हमारी धर्म नगरियों के लिए , सामाजिक न्याय के नाम पर हमारी जाति के लिए सरकारी योजना बनवाकर कौन हमें अरबों खरबों राष्ट्रीय रूपया लूटने का अवसर दे सकता है ?
3. सरकारी ज़मीन पर हमारे अवैध निर्माण को ढहाये जाने से कौन बचा सकता है ?
4. नौकरी के लिए हमारे बच्चे की सिफ़ारिश कौन कर सकता है ?

इन मुद्दों में देश की रक्षा और विकास का मुद्दा सिरे से ही नहीं होता। ख़ूब ठोक बजाकर ज़्यादा वोटर जिस प्रतिनिधि को अपने नाजायज़ लालच पूरे करने वाला समझते हैं , उसे अपना नेता चुनते हैं और वे बार बार उसे या उस जैसों को ही चुनते हैं । ग़लत आदमी का चुनाव करना वोटर्स की बेवक़ूफ़ी नहीं है बल्कि उनकी एक सोची समझी पॉलिसी है ।
ये लोग हमेशा से ही ऐसा करते आए हैं कि जब देश के लिए कुरबानी देने का वक्त होता है तो काम लेते हैं सबसे और जब समुद्र मंथन के बाद अमृत निकलता है तो उसे ये केवल खुद हड़पना चाहते हैं। उसके लिए इन्हें मोहिनी जैसे एक नेता की ज़रूरत हमेशा से रही है। देश का विभाजन और युद्ध होने की नौबत चाहे सन् 1947 में आई हो या महाभारत काल में , उसकी वजह यही थी कि कुछ तो अपने लिए सारा अमृत चाहते थे और दूसरों को वे उसकी एक बूँद भी चखने नहीं देना चाहते थे।
गांधी जी वैष्णव जन तो थे लेकिन पता नहीं कैसे वैष्णव जन थे ?
वे मोहिनी की तरह छल के क़ायल नहीं थे। फलतः उन्हें क़त्ल कर दिया गया ।
जो मोहिनी नहीं बन सकता , उसके पीछे हमारा देश नहीं चल सकता । हमारे देश की यह स्पष्ट नीति है और यही इस देश का सबसे बड़ा आध्यात्मिक मूल्य है प्राचीन काल से। हरेक मठ-मंदिर और आश्रम में इसी की शिक्षा दी जाती है । जो इस प्राचीन मूल्य को बदलना चाहते हैं , उन्हें राहु केतु की तरह न सिर्फ़ मार दिया जाता है बल्कि उन्हें मरने के बाद भी बदनाम किया जाता है ताकि फिर कोई राहु केतु की तरह उनके छल-कौशल का पर्दा चाक करने की हिम्मत न कर सके।
मोहिनी आज भी नाच रही है और लोग उसका नाच देख रहे हैं । औरतों के नाच देखना भी इस देश का एक बहुत बड़ा आध्यात्मिक मूल्य माना जाता है , भक्ति मानी जाती है और यह भक्ति हरेक मठ-मंदिर में की जाती है । नशे के बिना न तो नाचने में मज़ा आता है और न ही नाच देखने में । सो नशा करना भी एक आध्यात्मिक काम है ।
इस्लाम में दूसरों का हक़ मारना, छल-फ़रेब करना, औरतों का गैर मर्दों के सामने नाचना और नशा करना, इन सभी को जुर्म और पाप घोषित किया गया है।
क्या इस्लाम और सत्य के लिए इस देश के प्राचीन आध्यात्मिक मूल्यों को मिटा डाला जाए ?
इस्लाम से डरने की असल वजह यही है ।

हिंदू विवाह संस्कार में पति की मौत से भी पत्नी का संबंध अपने पति से नहीं टूटता Astha aur Sanskar

आप एक गृहस्थ हिंदू हैं। एक गृहस्थ हिंदू का यौन जीवन कैसा होना चाहिए ?
हिंदू धर्म में स्पष्ट है। आप ईश्वर को साक्षी मानकर कहिए कि आप गृहस्थाश्रम का शास्त्रानुसार पालन कर रहे हैं।
हिंदू धर्म में विवाह को एक संस्कार माना गया है जबकि इस्लाम में उसे एक समझौता। समझौता तलाक़ से भी ख़त्म हो जाता है और किसी एक साथी की मौत से भी जबकि हिंदू विवाह संस्कार में  पति की मौत से भी पत्नी का संबंध अपने पति से नहीं टूटता और हिंदू धर्म में तलाक़ तो है ही नहीं। अब आप बताइये कि आज अधिकतर हिंदू भाई अपने परिवार में विवाह को एक संस्कार मानते हैं या वे उसे मुसलमानों की तरह एक समझौते में बदल चुके हैं ?
अगर आपने ब्रह्मचर्य आश्रम का पालन नहीं किया है, अगर आप गृहस्थाश्रम के नियमों का पालन भी नहीं कर रहे हैं (छीछालेदर के डर से वे नियम मैं यहां पेश नहीं कर रहा हूं, आप चाहेंगे तो बता दूंगा) और 50 साल का होने के बाद वानप्रस्थ आश्रम के निर्वाह के लिए आप जंगल जाने के लिए तैयार नहीं हैं तो फिर इन आश्रमों के पालन से जी चुराने वाले आप लोग खुद हैं। आप ही वे लोग हैं जो अपनी सुविधा के मुताबिक़ अपने सिद्धांत और अपने संस्कार बदल बैठे हैं और वह भी सामूहिक रूप से। एक आदमी यदि धर्म के सिद्धांत और मान्यताएं बदले तो आप उसे धर्म परिवर्तन करने वाला ग़द्दार कहें और वही जुर्म आप करोड़ों की तादाद में मिलकर करें तो उसे आप धर्म परिवर्तन करना और अपने धर्म से ग़द्दारी करना क्यों न कहेंगे ?
हिंदू धर्म को ख़तरा हमेशा आप जैसे भितरघातियों से ही रहा है। जिन्होंने इसके नीति-नियमों के साथ हमेशा खिलवाड़ किया है और आज आप कर रहे हैं और झंडा ‘धर्म‘ का इतना ऊंचा लेकर चल रहे हैं कि दूसरों को भी सही-ग़लत का उपदेश कर रहे हैं।
बाबा पहले अपने आचरण को तो ठीक कर लीजिए।
दूसरों को ग़द्दारी का खि़ताब बेशक दीजिए लेकिन पहले अपना दामन तो पाक कर लीजिए।
किस की आस्था सही है और किसकी ग़लत, इसे बाद में तय कर लीजिएगा। पहले यह तो देख लीजिए कि अपने पल्ले आस्था है भी कि नहीं ?
आज इल्म का दौर है, तकनीक का दौर है। सच्चाई आज सबके सामने है जिसे झुठलाना आसान नहीं है।

# # # इस बात पर श्री पवन कुमार मिश्रा जी व अन्य बंधु भी ध्यान दें। डाक्टर संजय जी के बारे में आपने जानना चाहा , इसलिए मुझे मजबूरन यह कहना पड़ा, इस आशा के साथ कि 'तत्वयुक्त' होकर विचार करेंगे .

<b>दूसरों को नापने से पहले खुद को नापें।
दूसरों को जांचने से पहले खुद को जांचें।</b>
धर्म का ग़द्दार कौन और इल्ज़ाम किस पर ? Hypocrite

Sunday, January 30, 2011

? मेरी अनिवार्य सलाह :- LBA की कार्यकारिणी के हरेक सदस्य पर अनिवार्य किया जाए कि वे इस एसोसिएशन के संयोजक और अध्यक्ष की पोस्ट पढ़ें और उस पर अपने विचार भी दें ताकि दूसरे भी प्रेरित हों The rule

LBA कार्यकारिणी के सदस्य मेरे विरोध में तो लंबे लंबे लेख लिख सकते हैं लेकिन अपने अध्यक्ष जी की पोस्ट का प्रचार नहीं कर सकते ?

@ हरीश जी ! आप और ज़ाकिर दोनों को सोचना चाहिए कि आपने अपने पद की जिम्मेदारियों को कितना पूरा किया ?
संयोजक और अध्यक्ष महोदय दोनों को सोचना चाहिए कि अध्यक्ष जी का परोक्ष रूप से अपमान करने वाले एसोसिएशन के लिए निकम्मे और कामचोर लोगों को उनके पदों पर बनाए रखने से एसोसिएशन को सिवाय नुक़्सान के और क्या मिलने वाला है ?

मेरी अनिवार्य सलाह :-
LBA की कार्यकारिणी के हरेक सदस्य पर अनिवार्य किया जाए कि वे इस एसोसिएशन के संयोजक और अध्यक्ष की पोस्ट पढ़ें और उस पर अपने विचार भी दें ताकि दूसरे भी प्रेरित हों और हमारे अति महत्वपूर्ण लोगों की पोस्ट्स लोकप्रिय होकर ब्लाग की लोकप्रिय पोस्ट्स के कॉलम में नज़र आएँ और वे सदा पढ़ी जाती रहें। जो भी ऐसा न करे उसे एसोसिएशन के हितों पर चोट करने वाला समझकर तुरंत बाहर का रास्ता दिखा दिया जाए जैसा कि ज़ाकिर जी कि ख्वाहिश दूसरों के बारे में है और इसके लिए मार्च का भी इंतज़ार न किया जाए बल्कि इसे तत्काल प्रभाव से लागू कर दिया जाए ।

क्यों हरीश जी ! मेरी सलाह में कोई कमी तो नहीं है न ?

आप खुद को मेरा शिष्य कहते हैं तो बताइए कि इस पोस्ट में अपने मुझसे क्या सीखा ?

इस पोस्ट की पूरी Background जानने के लिए देखें मेरी ताज़ा पोस्ट LBA पर ।

धर्म का ग़द्दार कौन और इल्ज़ाम किस पर ? Hypocrite

पछुआ पवन (pachhua pawan): To Dr Anwar Jamal On अब बताईये कि आपको मेरी किस बात पर ऐतराज़ है ?

@ जनाब पवन कुमार मिश्रा जी ! मैं आपसे सहमत हूँ और मैं भी यही मानता हूँ कि धर्म परिवर्तन करना ग़द्दारी करना है। आज समाज में बड़ी मात्रा में धर्म परिवर्तन की घटनाएं देखने में आ रही हैं । लोग विभिन्न कारणों से व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से धर्म परिवर्तन कर रहे हैं। बहुत से संगठन हमारे समाज में धर्म परिवर्तन की प्रेरणा दे रहे हैं जो कि एक निंदनीय कर्म है। आखिर लोग अपने धर्म को बदलने के लिए तैयार क्यों हो जाते हैं ?
ईसाई मिशनरीज़ पर आरोप लगाया जाता है कि वे लोगों को लालच देकर उनका धर्म बदल देते हैं लेकिन बहुत लोग बुद्धिस्ट भी बनते हैं और बुद्धिस्ट प्रचारक लोगों को कोई लालच नहीं देते। तब लोग अपना धर्म क्यों बदल लेते हैं ?
इसके विपरीत समाज में बहुत लोग ऐसे भी हैं जो अधर्म के काम से पलटकर धर्म पर आ जाते हैं । हर तरह के लालच को छोड़कर और हर तरह की परेशानियाँ झेलकर भी वे धर्म नहीं छोड़ते। आदमी और आदमी में इतना बड़ा अंतर क्यों है ?
कोई धर्म छोड़ रहा है और कोई अधर्म ।
लेकिन यह कैसे पता चलेगा कि कौन धर्म छोड़ रहा है और कौन अधर्म ?
मत और संप्रदाय को तो धर्म नहीं कहा जा सकता ।
तब धर्म क्या है ?
धर्म को जानना होगा ताकि धर्म परिवर्तन को रोका जा सके ,
ताकि धर्म परिवर्तन कर चुके लोगों को वापस धर्म पर लाया जा सके ,
ताकि अधर्म को छोड़ने वाले महान कर्मवीरों के पुरूषार्थ को उचित सम्मान किया जा सके ,
ताकि जो अपने स्वार्थ और सुविधा की ख़ातिर धर्म के उसूल ही बदलकर पूरे समाज का ही धर्म बदल देते हैं ऐसे ग़द्दारों को ग़द्दारों के रूप में पहचाना जा सके ,
ताकि कोई वफ़ादार और ग़द्दार को हरेक पहचान ले और कोई ग़द्दार किसी वफ़ादार को ग़द्दारी का इल्ज़ाम देकर अपने आप को झूठी संतुष्टि न दे सके ।

हरेक चीज़ अपने गुण आदि से पहचानी जाती है ।
हमें चाहिए कि धर्म के ग़द्दारों को भी उनके लक्षण से पहचानना सीखें , धर्म और धार्मिकता को बढ़ाने के लिए , धर्म के अभ्युत्थान के लिए ऐसा करना आज अपरिहार्य है ।
आप इस परम पावन काम को शुरू कीजिए , मैं आपका साथ दूंगा । यदि वे लक्षण मुझमें मिलेंगे तो मैं ख़ुद को धर्म पर ज़रूर लाऊंगा और अगर ग़द्दारी के लक्षण आपमें मिलेंगे तो आपकी मर्ज़ी होगी , आप चाहे धर्म पर लायें या आज जैसे ही बने रहें , मैं आपसे कोई आग्रह नहीं करूंगा ।
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@ जनाब पवन कुमार मिश्रा जी ! आपके कहने पर मैंने दोबारा आपके दिए हवाले से कुछ ग्रहण करने की कोशिश की लेकिन वे भी मैक्समुलर के हवाले की तरह अपूर्ण हैं।
आपने दूसरे हवाले में केवल में लेखक का नाम ‘पी. एल. गौतम‘, किताब का नाम ‘प्राचीन भारत‘ और पेज नं. 126 लिख दिया है। इससे कुछ भी पता नहीं चलता कि पी. एल. गौतम जी वैदिक सभ्यता को 4000 वर्ष पुरानी मानते हैं या 2 अरब वर्ष पुरानी ?
आपको उनका कथन भी उद्धृत करना चाहिए था ताकि उनका मंतव्य मुझ पर स्पष्ट हो सकता। आपको उस किताब के प्रकाशक का पता भी देना चाहिए था ताकि मैं मूल किताब मंगाकर उसे चेक भी कर सकूं, जैसा कि मैं करता हूं।
यही ग़लती आपने ‘ऋषि‘ शब्द के बारे में श्री वेद प्रकाश उपाध्याय जी का हवाला देते हुए भी दोहराई है। उसमें भी आपने यह नहीं बताया है कि आपने उनका यह कथन किस पुस्तक के किस पृष्ठ से लिया है ?
मैं उन्हें निजी तौर पर नहीं जानता, सो मैं उनसे कन्फ़र्म भी नहीं कर सकता।
मैं पुनः अनुरोध करूंगा कि या तो आप बहस न करें और अगर करें तो अपने नज़रिये के हक़ में तर्क दें और तर्क की पुष्टि के लिए प्रमाण दें और जब प्रमाण उद्धृत करें तो उसकी पूरी निशानदेही करें कि यह किस पुस्तक से लिया गया है और इस पुस्तक का प्रकाशक कौन है ?
आपकी हरेक सही बात को मैं ज़रूर मानूंगा।
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‘(छिद्र) अन्वेषी जमाल साहेब आप शायद इस बात के विशेषज्ञ हैं कि मूलार्थ को छोड़कर मात्र शब्दों के फेर में ही पड़ा रहा जाए।‘
@ मेरे मनमोहक अमित जी ! आपसे मैं एक लंबे समय से संवाद करता आ रहा हूं। क्या मैंने कभी आपको इल्ज़ाम देकर बात शुरू की है ?
जैसे कि आपने बात के शुरू में ही मुझे ‘(छिद्र)अन्वेषी‘ कह दिया है। अगर मैंने आपके साथ कभी ऐसा बर्ताव नहीं किया है तो फिर मैं भी आपके द्वारा ऐसे पुकारे जाने का मुस्तहिक़ नहीं हूं। यह सिर्फ़ एक बदतमीज़ी है। मैंने आपको बता दिया है। अब आगे से भी आप ऐसा ही करना चाहें तो आपकी मर्ज़ी। आप अपने व्यवहार के स्वामी हैं, जैसा चाहे बरतें। दुश्मनों की ज़बान से अश्लील गालियां सुनकर भी मुझे सिर्फ़ प्रसन्नता ही मिलती है। लेकिन किसी अपने से ज़रा सी बात तकलीफ़ देती है। आप मेरे हैं। यह मैं आपको शुरू में ही बता चुका हूं और यह सच है।
ख़ैर, आपके अनुसार मूल मुद्दा है ‘आस्था के सही-ग़लत के निर्धारण का‘।
ठीक है, लेकिन जब आस्था की बात चलेगी तो आस्था के स्रोत की बात भी आएगी और आस्था वालों का ज़िक्र भी आएगा। उनके ज़िक्र के बिना इस मुद्दे का निर्धारण संभव हो तो कृप्या आप उस विधि को ज़रूर बताएं। तब आपके तरीक़े से ही बात की जाएगी।
मुझे अच्छा लगा कि आपने मेरे अमल को पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब स. के आदर्श पर परखने की कोशिश की। आपकी कोशिश बिल्कुल ठीक है। जो बात भी कुरआन के हुक्म और उनके आदर्श के अनुकूल नहीं होगी और मेरे व्यवहार में वह पाई जाएगी तो मैं उसे तुरंत छोड़ दूंगा, चाहे आप उस बात की तरफ़ ध्यान दिलाएं या फिर कोई मुसलमान । जो भी ध्यान दिलाएगा, मैं उसका अहसानमंद रहूंगा।
एक मुसलमान को आप जैसे भाईयों से अलग करने वाली यही चीज़ तो है। आप चाहें तो किसी भी मुसलमान को इस पैमाने से नापकर उसके सही या ग़लत होने का पता कर सकते हैं लेकिन अगर मैं चाहूं कि मैं पता करूं कि अमित जी हिंदू होने का दावा तो करते हैं लेकिन वे अपने दावे में सही हैं या ग़लत तो मैं जान ही नहीं सकता कि आप किस ऋषि या ज्ञानी का अनुसरण करते हैं ?
किसी भी नाम मात्र के हिंदू भाई का कोई भरोसा ही नहीं है कि वह किस का अनुसरण कर रहा है या शायद किसी का भी अनुसरण नहीं कर रहा है ?
कृप्या मुझे भी बताइयेगा कि आपने तो मुझे नाप भी लिया और नसीहत भी कर दी और बिल्कुल ठीक किया लेकिन मैं आपको किस पैमाने से नापूं ?
आप जिस ज्ञान का अनुसरण कर रहे हैं , वह आपको किस स्रोत से मिला और किस आदर्श का अनुसरण आप कर रहे हैं ?
यह तो हो सकता है कि आप एक से ज़्यादा आदर्श सत्पुरूषों का अनुसरण कर रहे हों लेकिन ऐसा तो नहीं होना चाहिए कि आप किसी भी आदर्श का अनुसरण सिरे से कर ही न रहे हों और यहां मंच पर हिंदू धर्म की तरफ़ से बहस ऐसे कर रहे हों कि मानों पता नहीं आप धर्म में कितना आगे बढ़े हुए हों ?
अगर आप किसी आदर्श का अनुसरण ही नहीं कर रहे हैं तो फिर पहले धर्म को धारण कीजिए और फिर दूसरों को नापने और टोकने की कोशिश कीजिए।
आप एक गृहस्थ हिंदू हैं। एक गृहस्थ हिंदू का यौन जीवन कैसा होना चाहिए ?
हिंदू धर्म में स्पष्ट है। आप ईश्वर को साक्षी मानकर कहिए कि आप गृहस्थाश्रम का शास्त्रानुसार पालन कर रहे हैं।
हिंदू धर्म में विवाह को एक संस्कार माना गया है जबकि इस्लाम में उसे एक समझौता। समझौता तलाक़ से भी ख़त्म हो जाता है और किसी एक साथी की मौत से भी जबकि हिंदू विवाह संस्कार पति की मौत से भी पत्नी का संबंध अपने पति से नहीं टूटता और हिंदू धर्म में तलाक़ तो है ही नहीं। अब आप बताइये कि आज अधिकतर हिंदू भाई अपने परिवार में विवाह को एक संस्कार मानते हैं या वे उसे मुसलमानों की तरह एक समझौते में बदल चुके हैं ?
अगर आपने ब्रह्मचर्य आश्रम का पालन नहीं किया है, अगर आप गृहस्थाश्रम के नियमों का पालन भी नहीं कर रहे हैं (छीछालेदर के डर से वे नियम मैं यहां पेश नहीं कर रहा हूं, आप चाहेंगे तो बता दूंगा) और 50 साल का होने के बाद वानप्रस्थ आश्रम के निर्वाह के लिए आप जंगल जाने के लिए तैयार नहीं हैं तो फिर इन आश्रमों के पालन से जी चुराने वाले आप लोग खुद हैं। आप ही वे लोग हैं जो अपनी सुविधा के मुताबिक़ अपने सिद्धांत और अपने संस्कार बदल बैठे हैं और वह भी सामूहिक रूप से। एक आदमी यदि धर्म के सिद्धांत और मान्यताएं बदले तो आप उसे धर्म परिवर्तन करने वाला ग़द्दार कहें और वही जुर्म आप करोड़ों की तादाद में मिलकर करें तो उसे आप धर्म परिवर्तन करना और अपने धर्म से ग़द्दारी करना क्यों न कहेंगे ?
हिंदू धर्म को ख़तरा हमेशा आप जैसे भितरघातियों से ही रहा है। जिन्होंने इसके नीति-नियमों के साथ हमेशा खिलवाड़ किया है और आज आप कर रहे हैं और झंडा ‘धर्म‘ का इतना ऊंचा लेकर चल रहे हैं कि दूसरों को भी सही-ग़लत का उपदेश कर रहे हैं।
बाबा पहले अपने आचरण को तो ठीक कर लीजिए।
दूसरों को ग़द्दारी का खि़ताब बेशक दीजिए लेकिन पहले अपना दामन तो पाक कर लीजिए।
किस की आस्था सही है और किसकी ग़लत, इसे बाद में तय कर लीजिएगा। पहले यह तो देख लीजिए कि अपने पल्ले आस्था है भी कि नहीं ?
आज इल्म का दौर है, तकनीक का दौर है। सच्चाई आज सबके सामने है जिसे झुठलाना आसान नहीं है।

# # # इस बात पर श्री पवन कुमार मिश्रा जी व अन्य बंधु भी ध्यान दें। डाक्टर संजय जी के बारे में आपने जानना चाहा , इसलिए मुझे मजबूरन यह कहना पड़ा, इस आशा के साथ कि 'तत्वयुक्त' होकर विचार करेंगे .


दूसरों को नापने से पहले खुद को नापें।
दूसरों को जांचने से पहले खुद को जांचें।

सारे बच्चों से माँ नहीं पलती , सारे बच्चों को पालती है माँ

एक किरदारे-बेकसी है माँ
ज़िन्दगी भर मगर हंसी है माँ

सारे बच्चों से माँ नहीं पलती
सारे बच्चों को पालती है माँ

@ वंदना गुप्ता जी ! आपका स्वागत है 'प्यारी माँ' के प्यारे साये तले ।
आपकी रचना दिल को गहराई तक छू गई । ऐसे ही सोई हुई संवेदनाएं जगाने की आज शदीद ज़रूरत है । आपकी कविता का ज़िक्र हमने अपने ब्लाग 'मन की दुनिया' पर भी किया था ।
बराय मेहरबानी आप उसे भी देखिएगा। वहाँ भी सरसों के फूल खिले हुए हैं ।
धन्यवाद !

Saturday, January 29, 2011

कितनी पुरानी है वैदिक सभ्यता ? , क्या अमित शर्मा जी बताएंगे ? How old vedic culture ?

गणना में अंतर क्यों ?
@ आदरणीय पवन कुमार मिश्रा जी !
1. आपने मैक्समुलर की जो पंक्तियां quote की हैं , उनके बारे में आपने यह नहीं बताया कि ये पंक्तियाँ उनकी किस किताब से ली गई हैं ?

2. अंग्रेज़ी उद्धरण की किसी भी लाइन का अनुवाद यह नहीं बनता कि वैदिक सभ्यता 3500 वर्ष पुरानी है , आपने यह किस लाइन का अनुवाद किया है ?

3. इसी पोस्ट में आप वैदिक सभ्यता को इस्लाम से 4000 हज़ार साल पुरानी बता रहे हैं और अब आप मात्र 3500 वर्ष पुरानी बता रहे हैं ?

4. इस्लाम को अगर आप पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब स. के समय से भी मानें तो भी आपके गणित में लगभग 2000 वर्ष का अंतर आ गया है ?

5. इस दुविधा की स्थिति में मैं अपने अनुज भाई अमित जी से हेल्प लेना चाहूंगा और चाहूंगा कि वे हमारे सामने वस्तुस्थिति स्पष्ट करें!

6. प्रिय मनमोहक अनुज अमित जी ! वास्तव में मैक्समुलर महोदय ने वैदिक सभ्यता को कितना पुराना माना है और क्यों ?

7. क्या वास्तव में वैदिक सभ्यता मात्र 3500 वर्ष पुरानी है ?

8. क्या आप भाई मिश्रा जी के कथन से सहमत हैं ?

आप मैक्समुलर पर अच्छी स्टडी रखते हैं । आशा है कि आप हमें जानकारी देकर ज़रूर कृतार्थ करेंगे।

हम सांप के काटे की दवा सांप के ज़हर से ही बनाते हैं Poison as a medicine

एक टी. वी. सीरियल के सैट पर
आपका भाई अनवर जमाल
किसी आदमी के सच्चे या झूठे होने का फैसला इस आधार पर नहीं किया जा सकता कि लोग उसके बारे में क्या कहते हैं बल्कि उसका आधार यह है कि उसकी बात कितनी सच है ?
@ भाई हरीश जी ! आप मेरी बात को देखिये और बताइए कि सलीम भाई को जो उपदेश मैंने दिया है , वह सच्चा है या नहीं ?
अगर वह झूठा होगा तो मैं उसे अभी छोड़ दूंगा .
अब आप अपने कहे के मुताबिक़ मेरे शिष्य बन चुके हैं और मैंने आपको  ज्ञान देना भी शुरू कर दिया है .
अब आप मुझ पर आरोप लगाना छोड़ कर मुझ से कुछ सीखना शुरू करें वरना आपकी मर्ज़ी .
खुद सलीम खान साहब से आप पूछियेगा कि मेरी सलाह उन्हें  ठीक लगी या ग़लत ?
आपमें संभावनाएं हैं , उन्हें काम में लायें .
मेरा एक मिशन है . मेरा प्यार , गुस्सा , झिड़की और धिक्कार , मेरा सोना-जागना , गर्ज़ यह कि एक एक गतिविधि सब कुछ  डिज़ाइण्ड है.
आप चाहे तो उसे सीख सकते हैं , मैंने आज तक किसी को उसे सिखाया नहीं है . मैंने आपसे कहा था कि जो कुछ अक्सर नज़र आता है , हकीक़त उसके खिलाफ़ भी हुआ करती  है , यह सच है .
ख़ैर जैसा आप चाहें .
बहस करनी है तो बहस करें .
सीखना है तो सीखें . हर तरह आपका स्वागत है .
अपने अहंकार के बारे में भी किसी दिन आपको ज्ञान दूंगा , तब आप जानेंगे कि भारत में ऐसे ज्ञानी भी हैं जो सांप के काटे की दवा सांप के ज़हर से ही बनाते हैं .  
http://hamarivani.com/blog_post.php?blog_id=173

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इस कमेन्ट की बैकग्राउंड जानने के लिए देखें -
http://lucknowbloggersassociation.blogspot.com/2011/01/blog-post_29.html?showComment=1296316503459#c3042839187340538457

Friday, January 28, 2011

धर्म में कोई कमी न कल थी और न ही आज है Foolproof Dharma

.हर धर्म में कोई न कोई कमियां होती हैं
@ खबरदार हरीश जी ! अगर आप ने हर धर्म में कमी बताई .
इस बात पर जब बहस ही नहीं हुई तो आप सार्वजनिक मंच से यह क्यों कह रहे हैं कि हर धर्म में कमियाँ होती हैं ?
मैं न हिन्दू धर्म में कमी मानता हूँ और न ही इस्लाम में . अलबत्ता आप अपने निजी नज़रिए में कमी बताएं तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है .
ऋषि ज्ञानी थे और पवित्र भी . उन पर ईश्वर का ज्ञान अवतरित हुआ था लिहाज़ा ग़लती कि कोई गुंजाईश ही नहीं है , कोई कमी न कल थी और न ही आज है .
हिन्दू धर्म कि तरफ से भी मेरा यही कथन है और इस्लाम कि तरफ से भी . धर्म के बारे में यहाँ जब भी कोई statement दिया जायेगा , बहस शुरू हो जाएगी .
इसका ध्यान ज़रूर रखें .
http://ahsaskiparten.blogspot.com/2011/01/truth-about-great-rishies-part-second.html

इस संवाद कि पूरी पृष्ठभूमि जानने के लिए देखें -
http://lucknowbloggersassociation.blogspot.com/2011/01/lba-terms-and-conditions-for-lba.html?showComment=1296236442838#c2770594530503903026

Wednesday, January 26, 2011

जायज़ और नाजायज़ लालच का फ़र्क़ पता करने का आदर्श पैमाना क्या है ? The divine scale

@ डाक्टर टी. एस. दराल जी ! समाज को बेहतर बनाने के लिए हरेक फ़र्द को बेहतर बनना होगा और उसके लिए उसे छोड़नी होंगी अपनी बुराईयां , ख़ास तौर पर लालच ।
लेकिन लालच की बहुत सी क़िस्में हैं । एक लालच तो वह होता है जो कि एक बहन को अपने भाई से और एक पत्नी को अपने पति से होता है । सारे रिश्तों की बुनियाद ही लालच है और हमारी पूरी सभ्यता की इमारत इसी लालच पर तामीर हुई है और इसमें कुछ ग़लत है भी नहीं और एक लालच वह होता है कि जब कोई आदमी और कोई क़ौम दूसरों की संपत्ति भी महज अपनी ऐश की ख़ातिर हड़प लेना चाहता है । वे भरपेट खाकर शराब पीते हैं , म्यूज़िक पर झूमते हैं ,ऐश करते हैं और दूसरे रोटी और दवा के लिए भी रोते गिड़गिड़ाते रहते हैं ।
कौन पहचान कराएगा कि कौन सा लालच जायज़ है और कौन सा हराम ?
दुनिया में वह कौन सा आदमी है जिसने हराम और हलाल का इल्म भी इंसानियत को दिया और ख़ुद अपने समाज को इसी हराम-हलाल का पाबंद बनाकर हमारे लिए एक आदर्श भी स्थापित कर दिया ।
नाजायज़ लालच को छोड़ना तब तक मुमकिन ही नहीं है जब तक कि उस सच्चे आदर्श का अनुसरण न किया जाए ।
@ Honesty project democracy वाले भाई जय कुमार झा जी ! 30 जनवरी 2011 को रामलीला मैदान , दिल्ली में होने वाले इस जनयुद्ध का नेतृत्व कौन कर रहा है और वह किस आदर्श का अनुसरण कर रहा है ?
या वह अपने मन की इच्छा पर चलकर खुद भी गुमराह होकर जनगणमन को भी गुमराह कर रहा है ?
उसकी नज़र में सुधार का मॉडल क्या है ?
...............

मेरे उपरोक्त दोनों कमेँट्स आप 'अमन का पैग़ाम' ब्लाग की ताज़ा पोस्ट पर देख सकते हैं। इस पोस्ट के लेखक हैं डा. टी. एस. दराल जी ।

Tuesday, January 25, 2011

आपकी आत्मा बताएगी कि सही कौन है ? Truth comes from soul

अपना विश्लेषण करें दूसरों का विश्लेषण करने वाले LBA पदाचारी
@ शिव शंकर जी ! आपका शुक्रिया शुभकामनाएं देने के लिए । आपने यहाँ टिप्पणी देकर मिथिलेश दुबे जी के बहिष्कार की अपील पर ठोकर मार कर एक प्रशंसनीय काम किया है । आपकी निष्पक्षता की रौशनी में LBA के पदाधिकारियों का तास्सुब बेनक़ाब हो गया है । ये लोग पक्षपात और नफ़रत में इतने अंधे हो चुके हैं कि ये 26 जनवरी जैसे राष्ट्रीय पर्व पर भी एक मुसलमान की पोस्ट पर आने के लिए तैयार नहीं है जबकि पोस्ट भी ऐसी है जिसमें देश और समाज की भलाई के लिए सबसे कहा गया है कि 'आप अपने आप को क़ायदे-क़ानून का पाबंद बनाईये ।'
1. क्या इस पोस्ट का बहिष्कार करके ये लोग अपनी मूढ़ता और संकीर्णता का परिचय नहीं दे रहे है ?
2. जब ये लोग राष्ट्रीय पर्व पर भी निष्पक्ष होकर एकजुट नहीं हो सकते तो फिर देश के लिए कुछ और क्या कर पाएंगे ?
3. ये लोग लेख लिखकर केवल अपना नाम चमकाना चाहते हैं । अपना नाम चमकाने के लिए तो ये लंबे लंबे विश्लेषण का धारावाहिक लिख देंगे लेकिन राष्ट्रीय पर्व पर शुभकामना की एक छोटी सी टिप्पणी तक नहीं दे सकते आपकी तरह ।

आपको भी मेरी ओर से शुभकामनाएं ।

जिसकी भावनाएं शुद्ध होंगी।
उसका सदा शुभ ही होगा॥
..................

आपकी आत्मा बताएगी कि सही कौन है ?
@ भाई हरीश जी ! आपने अधिकतर मुसलमानों को बुरा बताया और हमने हिंदुओं को सदगुणों की खान बताया । मुसलमानों को बुरा बताने वाले आप जैसे आदमी को भी हमने एक अच्छा इंसान बताया , आपको अपना भाई समझा , कहा और बताया । आपकी पोस्ट पढ़ते ही हम टिप्पणी देने भी आए । हमने आपसे प्यार किया लेकिन बदले में आपसे हमें मिली नफ़रत , बदले में मिला अपना विरोध ।
मुहब्बत के बदले में पुरस्कार के बजाय सदा तिरस्कार ही क्यों मिलता है एक मुसलमान को आप लोगों से ?

जब आप मेरी बात को सही कह रहे हैं तो आप मेरी पोस्ट पर आए क्यों नहीं ?

इसका जवाब आप मुझे न दें बल्कि अपनी आत्मा को दें । अगर आप अपनी आत्मा को संतुष्ट पाते हैं तो आप सही हैं वर्ना मैं , मेरी बात तो सही है ही, आप मानते ही हैं।

Monday, January 24, 2011

कामदेव ब्रह्मा जी पर अपना बाण न चलाता तो क्या वे कभी ऐसी सुंदर सृष्टि बना पाते ? Creation, according to puranas

@ डा. श्याम गुप्ता जी बताएं कि
सीधी सच्ची बात का विरोध क्यों ?
@ मिथिलेश जी ! मेरी गत पोस्ट में तो किसी भी आदमी को बुरा नहीं कहा गया है तो फिर किसको नीचा देखना पड़ गया है ?
उस पोस्ट में संयोजक जनाब सलीम ख़ान साहब की पोस्ट की वाहवाही मैंने ज़रूर की है, वह तुच्छ वाहवाही कैसे है ?
उनकी तारीफ़ से तो आपको ख़ुश होकर यह कहना चाहिए था कि हां , LBA के सभी सदस्यों को उनकी तरह ऐसे लेख लिखने चाहिएं जो दो और दो चार की तरह क्लियर हों और उनमें किसी धर्म के सिद्धांत और परंपराओं के हवाले न दिए जाएं । जिसे ऐसा करना हो वह अपने निजी ब्लाग पर ऐसा कर ले।
इसमें कौन सी बात किसको नीचा दिखा रही है भाई ?
मेरी पोस्ट में तो ईशनिंदा की परिस्थितियां उत्पन्न होने से रोकने के संबंध में विचार विमर्श किया गया है जैसा स्वयं भाई रवीन्द्र प्रभात जी (President, LBA) भी चाहते हैं।
मेरी सलाह से अच्छा सुझाव अगर किसी और के पास है तो वह बताए ?

आख़िर एक सही बात का भी विरोध आप क्यों कर रहे हैं ?
मैं तो आपके द्वारा कही गई बात को ही तो दोहरा रहा हूं।
आप कहें तो सही और वही बात हम कहें तो ग़लत ?
यह भेदभाव क्यों ?

LBA का पदधारी होने के नाते एक माँ की तरह आप सबको एक समान प्रेम दीजिए जैसे कि देती है सदा एक प्यारी माँ ।

क्या सृष्टि की उत्पत्ति के इस प्रकरण में सरस्वती और कामदेव का ज़िक्र नहीं आएगा ? The role Saraswati and kamdev for creatures

हां तो फिर क्या सोचा एलबीए के पदाधिकारीगणों ने ?
क्या डा. श्याम गुप्ता जी को ब्रह्मा जी के गुण और कार्यों से संबंधित धार्मिक लेख इस साझा ब्लाग पर छापने से रोका जाएगा कि नहीं ?
अगर उन्हें नहीं रोका जाता है तो फिर उनके लेख पर उठने वाले सवालों को बाद में एलबीए पदाधिकारीगण कैसे रोक पाएंगे ?
क्या विज्ञान भी वैदिक धर्म का ही एक अंग नहीं है ?
क्या वैदिक विज्ञान का प्रचार करना भी वैदिक धर्म के ही एक अंग का प्रचार करना नहीं है ?
डा. श्याम गुप्ता जी ब्रह्मा जी द्वारा सृष्टि उत्पन्न किया जाना मानते हैं। सृष्टि की उत्पत्ति के इस प्रकरण में सरस्वती और कामदेव का ज़िक्र भी आएगा और उसमें अलग अलग लोगों के अलग अलग मत हैं।
क्या ऐसे विवादित प्रकरण को यहां उठाया जाना उचित है ?
मेरी समझ में तो जो भी नियम हो वह सभी पर लागू होना चाहिए और यहां किसी भी धर्म के ग्रंथ का उद्धरण देना वर्जित होना चाहिए ताकि धर्मग्रंथ के विषय में ऐसी कोई बहस का सिलसिला यहां शुरू न होने पाए जैसी बहसें मेरे ब्लाग पर अक्सर होती हैं, उदाहरणार्थ-
1.Mandir-Masjid मैं चाहता हूं कि अयोध्या में राम मन्दिर बने - Anwer Jamal
2.The message of Eid-ul- adha विज्ञान के युग में कुर्बानी पर ऐतराज़ क्यों ?, अन्धविश्वासी सवालों के वैज्ञानिक जवाब !
3.मसीह का मिशन था ‘सत्य पर गवाही देना‘ - Anwer Jamal

क्या मेरे इस सुझाव से सहमत होने में किसी को कोई संकोच है ?

http://vedquran.blogspot.com/2010/09/mandir-masjid-anwer-jamal.html


http://islamdharma.blogspot.com/2010/11/message-of-eid-ul-adha-maulana_17.html


http://vedquran.blogspot.com/2010/10/what-was-real-mission-of-christ-anwer.html

इस विषय में पूरी जानकारी के लिए नीचे दिए गए शीर्षक पर क्लिक करें -

परिवार के सदस्यों में भेदभाव क्यों कर रहे हैं LBA के पदाधिकारीगण ?

क्या सभी धर्म एक ही ईश्वर की पूजा करना बताते हैं ? Some phillosophers are wrong doers.

इसी संवाद के दरमियान जनाब सलीम खान साहब की एक पोस्ट आई है .

यह एक बेहतरीन पोस्ट है जो हमारे लिए एक मार्गदर्शक पोस्ट की हैसियत रखती  है. इसमें उन्होंने किसी भी धर्मग्रन्थ का नाम लिए बिना ही देश की कई ज्वलंत समस्याओं का निवारण कर दिया है. आशा है कि एलबीए के सभी सदस्य उसनके संकेत और सन्देश को यथावत समझेंगे .
धन्यवाद . 

Sunday, January 23, 2011

क्या सभी धर्म एक ही ईश्वर की पूजा करना बताते हैं ? Some phillosophers are wrong doers.

@ हरीश जी ! इस साझा ब्लाग 'लखनऊ ब्लागर्स एसोसिअशन' पर किसी को भी धर्मग्रंथों को प्रमाण के रूप में पेश करने की अनुमति नहीं होनी चाहिए वरना जो उसके मत से असहमत है वह सवाल ज़रूर उठाएगा और तब जवाब दिया जाना चाहिए ।
अगर आपके पास तार्किक उत्तर नहीं हैं तो फिर पुराणों को विज्ञान का स्रोत बताकर भ्रम न फैलाया जाए ।
सभी धर्म न तो एक ईश्वर की पूजा करना बताते हैं और न ही वे सब के सब मानव जाति के लिए समान रूप से कल्याणकारी हैं ।
धर्म के नाम से जाने जा रहे कितने ही दर्शन तो ईश्वर का वजूद ही नहीं मानते !
पता नहीं आपने कहाँ पढ़ लिया कि सभी धर्म एक ही ईश्वर की पूजा करना बताते हैं ?
सही बात आपको बताई जाती है तो इसे आप शास्त्रार्थ कहने के बजाय विवाद करना समझकर अल्पबुद्धि का परिचय क्यों देते हैं बार बार ?

@ हरीश जी ! जब पोस्ट लेखक डा. श्याम गुप्ता जी को कोई ऐतराज नहीं है हमारे द्वारा सवाल पूछने पर बल्कि वह चाहते हैं कि उनसे सवाल पूछे जाएँ तो आपको क्या ऐतराज है भाई ?
जो सवाल आपसे पूछा है उसका जवाब आपने अभी तक क्यों नहीं दिया है ?

@ गुप्ता जी ! आपने भी नहीं बताया कि भागवत में महात्मा बुद्ध को विष्णु जी का पापावतार क्यों बताया गया है ?
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इस सम्बन्ध में पूरी जानकारी के लिए देखें -

Thursday, January 20, 2011

" सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया" आखिर कौन से ग्रन्थ में है ?

@ हरीश जी ! मैं आपकी कोई पोस्ट पहली बार पढने की सआदत हासिल कर रहा हूँ . आप इस समय जिस शख्स से रू ब रू हैं वह गीता की आठ से ज़्यादा टीकाएँ पढ़ चुका है लेकिन मुझे तो कहीं भी लिखा नहीं मिला -
एक बार गीता पढ़कर देखिये और दोनों की तुलना कीजिये, आप कट्टर क्यों है यह आप भी जानते हैं और हम " सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया" क्यों है ?,
और गीता ही क्या मुझे तो यह चारों वेदों , १८ पुराणों , १०८ उपनिषदों में भी कहीं नहीं मिला . रामायण - महाभारत में भी यह सूत्र नहीं है और किसी भी स्मृति में नहीं है . ज़रूर मेरी नज़र से चूक हुई होगी . अब अगर आप मुझ से ज़्यादा जानकार हैं तो कृपया बताएं कि इतनी महान शिक्षा जो मैं अक्सर अपने हिन्दू भाईयों के मुंह से सुनता रहता हूँ , वह आखिर है कौन से ग्रन्थ में ?
या फिर वैसे ही अपनी तरफ से बनाकर उड़ाई हुई एक अफ़वाह है ?
अगर आपको  यह सूत्र कहीं भी न मिले तो समझ लीजियेगा कि अभी खुद आपको बहुत खोज और अनुसंधान कि ज़रूरत है .
मैं हिन्दू धर्म में  कोई कमी नहीं मानता लेकिन जो लोग कमियों को हिन्दू धर्म या इस्लाम  की परम्पराएं बताते हैं , उन लोगों का और उनकी दोषपूर्ण परम्पराओं का विरोध ज़रूर करता हूँ .
मैं आपके जवाब की  इंतज़ार कर रहा हूँ और फिर उसके बाद मैं आपके इस लेख के शेष बिन्दुओं की भी समीक्षा करके आपकी ग़लतफ़हमी दूर करने की कोशिश करूँगा .
देखिये-
'हिन्दू जाति' और ‘हिन्दू धर्म‘ की खूबियां और उनका प्रभाव - Anwer Jamal

please go to this url to know the context of this comment -
https://www.blogger.com/comment.g?blogID=554106341036687061&postID=532639051596071130&isPopup=true

Monday, January 17, 2011

आदमी जन्म लेता है माँ से और ताजमहल बनाता है अपनी बीवी के लिए ? Tajmahal for a wife

आज रिश्तों की अज़्मत रोज़ कम से कमतर होती जा रही है। रिश्तों की अज़्मत और
उसकी पाकीज़गी को बरक़रार रखने के लिए उनका ज़िक्र निहायत ज़रूरी है। मां का रिश्ता
एक सबसे पाक रिश्ता है। शायद ही कोई लेखक ऐसा हुआ हो जिसने मां के बारे में कुछ
न लिखा हो। शायद ही कोई आदमी ऐसा हुआ हो जिसने अपनी मां के लिए कुछ अच्छा न कहा
हो। तब भी देश-विदेश में अक्सर मुहब्बत की जो यादगारें पाई जाती हैं वे आशिक़ों
ने अपनी महबूबाओं और बीवियों के लिए तो बनाई हैं लेकिन ‘प्यारी मां के लिए‘
कहीं कोई ताजमहल नज़र नहीं आता।
ऐसा क्यों हुआ ?
इस तरह के हरेक सवाल पर आज विचार करना होगा।
‘प्यारी मां‘ के नाम से ब्लाग शुरू करने का मक़सद यही है।
इस प्यारे से ब्लाग को एक टिनी-मिनी एग्रीगेटर की शक्ल भी दी गई है ताकि
ज़्यादा से ज़्यादा मांओं और बहनों के ब्लाग्स को ब्लाग रीडर्स के लिए उपलब्ध
कराया जा सके। जो मां-बहनें इस ब्लाग से एक लेखिका के तौर पर जुड़ने की
ख्वाहिशमंद हों वे अपनी ईमेल आईडी भेजने की मेहरबानी फ़रमाएं। मेरी ईमेल आईडी है -
eshvani@gmail.com

"मैं अकेला ही चला था जानिबे मंज़िल ..." The beacon of hope

राजेश उत्साही
@ जनाब राजेश उत्साही जी ! आप कह रहे हैं कि अमन के पैग़ाम के लिए आपने इसलिए नहीं लिखा कि यह सब आपको नारेबाज़ी से आगे बढ़ता हुआ नहीं लगा लेकिन आप अब कुछ ही दिन बाद ‘अमन के पैग़ाम‘ की तारीफ़ फ़रमा रहे हैं। इसका मतलब है कि अब आपको समझ आ गया है कि यह मात्र नारेबाज़ी नहीं है बल्कि सचमुच एक आंदोलन है, जो समय के साथ और भी ज़्यादा बलवान होता जाएगा। अब जब आप इससे सहमत प्रतीत हो रहे हैं तो अपनी भूल सुधार करते हुए अब आप भी इस मंच से ‘अमन का पैग़ाम‘ दें वर्ना बताएं कि अब आपके पास क्या बहाना है ‘अमन का पैग़ाग‘ न देने का ?

2- सत्य आधार है और कल्पना मजबूरी। सत्य से मुक्ति है और कल्पना से बंधन। कल्पना सत्य भी हो सकती है और मिथ्या भी लेकिन सत्य कभी मिथ्या नहीं हो सकता। ईश्वर सत्य है और उस तक केवल सत्य के माध्यम से ही पहुंचना संभव है।

सही-ग़लत का ज्ञान कभी षटचक्रों के जागरण और समाधि से नहीं मिला करता। इसे पाने की रीत कुछ और ही है। वह सरल है इसीलिए मनुष्य उसे मूल्यहीन समझता है और आत्मघात के रास्ते पर चलने वालों को श्रेष्ठ समझता है। दुनिया का दस्तूर उल्टा है । मालिक की कृपा हवा पानी और रौशनी के रूप में सब पर बरस रही है और उसके ज्ञान की भी लेकिन आदमी हवा पानी और रौशनी की तरह उसके ज्ञान से लाभ नहीं उठा रहा है मात्र अपने तास्सुब के कारण।

कोई किसी का क्या बिगाड़ रहा है ?

अपना ही बिगाड़ रहा है ।

Place, where you can see the context of this comment .

http://lucknowbloggersassociation.blogspot.com/2010/12/virtual-communalism.html?showComment=1293348666573#c8769565509668925753

Sunday, January 16, 2011

हिंदू और मुस्लिम मतों में बुनियादी अंतर क्या है ? The main difference between Hinduism and Islam

हिंदू भाईयों के तीन मेजर कॉम्पलैक्स
भाई घनश्याम मौर्य जी ! इस तत्व चर्चा में आपका स्वागत है।
आप लोगों के साथ एक बड़ी प्रॉब्लम आपका अज्ञान है और दूसरी बेसलेस अहंकार और तीसरी प्रॉब्लम यह है कि आप लोग केवल वक्तव्य देते हैं लेकिन उसे प्रमाणित करने के लिए सुबूत कुछ भी नहीं देते। आप अपने नज़रिये वाले हिंदू धर्म को सनातन भी कह रहे हैं और धर्म भी और यह भी कह रहे हैं कि यह कोई मत या संप्रदाय नहीं है। जबकि हक़ीक़त यह है कि मौजूदा हिंदू धर्म मात्र एक मत या संप्रदाय नहीं है वरन् मतों और संप्रदायों का एक बहुत बड़ा समूह है। इसमें किसी भी आदमी के लिए किसी भी मत-संप्रदाय में आस्था रखना और उसके नियमों का पालन करना अनिवार्य नहीं है। आज एक हिंदू किसी एक या दो या एक साथ कई मतों में आस्था रख सकता है या सिरे से हरेक मत की निंदा भी कर सकता है। वह चाहे तो किसी भी नियम का कठोरता से पालन कर सकता है और वह चाहे तो सारे नियमों को ताक़ पर रख सकता है। लोगों को यह छूट हिंदू धर्म ने अपनी किसी उदारता के कारण नहीं दी है बल्कि जब वह लोगों को उनके जीवन की समस्याओं से मुक्ति दिलाने के बजाय उनकी परेशानी बढ़ाने वाला सिद्ध होने लगा तो लोगों ने खुद उससे अपना पिंड छुड़ाकर इधर-उधर भागना शुरू कर दिया। किसी ने एक गुरू का दामन पकड़ा और किसी ने दूसरे गुरू का। कोई खुद ही गुरू बन कर शुरू हो गया और कोई इन सब गुरूओं के ही खि़लाफ़ खड़ा हो गया।

हिंदू और मुस्लिम मतों में बुनियादी अंतर क्या है ?
आप हिंदू धर्म के मतों की तुलना शिया-सुन्नी आदि मुस्लिम मतावलंबियों से नहीं कर सकते। एक हिंदू वेद और ईश्वर को मान भी सकता है और उनकी निंदा भी कर सकता है। वह कुछ भी कर सकता है, धर्म के मामले में उसका कोई ऐतबार नहीं है कि वह क्या कह बैठे ? और क्या कर बैठे ?
लेकिन शिया-सुन्नी हों या वहाबी-बोहरा किसी को भी कुरआन के ईश्वरीय होने में या खुदा के मौजूद होने में कोई शक नहीं है। सभी नमाज़-रोज़ा, ज़कात और हज को एक जैसे ही फ़र्ज़ मानते हैं। इन मतों के उद्भव का कारण खुदा, रसूल, दीन या कुरआन में अविश्वास नहीं है बल्कि परम चरम विश्वास है। हरेक ने अपने विश्वास और आचरण में एक दूसरे से बढ़ने की कोशिश की और इसी विश्वास में वे यह समझे कि कुरआन की व्यवस्था को जैसा उन्होंने समझा है, दूसरा वैसे नहीं समझ पाया। सबके केन्द्र में ईश्वर और ईश्वर की वाणी ही है। जबकि हिंदुओं में ऐसा नहीं है।

हाथ कंगन तो आरसी क्या ?
आज विश्व में कुल 153 करोड़ मुसलमान हैं और लगातार बढ़ते ही जा रहे हैं। दुनिया का हर चैथा आदमी आज मुसलमान है। दुनिया की हर नस्ल और हरेक कल्चर का आदमी इसलामी समाज का अंग है।
इनमें से आप किसी से भी और कितनों से भी पूछ लीजिए कि वह कुरआन को क्या मानता है ?
उनमें से हरेक एक ही जवाब देगा कि ‘वह कुरआन को ईश्वर की ओर से अवततिरत ज्ञान मानता है ?‘
अब आप यही बात ज़्यादा नहीं बल्कि मात्र दस-पांच हिंदू भाईयों से पूछ लीजिए। उनमें से हरेक का जवाब एक-दूसरे से अलग होगा, विपरीत होगा।
सच एक होता है और झूठ कभी एक नहीं होता लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हिंदू धर्म की बुनियाद कभी सत्य पर नहीं रही। नहीं बल्कि ईश्वर की ओर से इस पवित्र भूमि पर ‘ज्ञान‘ उतरा है और उसके अवशेष आज भी मौजूद हैं। वे अवशेष भी अपने आप में इतने समर्थ कि पूरे सत्य को आज भी प्रकट कर सकते हैं, अगर कोई वास्तव में सत्य को उपलब्ध होना चाहे तो।
नेकी को इल्ज़ाम न दीजिए
इस्लाम में न कट्टरता कल थी और न ही आज है
एक नेक औरत अपने एक ही पति के सामने समर्पण करती है, हरेक के सामने नहीं और अगर कोई दूसरा पुरूष उस पर सवार होने की कोशिश करता है तो वह मरने-मारने पर उतारू हो जाती है। वह जिसे मारती है दुनिया उस मरने वाले पर लानत करती है और उस औरत की नेकी और बहादुरी के गुण गाती है। इसे उस औरत की कट्टरता नहीं कहा जाता बल्कि उसे अपने एक पति के प्रति वफ़ादार माना जाता है। दूसरी तरफ़ हमारे समाज में ऐसी भी औरतें पाई जाती हैं कि वे ज़रा से लालच में बहुतों के साथ नाजायज़ संबंध बनाये रखती हैं। उन औरतों को हमारा समाज, बेवफ़ा और वेश्या कहता है। वे किसी को भी अपने शरीर से आनंद लेने देती हैं, उनके इस अमल को हमारे समाज में कोई भी ‘उदारता‘ का नाम नहीं देता और न ही उसे कोई महानता का खि़ताब देता है।

अपने सच्चे स्वामी को पहचानिए
ठीक ऐसे ही इस सारी सृष्टि का और हरेक नर-नारी का सच्चा स्वामी केवल एक प्रभु पालनहार है, उसी का आदेश माननीय है, केवल वही एक पूजनीय है। जो कोई उसके आदेश के विपरीत आदेश दे तो वह आदेश ठोकर मारने के लायक़ है। उस सच्चे स्वामी के प्रति वफ़ादारी और प्रतिबद्धता का तक़ाज़ा यही है। अब चाहे इसमें कोई बखेड़ा ही क्यों न खड़ा हो जाय।

बग़ावत एक भयानक जुर्म है
जो लोग ज़रा से लालच में आकर उस सच्चे मालिक के हुक्म को भुला देते हैं, वे बग़ावत और जुर्म के रास्ते पर निकल जाते हैं, दौलत समेटकर, ब्याज लेकर ऐश करते हैं, अपनी सुविधा की ख़ातिर कन्या भ्रूण को पेट में ही मार डालते हैं। वे सभी अपने मालिक के बाग़ी हैं, वेश्या से भी बदतर हैं।
पहले कभी औरतें अपने अंग की झलक भी न देती थीं लेकिन आज ज़माना वह आ गया है कि जब बेटियां सबके सामने चुम्बन दे रही हैं और बाप उनकी ‘कला‘ की तारीफ़ कर रहा है। आज लोगों की समझ उलट गई है। ज़्यादा लोग ईश्वर के प्रति अपनी वफ़ादारी खो चुके हैं।

खुश्बू आ नहीं सकती कभी काग़ज़ के फूलों से 
अपनी आत्मा पर से आत्मग्लानि का बोझ हटाने के लिए उन्होंने खुद को सुधारने के बजाय खुद को उदार और वफ़ादारों को कट्टर कहना शुरू कर दिया है। लेकिन वफ़ादार कभी इल्ज़ामों से नहीं डरा करते। उनकी आत्मा सच्ची होती है। नेक औरतें अल्प संख्या में हों और वेश्याएं बहुत बड़ी तादाद में, तब भी नैतिकता का पैमाना नहीं बदल सकता। नैतिकता के पैमाने को संख्या बल से नहीं बदला जा सकता।
दुनिया भर की मीडिया उन देशों के हाथ में है जहां वेश्या को ‘सेक्स वर्कर‘ कहकर सम्मानित किया जाता है, जहां समलैंगिक संबंध आम हैं, जहां नंगों के बाक़ायदा क्लब हैं। सही-ग़लत की तमीज़ खो चुके ये लोग दो-दो विश्वयुद्धों में करोड़ों मासूम लोगों को मार चुके हैं और आज भी तेल आदि प्राकृतिक संपदा के लालच में जहां चाहे वहां बम बरसाते हुए घूम रहे हैं। वास्तव में यही आतंकवादी हैं। जो यह सच्चाई नहीं जानता, वह कुछ भी नहीं जानता।

मीडिया का छल
आप मीडिया को बुनियाद बनाकर मुसलमानों पर इल्ज़ाम लगा रहे हैं। यही पश्चिमी मीडिया भारत के नंगे-भूखों की और सपेरों की तस्वीरें छापकर विश्व को आज तक यही दिखाता आया है कि भारत नंगे-भूखों और सपेरों का देश है, लेकिन क्या वास्तव में यह सच है ?
मीडिया अपने आक़ाओं के स्वार्थों के लिए काम करती आई है और आज नेशनल और इंटरनेशनल मीडिया का आक़ा मुसलमान नहीं है। जो उसके आक़ा हैं, उन्हें मुसलमान खटकते हैं, इसीलिए वे उसकी छवि विकृत कर देना चाहते हैं। आपको इस बात पर ध्यान देना चाहिए।
ग़लतियां मुसलमानों की भी हैं। वे सब के सब सही नहीं हैं लेकिन दुनिया में या इस देश के सारे फ़सादों के पीछे केवल मुसलमान ही नहीं हैं। विदेशों में खरबों डालर जिन ग़द्दार भारतीयों का है, उनमें मुश्किल से ही कोई मुसलमान होगा। वे सभी आज भी देश में सम्मान और शान से जी रहे हैं। उनके खि़लाफ़ न आज तक कुछ हुआ है और न ही आगे होगा। उनके नाम आज तक किसी मीडिया में नहीं छपे और न ही छपेंगे क्योंकि मीडिया आज उन्हीं का तो गुलाम है।

सच की क़ीमत है झूठ का त्याग
सच को पहचानिए ताकि आप उसे अपना सकें और अपना उद्धार कर सकें।
तंगनज़री से आप इल्ज़ाम तो लगा सकते हैं और मुसलमानों को थोड़ा-बहुत बदनाम करके, उसे अपने से नीच और तुच्छ समझकर आप अपने अहं को भी संतुष्ट कर सकते हैं लेकिन तब आप सत्य को उपलब्ध न हो सकेंगे।
अगर आपको झूठ चाहिए तो आपको कुछ करने की ज़रूरत नहीं है लेकिन अगर आपको जीवन का मक़सद और उसे पाने का विधि-विधान चाहिए, ऐसा विधान जो कि वास्तव में ही सनातन है, जिसे आप अज्ञात पूर्व में खो बैठे हैं तब आपको निष्पक्ष होकर न्यायपूर्वक सोचना होगा कि वफ़ादार नेक नर-नारियों को कट्टरता का इल्ज़ाम देना ठीक नहीं है बल्कि उनसे वफ़ादारी का तौर-तरीक़ा सीखना लाज़िमी है।
धन्यवाद!
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शासन आखि़र कब नहीं था ?
भाई मदन कुमार तिवारी जी ! यह भी आपने खूब कही कि पहले शासन व्यवस्था नहीं थी इसलिए लोगों ने ईश्वर की कल्पना अपने मन से कर ली।
पहली बात तो यह है कि आप उस युग का नाम बताएं कि आख़िर शासन व्यवस्था कब नहीं थी ?
दूसरी बात  यह बताएं कि जब लोगों ने ईश्वर की कल्पना अपने मन से कर ली तो क्या ईश्वर ने आकर फिर उनकी शासन व्यवस्था संभाल ली थी ?
आपको पता होना चाहिए कि शासन व्यवस्था कहते किसे हैं ?
समाज में एक शक्तिशाली व्यक्ति या कोई संगठित समुदाय जब दूसरों नियंत्रित करने में सफल हो जाता है तो वह व्यक्ति या समुदाय शासक कहलाता है। ऐसा कोई भी ज़माना इस ज़मीन पर नहीं गुज़रा जबकि कोई न कोई अपेक्षाकृत बलशाली मनुष्य या समुदाय समाज पर हावी न रहा हो।
आपकी बात एक बेबुनियाद कल्पना के सिवा कुछ भी नहीं है और इसे लेकर जाने आप कब से घूम रहे होंगे और समझ यह रहे होंगे कि बस ज्ञानी तो मैं ही हूं।
अपनी ग़लतफ़हमी से बाहर आईये या फिर हमें निकालिये।
धन्यवाद!
इस संवाद का पूरा सन्दर्भ जानने के लिए देखें -
https://www.blogger.com/comment.g?blogID=554106341036687061&postID=732433012198614140&isPopup=true
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खोट पर चोट  Like cures like
किसी भी चीज़ के लिए केवल उसका दावा ही काफ़ी नहीं हुआ करता बल्कि उसके लिए दलील भी ज़रूरी होती है। यह दुनिया का एक लाज़िमी क़ायदा है। एक आदमी तैराक होने का दावा करे तो लोग चाहते हैं कि वे उसे तैरते हुए भी देखें। यह मनुष्य का स्वभाव है। ऐसी चाहत उसके दिल में खुद ब खुद पैदा होती है, यह  उसका जुर्म नहीं है। लेकिन अगर कोई आदमी कभी तैर कर न दिखाए और पानी में पैर डालने तक से डरे तो लोग उसे झूठा, फ़रेबी और डींग हांकने वाला समझते हैं लेकिन मैं जनाब सतीश सक्सेना जी को ऐसा बिल्कुल नहीं समझता। इसके बावजूद भी मैं चाहता हूं कि वे अपने दावे पर अमल किया करें। उनका दावा है कि वे ईमानदार हैं, कि वे अमन चाहते हैं, कि वे हिंदू-मुस्लिम में भेद नहीं करते। यह तो उनका दावा है लेकिन मैंने जब भी उन्हें देखा तो हमेशा इसके खि़लाफ़ ही अमल करते देखा।
आज हमारीवाणी पर एक अजीब से शीर्षक पर मेरी नज़र पड़ी तो मैं वहां जा पहुंचा। मैं वहां क्या देखता हूं कि एक महिला ब्लागर को अश्लील गालियां दी जा रही हैं और जनाब सतीश साहब उन गालियां देने वालों को या उन्हें पब्लिश करने वाले ब्लागर को न तो क़ानून की धमकी दे रहे हैं और न ही उनसे इस बेहूदा बदतमीज़ी को रोके जाने की अपील ही कर रहे हैं। मुझे बड़ा अजीब सा लगा। बड़ों को अपना दामन बचाकर वापस आते देख मुझे सख्त झटका लगा।
हालांकि दिव्या जी मेरे सवाल पूछने की वजह से मुझसे नाराज़ हैं, उन्होंने मुझे गालियां भी दी हैं और अपने ब्लाग पर एक पोस्ट भी मेरे खि़लाफ़ लिखी है और भविष्य में मुझे कभी उनसे कोई टिप्पणी मिलने की भी उम्मीद नहीं है लेकिन इसके बावजूद मैंने वहां एक कोशिश करना ज़रूरी समझा, दिव्या जी मो खुश करने के लिए नहीं बल्कि अपने मालिक को राज़ी करने के लिए। वहां का माहौल इतना भयानक था कि जो भी बोल रहा था उसी पर बेनामी बंधु गालियां बरसा रहे थे।
जनाब सतीश सक्सेना जी वहां यह कह कर वापस आ गए-
...लेकिन मेरा काम ग़लत होते देखकर चुप रहना नहीं है। मैंने भाई किलर झपाटा जी से यह अपील की-
Please go to 
http://ahsaskiparten.blogspot.com/2011/01/like-cures-like.html


http://lucknowbloggersassociation.blogspot.com/2011/01/main-difference-between-hinduism-and.html

Saturday, January 15, 2011

आस्था का व्यापार Faith and business

@ YM ! संस्कृत में जो भी शब्द होता है, वह किसी धातु से बना होता है। ईश्वर शब्द की सिद्धि ‘ईश ऐश्वर्य‘ धातु से होता है। ‘य ईष्टे सर्वैश्वर्यवान् वर्त्तते स ईश्वरः‘ जिस का सत्य विचारशील ज्ञान और अनंत ऐश्वर्य है, वह ईश्वर है।
अब आप मेरी बात की क्र्रास चैकिंग जहां चाहे कर लीजिए। इंशा अल्लाह, मेरी बात नहीं कटेगी।
http://ahsaskiparten.blogspot.com/2011/01/hungers-cry.html?showComment=1295105126502#c481785182827129129
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@ भाई मदन कुमार तिवारी जी ! आपकी टिप्पणी मैं भला क्यों मिटाऊंगा ?
अलबत्ता आपकी ग़लफ़हमी को मैं ज़रूर मिटाऊंगा। आपने इंसानियत के दुश्मनों का लिखा हुआ लिट्रेचर पढ़ लिया है इसीलिए आप ग़लतफ़हमी के शिकार हो गए हैं। किसी भी चीज़ को जानने के लिए अगर आप उससे नफ़रत करने वालों से जानकारी लेंगे तो आपको कभी सही जानकारी नहीं मिल सकती। हज़रत मुहम्मद साहब स. के बारे में भी अगर आप वास्तव में जानना चाहते हैं तो आपको ऐसे लोगों से जानकारी हासिल करनी चाहिए जो ज्ञानी और निष्पक्ष हों, फिर चाहे वे मुसलमान न भी हों तब भी वे आपको सही बात बताएंगे।
इस संबंध में प्रोफ़ेसर रामाकृष्णा राव जी की किताब  इस्लाम के पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद ( सल्‍ल. )
आपकी भ्रांतियों के निवारण के लिए काफ़ी है। आपने पैग़म्बर साहब द्वारा 6 वर्ष की लड़की से विवाह किए जाने की बात कही है। यह भी एक बेअस्ल बात है। इस तरह की और भी बहुत सी ग़लतफ़हमियां बहुत से भाईयों के दिमाग़ों में हैं। आम तौर से जो ग़लतफ़हमियां पाई जाती हैं। उन ‘ग़लतफ़हमियों का निवारण‘ बहुत पहले कर दिया है। अब आपको भी ग़लतफ़हमियों के अंधकार से बाहर आ जाना चाहिए।
आप मेरे सामने भगवान को बुरा नहीं कह सकते क्योंकि भगवान संस्कृत में उसी एक मालिक का नाम है और सिर्फ़ अमीरों का या सिर्फ़ ग़रीबों का नहीं है बल्कि सबका है, हर चीज़ का है और एक है। उसके नाम पर जो हिंदू, मुसलमान या ईसाई पाखंड रचा कर लोगों पर ज़ुल्म करते हैं या उनका माल लूटते हैं तो यह जुर्म इंसान का है न कि भगवान का। जैसे कि मेरे ब्लाग पर आकर आप बदतमीज़ी कर रहे हैं तो यह आपका पाप है न कि आपके मां-बाप का। याद कीजिए कि उन्होंने तो आपको आदर और शिष्टाचार करने की ही तालीम दी होगी।
Some useful links for you


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 लोग ग़ज़नवी को बुरा-भला कहते हैं लेकिन...
@ भाई मान जी ! आप पुष्कर के मंदिर और अजमेर की दरगाह के रखवालों के दुर्व्यवहार की शिकायत कर रहे हैं लेकिन क्या कभी आपने सोचा है कि वे आपका शोषण कब करते हैं ?
वे आपका शोषण तब करते हैं जबकि आप वहां जाते हैं। आप वहां जाना बंद कर दीजिए। आपका शोषण भी बंद हो जाएगा। दुनिया का निज़ाम कोई देवी-देवता या पीर-फ़क़ीर स्वयं अपने बल पर नहीं देख रहा है और न ही वे किसी की मुराद पूरी करने की शक्ति ही रखते हैं। आप उनके पूरे जीवन को देख लीजिए। उनका पूरा जीवन आपको कष्टों में घिरा हुआ नज़र आएगा। अगर वे कुछ कर सकते तो सबसे पहले वे अपने जीवन के कष्टों को ज़रूर दूर करते। अगर उन्होंने कुछ पाया भी है या किसी राक्षस का अंत भी किया है तो मात्र अपने आदेश से ही उसे नहीं मार डाला बल्कि इसके लिए उन्हें संघर्ष करना पड़ा, लड़ना पड़ा है। जो ज़रूरत पड़ने पर भी नहीं लड़े और देवी-देवताओं पर भरोसा किये बैठे रहे उन्हें मरना पड़ा।
महमूद ग़ज़नवी ने जब सोमनाथ पर हमला किया तो हज़ारों लोगों को क़त्ल कर दिया। लोग ग़ज़नवी को बुरा-भला कहते हैं लेकिन यह नहीं देखते कि उसने जिन्हें मारा वे सोचे क्या बैठे थे ?
वे सब यही सोच रहे थे कि हमारा देवता इस म्लेच्छ को नष्ट कर देगा। यह बेचारा काल के गाल में आ गया है। इसी सोच का परिणाम था कि महमूद ग़ज़नवी से कोई लड़ने को तैयार ही नहीं हुआ। वे मरने वाले आपसे ज़्यादा अपने इष्ट के प्रति निष्ठावान थे तो भी उनकी निष्ठा के कारण उनकी कोई रक्षा नहीं हो पाई। इतिहास की ग़लतियों से आपको सबक़ लेना चाहिए और उन्हें दोहराकर नुक्सान उठाने से बचना चाहिए। मंदिरों के पंडे बैठे बिठाए खाने के लिए लोगों में अंधविश्वास फैलाते हैं और जब मुसीबत पड़ती है तो अंधविश्वास में फंसा हुआ वह बेचारा मारा जाता है। अक्सर दरगाहों के मुजाविर भी आस्था का व्यापार कर रहे हैं। ये डाकुओं से बदतर हैं। इन्होंने उस नेक बुजुर्ग के सादा जीवन से कोई शिक्षा नहीं ली, लेकिन उनके नाम पर अपने महल तामीर कर लिए हैं। जहां ऊंचनीच और दुव्र्यवहार हो, आप समझ लीजिए कि आपको यहां ज्ञान नहीं बल्कि अपमान ही मिलेगा।
मैंने अपने लेख में मज़ार की विशेषता नहीं बताई है बल्कि मस्जिद की विशेषता बताई है कि वहां समाज का हरेक सदस्य आता है और सब मिलकर बराबर खड़े होते हैं , उसकी वाणी सुनते हैं और उसे शीश नवाते हैं। इस पूजा में किसी भी तरह का अन्न-फल या धन ख़र्च नहीं होता।
आप वहां जाईये जहां बराबरी है, सम्मान है लेकिन विडंबना यह है कि आप वहां जाने के लिए तैयार नहीं हैं और मज़ारों पर टूटे पड़े हैं। अपने शोषण के लिए आधी ज़िम्मेदारी खुद आपकी भी है।
2. आपसे मैंने कहा था कि ‘मेरा देश मेरा धर्म‘ वाले भाई से पूछकर मुझे बताईये कि स्वामी विवेकानंद ने हिंदुओं को करोड़ों देवी-देवताओं की पूजा से क्यों रोका ?
और रोका भी है या वैसे ही उनकी तरफ़ से झूठी अफ़वाह फैलाई जा रही है ?
आपने क्या पता किया है ?
अब ज़रा मुझे बता दीजिए, कई दिन हो चुके हैं।
यह कोई तरीक़ा नहीं है कि अनवर जमाल की बात की काट करो और हिंदुओं को उसी बात पर कुछ भी न कहो। यह तरीक़ा न्याय और निष्पक्षता का नहीं है। आदमी मत देखिए। ग़लती देखिए, जिसकी पाओ उसे ही रोक दो। मैं तो ऐसे ही करता हूं। मुझे गुटबाज़ी से क्या मतलब ?
ग़लत को ग़लत कह देता हूं चाहे मेरा क़रीबी हो या मेरा विरोधी। चाहे मुझसे छोटा हो या फिर बड़ा। सही का साथ देता हूं चाहे कहने वाला कोई भी हो। स्वामी विवेकानंद जी की बात सही है तो मैंने उनका समर्थन किया। स्वामी जी के कहने से कोई सही बात ग़लत थोड़े ही हो जाएगी। वे एक सन्यासी थे और पूरा जीवन वे मंदिर और तीर्थों का ही भ्रमण करते रहे। ऐसे में अगर वे कुछ कह रहे हैं तो उस पर ध्यान अवश्य दिया जाना चाहिए
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पूस के माह में संभोग जायज़ या नाजायज़ ?
@ जनाब डा. श्याम गुप्ता जी ! कृप्या ‘चैरिटी‘ शब्द की स्पैलिंग चेक कर लीजिएगा आपको पता चल जाएगा कि इस कहावत को आपने कहां ग़लत लिखा है। आपको तो मात्र इशारे से ही समझ जाना चाहिए था लेकिन आप तो साफ़ बताने के बाद भी नहीं जान पाए। दूसरी बात यह है कि इस कहावत में ‘मस्ट‘ नहीं है बल्कि ‘चैरिटी बिगिन्स फ़्रॉम होम‘ है। मस्ट की तो फिर भी चल जाएगी लेकिन स्पेलिंग मिस्टेक तो आपको दुरूस्त करनी ही पड़ेगी।
2. हिंदुओं में जितनी परंपराएं प्रचलित हैं उनमें जितनी लिखी हुई हैं इससे ज़्यादा वे हैं जो अलिखित हैं। फिर अलग अलग जातियों के ही नहीं बल्कि अलग अलग गांवों तक के रिवाज अलग हैं। आप किसी यदुवंशी से पूछिए कि ‘पूस के मास में नवविवाहित यदुवंशियों को संभोग से क्यों रोका गया है ?‘
भगवान के साथ भेदभाव क्यों ?
3. आप अलिखित हिंदू रस्मों को तो क्या जानेंगे  ?
आपको यह भी पता नहीं है कि श्रीमद्भागवत महापुराण में महात्मा बुद्ध को विष्णु जी का अवतार बताया गया है। आप कह रहे हैं कि हम तो महात्मा बुद्ध को केवल एक विद्वान मानकर उन्हें आदर देते हैं ?
आपको श्री रामचंद्र जी का अवतार होना तो पता है लेकिन महात्मा बुद्ध का अवतार होना पता नहीं है। यह अज्ञान नहीं है तो और क्या है ?
4. यदि वास्तव में ही महात्मा बुद्ध विष्णु जी के अवतार थे तो आपके मंदिरों में श्रीरामचंद्र जी और उनके वानर तक के तो चित्र मिलते हैं लेकिन उन्हीं के एक और अवतार महात्मा बुद्ध के चित्र या मूर्ति आदि क्यों नहीं मिलते ?
5. क्या इससे यह पता नहीं चलता कि आप लोग केवल इंसानों में ही भेदभाव नहीं करते बल्कि अगर भगवान भी आप लोगों के बीच जन्म ले ले तो आप उसके साथ भी भेदभाव करते हैं। उसके एक रूप की पूजा करेंगे और दूसरे रूप का एक चित्र तक किसी मंदिर में नहीं रखेंगे ?
क्या ईश्वर भी कभी अनीश्वरवादी हो सकता है ?
6. क्या ईश्वर भी कभी अनीश्वरवादी हो सकता है ?
जब श्रीमद्भागवत महापुराण महात्मा बुद्ध को ईश्वर घोषित कर रहा है तो फिर क्या महात्मा बुद्ध यह भूल गए थे कि वे स्वयं ईश्वर हैं और उन्हें अनीश्वरवादी और यज्ञ का विरोधी नहीं होना चाहिए ?
7. महात्मा बुद्ध ने यज्ञ में अन्न-फल जलाने का विरोध क्यों किया ?
8. अगर उन्होंने विरोध कर भी दिया तो तत्कालीन वेदाचार्यों ने बौद्धों के विरोधस्वरूप यज्ञ को कलिवज्र्य क्यों घोषित कर दिया ?
अगर यज्ञ धर्म था तो उसे किसी अनीश्वरवादी विद्वान के कहने से बंद नहीं करना चाहिए था। जैसे कि हम अज्ञानियों के विरोध के बावजूद कुरबानी बंद नहीं करते।
हिंदू धर्म के सिद्धांतों को लगातार बदला जाता रहा है
9. आपने धर्म को खेल समझ रखा है कि जब चाहो और जितना चाहो उसे बदल दो।
10. जितना बदलने की इजाज़त होती है वह या तो अनुकूलन में आता है या फिर आपद्-धर्म होता है। उसमें धर्म के मूल सिद्धांतों को सुरक्षित रखा जाता है। ऐसा नहीं होता कि समय बदले तो धर्म के मूल सिद्धांत ही बदल कर रख दिए जाएं। जब सिद्धांत बदल दिए जाते हैं तो फिर धर्म भी बदल जाता है। इसे धर्म परिवर्तन कहा जाता है, न कि नवीनीकरण।
पद सोपान क्रम में जाति-व्यवस्था हिंदू धर्म का आधार है। चाहे वह जन्मना हो या फिर गुण-कर्म-स्वभाव के आधार पर। इन चारों जातियों के अधिकार बराबर नहीं हैं। यह वर्ण-व्यवस्था का स्पष्ट सिद्धांत है लेकिन आज भारत में हरेक वर्ण को, हरेक श्रेणी के कर्मचारी को बराबर अधिकार है। ब्राह्मण किसी पर भी श्रेष्ठता नहीं है।
ऐसे ही हिंदू जीवन पद्धति का आधार चार आश्रम हैं। आप 50 साल से ऊपर के हो चुके हैं लेकिन आज भी यहीं घूम रहे हैं मुसलमानों की तरह। आप जंगल जाने के लिए तैयार ही नहीं हैं एक वानप्रस्थी की तरह। जब आपको हिंदू जीवन पद्धति की महानता पर यक़ीन है तो आप इस्लाम पर अमल क्यों कर रहे हैं ?
अपने धर्म से पतित होना और क्या होता है ?
चारों आश्रमों का त्याग क्यों ?
11. आज हिंदू अपने बच्चों को गुरूकुलों में भेजने के बजाय कान्वेंट में भेज रहे हैं और बच्चे भी ‘ब्रह्मचर्य‘ का पालन नहीं कर रहे हैं। आप चारों आश्रमों में से किसी एक भी आश्रम का पालन नहीं करते तो फिर आप अपने धर्म के नास्तिक हुए कि नहीं ?
12. आप विवाह करते हैं लेकिन गृहस्थ के लिए हिंदू धर्म में जो विधान है कि अगर गर्भ ठहर जाए तो पति अपनी पत्नी से संभोग न करे । आप इसके भी पाबंद नहीं हैं। यहां भी आप इस्लाम पर ही अमल कर रहे हैं । अपने आश्रम के अनुसार आप आचरण क्यों नहीं करते ?
13. अगर वे अव्यवहारिक हैं तो आप मानते क्यों नहीं ?
हिंदू विवाह : संस्कार या समझौता ?
14. हिंदू धर्म में विवाह एक संस्कार है। पति के मरने के बाद भी औरत उसी की पत्नी रहती है। इस्लाम में पति की मौत के साथ ही रिश्ता टूट जाता है और तलाक़ से भी टूट जाता है तथा औरत दूसरा विवाह कर सकती है। आपने भी अपने संस्कार को मुसलमानों की तरह ‘समझौते‘ में ही बदल कर रख दिया है। जब हमने उसे आपकी तरह संस्कार नहीं माना तो आपने उसे हमारी तरह समझौता क्यों मान लिया ?
क्या इस्लाम हिंदू धर्म की नक़ल है ?
15. अगर इस्लाम आपके नज़रिये वाले हिंदू धर्म की नक़ल होता तो इसमें हिंदू धर्म के मौलिक सिद्धांत ज़रूर होते जैसे कि अवतारवाद, अंशवाद, बहुदेववाद, सती, नियोग, ऊंचनीच, छूतछात, जुआ, ब्याज, संगीत की अनुमति, देवदासी, मूर्तिपूजा, यज्ञ, सोलह संस्कार, चार आश्रम, आवागमन, गोपूजा, गाय का पेशाब पीना, हिंदुस्तान का कोई तीर्थ या सन्यास लेना आदि। इनमें से कोई भी चीज़ इस्लाम में सिरे से ही नहीं है। अलबत्ता आप खुद इन चीज़ों से अपना पीछा छुड़ाते जा रहे हैं और अपने धर्म को इस्लाम जैसा बनाते जा रहे हैं।
हिंदू धर्म के कुछ मतों के मानने वालों की शक्ल तक मुसलमानों से इतनी मिलती जुलती हो गई है कि अमेरिका में उन्हें मुसलमान समझकर मारने की घटना भी पेश आ चुकी है।
16. धर्म के सिद्धांतों को ही बदलकर रख दिया गया है और आप कह रहे हैं कि यही तो वैज्ञानिकता है। यह वैज्ञानिकता नहीं है बल्कि मूर्खता है और जनता को सदा मूर्ख बनाए रखने के लिए साज़िश का एक फंदा है। भारत में पहले बौद्ध धर्म का और जैन धर्म का सिक्का जम गया तो हिंदू धर्म को उनके सिद्धांतों के अनुसार ढाल दिया गया और जब मुसलमान आ गए तो उनकी तरह बन गए और अब यूरोपियन्स की तूती बोल रही है तो अपना रहन-सहन उनकी तरह कर डाला। धर्म से आपको कभी मतलब रहा ही नहीं। आप तो वक्त के हाकिम के रिवाज के मुताबिक अपनी मान्यताएं और परंपराएं बदलते चले आ रहे हैं। इसी उलट पलट में आपसे आपका धर्म खोया गया। आप भूल गए लेकिन मुझे याद है क्योंकि मेरे पास ‘वह‘ है जो आपके पास नहीं है।
17. कृप्या अपनी हालत पर ग़ौर करें और ऐसी हालत में भी अपनी महानता के झूठे दंभ को आप त्यागने के लिए तैयार नहीं हैं, सिवाय अफ़सोस के और क्या किया जा सकता है ?
धर्म एक प्रचारक अनेक
18. आप कहते हैं कि इस्लाम मात्र 1500-1600 साल पुराना है। मैं आपको बता चुका हूं कि इस्लाम सनातन है। एक ही सिद्धांत का प्रचार करने वाले लगभग एक लाख चैबीस संदेष्टा हुए हैं जो कि सब के सब हज़रत मुहम्मद साहब स. के आने से पहले ही हुए हैं। पैग़म्बर साहब स. की पैदाईश को भी 1500-1600 साल नहीं हुए हैं। इससे पता चलता है कि आपने इस्लाम के बारे में महज़ सुनी-सुनाई बातों के आधार पर एक कल्पना गढ़ ली है। आप इस्लाम को जानने के लिए उसके मूल स्रोत से ज्ञान लेने के प्रति गंभीर नहीं हैं।
19. इस्लाम के प्रति तो आप क्या गंभीरता दिखाएंगे जबकि आप जिस धर्म को धर्म मानते हैं उसी का पालन करते हुए जंगल जाने के लिए तैयार नहीं हैं। धोती, चोटी और जनेऊ ग्रहण करने के लिए तैयार नहीं हैं।
20. आप हवन करने को पर्यावरण शुद्धि के ज़रूरी मानते हैं और दिन में 3 बार ऐसा किया जाना हिंदू शास्त्र आवश्यक मानते हैं। लेकिन आप जिस चीज़ को लाभकारी और धर्म मानते हैं उसे दिन में एक बार भी करने के लिए तैयार नहीं हैं।
21. आप इस्लाम की सत्यता पर विश्वास नहीं रखते लेकिन आपके कितने ही कर्म इस्लाम के अनुसार संपादित हो रहे हैं और जिस हिंदू जीवन पद्धति के कल्याणकारी होने का विश्वास आपके दिलो-दिमाग़ में रचा-बसा है, उसके अनुसार आप अमल करने के लिए तैयार नहीं हैं।
ऐसा विरोधाभास आपके जीवन में क्यों है ?
ज़रा इन बिंदुओं पर ग़ौर कीजिएगा। यह जीवन कोई तमाशा नहीं है और न ही धर्म कोई कपड़े हैं कि अपनी मर्ज़ी से जब चाहे इसका ड़िज़ायन चेंज कर लिया।
1- https://www.blogger.com/comment.g?blogID=554106341036687061&postID=5300384475338570599&isPopup=true 

2- http://lucknowbloggersassociation.blogspot.com/2011/01/c.html

Friday, January 14, 2011

मेरा संदेश साधु-संत और मुजरिम भी पढ़ते हैं The message

एक तोहफा बहन शालिनी के लिए http://shalinikaushik2.blogspot.com/
1- आप कैसे हर लम्हा धीरे-धीरे इस्लाम की ओर बढ़ रहे हैं?
@ भाई डा. श्याम गुप्ता जी ! आपसे मैं जितना संवाद कर रहा हूं उतना ही ज़्यादा यह साफ़ होता जा रहा है कि आप डाक्टर कहलाते ज़रूर हैं लेकिन आपका अक्षर ज्ञान तक कमज़ोर है। आपने ‘चैरिटी मस्ट बिगिन फ़्राम होम‘ एक अंग्रेज़ी कहावत लिखी और ग़लत लिखी। एक डाक्टर कहलाने वाले व्यक्ति के लिए ऐसी ग़लतियां करना शोभा नहीं देता। लोग देखेंगे तो आपका इम्प्रेशन उन पर ग़लत पड़ेगा।
आपने बताया नहीं है कि इस्लाम के अनुसार कैसे ग़लत है किसी विद्वान को उद्धृत करके नेकी और भलाई की बात बताना ?
कृप्या बताएं ताकि मैं उससे बचूं ?
मैं नहीं चाहता कि मैं कोई काम खि़लाफ़े इस्लाम करूं।
मेरा संदेश आपकी ही तरह सभी हिंदी जानने वाले पढ़ते हैं। साधु-संत और वेश्याओं से लेकर मुजरिम भी पढ़ते हैं। इसलिए आप यह नहीं कह सकते कि मैं मुजरिमों को नेकी की बात नहीं बताता।
इस्लामी सिद्धांतों का प्रचार मैं ही नहीं करता बल्कि आप भी करते हैं। कुछ समय पहले तक भारत में चार वर्णों की व्यवस्था थी, ऊंचनीच और छूतछात थी, विधवा का दोबारा विवाह नहीं हुआ करता था बल्कि उसे सती किया जाता था, औरत को संपत्ति में हिस्सा नहीं दिया जाता था, उसे पढ़ने की मनाही थी वग़ैरह, वग़ैरह। इन सब ज़ुल्मों को आप हिंदू धर्म का नाम दिया करते थे लेकिन आज ये सब ज़ुल्म बंद हो चुके हैं। ख़ुद आप लोगों ने ही इन सब रीति-रिवाजों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई और इन्हें छोड़ दिया। आज आप इंसानों को बराबर मानते हैं और औरतों को वे सब अधिकार देते हैं जो कि आदि शंकराचार्य जी ने भी नहीं दिए आज तक। आपको बराबरी और भाईचारे का उसूल कहां से मिला ?
ज़रा सोच कर बताईयेगा।
हो सकता है कि आप अपने तास्सुब और अहंकार के कारण न मानें, तब मैं आपको हिंदू सुधारकों के उद्धृण दूंगा जिनमें वे स्वीकार करते हैं कि ये उसूल हमने इस्लाम से लिए हैं। आप भी इस्लाम के उसूलों को अपनाकर ही काम चला रहे हैं वर्ना आप जी ही नहीं सकते। बस आप इस्लाम का नाम नहीं लेते और मैं नाम लेता हूं और बताता हूं कि हां यह उसूल इस्लाम का है।
काफ़ी सारे इस्लामी उसूल आपकी ज़िंदगी में आ चुके हैं। आपकी धोती, चोटी और जनेऊ आपसे रूख़्सत हो चुके हैं। सबका मालिक एक है, यह भी आप मानने लगे हैं। पहले आप मूर्ति में शक्ति माना करते थे और अब उसे मात्र ध्यान जमाने का एक माध्यम भर मानने लगे हैं। देश में इस्लामी बैंकिंग आने ही वाली है यानि कि आर्थिक व्यवस्था भी इस्लाम के प्रभाव में आने वाली है। ग़र्ज़ यह कि बहुत से चेंज आ चुके हैं लेकिन जिनके पास सोचने समझने की ताक़त नहीं है या फिर उनमें मानने का हौसला नहीं है वे कैसे इस बात को मान सकते हैं कि वे हर लम्हा धीरे-धीरे इस्लाम की ओर बढ़ रहे हैं?
2- इस्लाम एक प्राकृतिक व्यवस्था है
@ बहन शालिनी कौशिक जी ! धर्म का उद्देश्य कल्याण है। यज्ञ में अन्न-धन जलाना एक आडंबर है। इसके विरोध में महात्मा बुद्ध आदि विचारक आवाज़ भी उठा चुके हैं और उनके तर्क बल के सामने परास्त होकर वेदवादियों द्वारा कलियुग में यज्ञ आदि न करने की व्यवस्था भी निर्धारित की जा चुकी है। राजनीति हो या व्यापार, जब आप आदमी को जीवन का सही मक़सद और जीवन गुज़ारने की सही रीत नहीं बता पाएंगे तो वह ग़लत ही तो करेगा। आज ग़लतियों का अंबार है और उन ग़लतियों को आज परंपरा का नाम दिया जा चुका है जैसे कि पूस के महीने में नवविवाहित हिंदू दंपत्ति न अपने किसी रिश्तेदार के जा सकते हैं और न ही आप में शारीरिक आनंद ले-दे सकते हैं। आखि़र क्या औचित्य है ऐसे आडंबर का ?
मेरा एक परिचित युवक है सुदामा यादव। बेचारे की अभी ताज़ी शादी हुई है और दोनों तरफ़ है आग बराबर लगी हुई और तब भी बेचारे आपस में मिल नहीं सकते जबकि इस्लाम में ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं है। सारे सुधारों का मूल इस्लाम है। चाहे आप सीधे मान लें या फिर हल्के-हल्के करके। ये परंपराएं अब और चलने वाली नहीं हैं। आप भी एक नारी हैं। ‘ख़ास दिनों‘ में हिंदू धर्म की जो व्यवस्था है उसे आज आप नहीं मानती हैं और वैसे रहती हैं जैसे कि ‘उन दिनों‘ में इस्लाम बताता है। चाहे आपको पता भी न हो। इसी को कहते हैं प्राकृतिक व्यवस्था। इस्लाम एक प्राकृतिक व्यवस्था है।
इस संवाद कि पृष्ठभूमि  जानने के लिए देखें -
https://www.blogger.com/comment.g?blogID=554106341036687061&postID=253021086093887940&isPopup=त्रुए
और
http://ahsaskiparten.blogspot.com/2011/01/hungers-cry.html

Thursday, January 13, 2011

सही-ग़लत का ज्ञान कभी षटचक्रों के जागरण और समाधि से नहीं मिला करता

http://www.indianetzone.com/yoga/
@ जनाबे आली डाक्टर श्याम गुप्ता साहब ! आपका दिमाग़ एक ख़ास माहौल में परवरिश पाने के कारण कंडीशन हो चुका है तभी आप यह भी नहीं देख पाए कि जो सवाल आप कर रहे हैं। उन सभी सवालों को विस्तार से या सूक्ष्म रूप में लिखा गया, तभी यह पोस्ट वजूद में आई है।

अच्छा-बुरा और सही-ग़लत कौन जानता है ?
यह भी इसी पोस्ट में बताया गया है।
सही-ग़लत की परिभाषा क्या है ?
कौन सा काम सही है ? और कौन सा काम ग़लत है ?
कौन लोग सही बात को जानने वाले और उसके अनुसार व्यवहार करने वाले हुए हैं ?

जब सारे हिंदू भाई इन सवालों के जवाब मिलकर भी न बता पाएं। तब आपको बताएगा आपका यह भाई अनवर जमाल जो कि ग़ालिब के बुत के पास खड़ा हुआ नज़र आ रहा है। जन्नत की हक़ीक़त ग़ालिब भी जानते थे और अनवर जमाल भी जानता है। जो जन्नत की हक़ीक़त जानता है वह हरेक विचार और कर्म की परिणति भी जानता है क्योंकि उसके पास वह ‘ज्ञान‘ है जिसके लिए ‘ज्ञान‘ शब्द की उत्पत्ति हुई।
अपने दिल की तंगी और तास्सुब निकालकर जब आप एक मुसलमान को अपने ऊपर श्रेष्ठता देने के लिए तैयार हो जाएंगे तो आपको किसी के बताए बिना ख़ुद ब ख़ुद ‘ज्ञान का द्वार‘ नज़र आ जाएगा। आपके श्रेष्ठता देने से मुसलमान श्रेष्ठ नहीं हो जाएगा लेकिन आप के अंदर विनय का गुण ज़रूर पैदा हो जाएगा और जब तक वह गुण आपमें पैदा नहीं होगा तो आप अपना ‘वेद‘ भी न समझ पाएंगे और ‘वेद‘ शब्द का अर्थ भी ‘ज्ञान‘ ही होता है और याद रखिएगा कि दर्शन आप छः नहीं छः हज़ार बना लीजिए। ये सारे मिलकर भी एक वेद के बराबर न हो पाएंगे। वेद ही ज्ञान है। दर्शन ज्ञान नहीं है बल्कि ज्ञान तक पहुंचने का एक माध्यम है। वेद सत्य है और दर्शन कल्पना है। सत्य आधार है और कल्पना मजबूरी। सत्य से मुक्ति है और कल्पना से बंधन। कल्पना सत्य भी हो सकती है और मिथ्या भी लेकिन सत्य कभी मिथ्या नहीं हो सकता। ईश्वर सत्य है और उस तक केवल सत्य के माध्यम से ही पहुंचना संभव है।
सही-ग़लत का ज्ञान कभी षटचक्रों के जागरण और समाधि से नहीं मिला करता। इसे पाने की रीत कुछ और ही है। वह सरल है इसीलिए मनुष्य उसे मूल्यहीन समझता है और आत्मघात के रास्ते पर चलने वालों को श्रेष्ठ समझता है। दुनिया का दस्तूर उल्टा है । मालिक की कृपा हवा पानी और रौशनी के रूप में सब पर बरस रही है और उसके ज्ञान की भी लेकिन आदमी हवा पानी और रौशनी की तरह उसके ज्ञान से लाभ नहीं उठा रहा है मात्र अपने तास्सुब के कारण।
कोई किसी का क्या बिगाड़ रहा है ?
अपना ही बिगाड़ रहा है । 
Place, where you can see the context of this post .
https://www.blogger.com/comment.g?blogID=554106341036687061&postID=1840318453488599693&isPopup=true

Wednesday, January 12, 2011

हिंदी में कहावत है और हिंदुओं में इबादत है ‘आग में घी डालना‘ Food in the fire

हिंदी में कहावत है और हिंदुओं में इबादत है ‘आग में घी डालना‘
जनाब पी. के. मिश्रा जी ! आपके खुद के पास दिमाग़ नहीं है और नफ़रत में आप अंधे भी हो चुके हैं। क्या आपने देखा नहीं है कि मैंने कहा है कि आग में घी डालना हराम है अर्थात मना है। आप कोट पैंट पहनकर ज़रूर अपनी चोट कटा बैठे लेकिन आपका मन आज भी अंधविश्वासी है। आप चाहे अंग्रेज़ों से पूछ लीजिए और चाहे अपने से भी गए बीते अफ़्रीक़ा के जंगलियों से पूछ लीजिए कि हम हर साल खरबों रूपये का चंदन, केसर और नारियल लकड़ियों में रखकर आग लगा देते हैं, ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ा देते हैं जबकि हमारे यहां लाखों गर्भवती महिलाएं और बालक कुपोषण और भूख के शिकार हैं तो क्या हमारे पास दिमाग़ है तब वे जो जवाब दें वह आकर मुझे बताना।
मैं तो किसी को कुछ कहता नहीं हूं लेकिन आप हैं कि जानवरों की फ़ोटो लगाकर मुझ पर लिखना शुरू कर देते हैं। ये फ़ोटो आप अपनी लगाते हैं या अपने दोस्तों की ?
कहने को तो मैं भी आपको ‘कछुआ कफ़न‘ कह सकता हूं जैसा कि आपने मेरे नाम के साथ खिलवाड़ किया है लेकिन मैंने आज तक कुछ नहीं कहा। क्यों नहीं कहा ?
इसलिए नहीं कहा कि यह बेचारा तो अपनी चोटी पहले ही कटाकर सूट पहनकर अंग्रेज़ सा हुआ फिर रहा है। धर्म के नाम पर इस बेचारे के पास कुछ नहीं है और संस्कृति के नाम पर जो था उससे भी यह अपना पिंड छुड़ाता ही जा रहा है। इस बेचारे कंगाल को क्या अहसास दिलाना। कर लेने दो थोड़ा बहुत गर्व बेकार का। समय का रथ इसकी बाक़ी बची हुई बेकार परंपराओं को रौंदता हुआ खुद निकल जाएगा। ये तो समय के साथ ताक़ंतवर आक़ाओं के मुताबिक़ खुद को बदलने वाली क़ौम का सदस्य है। काफ़ी कुछ बदल गया है और बाक़ी भी बदल जाएगा। बस समय लगेगा और समय का मैं इंतज़ार कर ही रहा हूं।
लेकिन आप हैं कि मुझे कहावतें सिखा रहे हैं और मेरे दिमाग़ पर शक कर रहे हैं। आप अपना दिमाग़ टटोलिए यह गया कहां ?
देश के अन्न में आग लगाना कौन सी समझदारी है ?
एक तो देश में घी का उत्पादन पहले ही कम है और जो है उसे भी देश के फ़ौजियों और बालकों को देने के बजाए आग में डाल दिया जाए। आपकी इन्हीं परंपराओं के कारण पहले भी हमारे देश की फ़ौजे कमज़ोर रहीं और थोड़े से विदेशी फ़ौजियों से हारीं हैं। कम से कम इतिहास की ग़लतियां अब तो न दोहराओ। दिमाग़ हो तो इन ज्ञान की बातों को समझने की कोशिश ज़रूर करना।

Hunger free India क्या भूखों की समस्या और उपासना पद्धतियों में कोई संबंध है ?- Anwer Jamal

http://ahsaskiparten.blogspot.com/2011/01/standard-scale-for-moral-values.html?showComment=1294670416731#c4645121125829265744
http://pachhuapawan.blogspot.com/2011/01/blog-post_09.html?showComment=1294670629501#c7146696874798830041

Saturday, January 8, 2011

सनातन है इस्लाम , एक परिभाषा एक है सिद्धांत The same principle

ईश्वर एक है तो धर्म भी दो नहीं हैं और न ही सनातन धर्म और इस्लाम में कोई विरोधाभास ही पाया जाता है । जब इनके मौलिक सिद्धांत पर हम नज़र डालते हैं तो यह बात असंदिग्ध रूप से प्रमाणित हो जाती है ।
ईश्वर को अजन्मा अविनाशी और कर्मानुसार आत्मा को फल देने वाला माना गया है । मृत्यु के बाद भी जीव का अस्तित्व माना गया है और यह भी माना गया है कि मनुष्य पुरूषार्थ के बिना कल्याण नहीं पा सकता और पुरूषार्थ है ईश्वर द्वारा दिए गए ज्ञान के अनुसार भक्ति और कर्म को संपन्न करना जो ऐसा न करे वह पुरूषार्थी नहीं बल्कि अपनी वासनापूर्ति की ख़ातिर भागदौड़ करने वाला एक कुकर्मी और पापी है जो ईश्वर और मानवता का अपराधी है, दण्डनीय है ।
यही मान्यता है सनातन धर्म की और बिल्कुल यही है इस्लाम की ।

अल्लामा इक़बाल जैसे ब्राह्मण ने इस हक़ीक़त का इज़्हार करते हुए कहा है कि

अमल से बनती है जन्नत भी जहन्नम भी
ये ख़ाकी अपनी फ़ितरत में न नूरी है न नारी है
कृपया सम्पूर्ण सन्दर्भ  के लिए देखें -
आज कल मैं अपने ब्लाग 'अहसास की परतें' पर ज्यादा लेख पेश कर रहा हूँ . जो लोग मेरे लेख नियमित पढना चाहते हैं उन्हें 'अहसास की परतें' को फोलो करना चाहिए .
धन्यवाद !

Wednesday, January 5, 2011

‘वसुधैव कुटुबंकम्‘ का सपना हक़ीक़त बन सकता है Home

<b>‘वसुधैव कुटुबंकम्‘ का सपना हक़ीक़त बन सकता है</b>
@ जनाब मासूम साहब !
हक़ीक़त यह है कि जब तक आदमी नहीं जानता , तब तक ही उससे ग़लती हो सकती है लेकिन जो जानबूझकर और बार बार ग़लती करता है और अपनी ग़लती को सही ठहराता है, वह मात्र दो पैरों पर चलने के कारण आदमी कहलाने का हक़दार नहीं है। सत्पुरूषों ने आदमी को इन्हीं सिफ़्ली ख्वाहिशात से ऊपर उठाने के लिए तरह तरह के तरीक़े बताए हैं लेकिन इन तरीक़ों पर चलता वही है जिसे कि अपनी ग़लतियों से मुक्ति दरकार होती है। जो लोग अपनी ग़लतियों में मज़ा उठाते हैं, उनके लिए नेक नसीहतें किसी काम की नहीं हुआ करतीं, अलबत्ता उन्हें नसीहत से एलर्जी होती है। ‘बंदर बया का घर अक्सर इसीलिए उजाड़ देते हैं‘ कि उसने उन्हें उनकी हमदर्दी में उन्हें नसीहत क्यों की ?
दुनिया भर में नेकी का उपदेश देने वालों को फ़क़त इसी जुर्म में मार दिया गया। भारत में भी इस जुर्म में मारे जाने वालों की लंबी तादाद है। संसद में सवाल पूछने के बदले पैसा लेने वाले नेताओं को कोई सज़ा नहीं मिलती लेकिन जब उनकी ‘देश सेवा‘ देखकर देशवासियों का विश्वास उनकी व्यवस्था से उठ जाता है तो कहा जाता है कि ‘इसने सरकार के लिए लोगों के मन में तिरस्कार और विरक्ति के भाव जगाए।‘ जैसा कि डाक्टर विनायक सेन को उम्रक़ैद की सज़ा सुनाते हुए अदालत ने कहा है। बाबरी मस्जिद के फ़ैसले के बाद यह एक मिसाल है कि हमारी अदालतों के फ़ैसले बेनज़ीर हैं।
डाक्टर विनायक सेन का क़ुसूर यह था कि वह एक ग़रीब नवाज़ डाक्टर है, ग्रामीण इलाक़े के अभावग्रस्त लोगों की सेवा को ही वह अपना कर्म-धर्म मानता था। बौर्ज़ुआ लोग पहले भी मुल्क पर हुकूमत करते आए हैं और यही लोग आज भी हावी हैं। ग़रीब लोग इनके बंधुवा हैं। लीडर इनके गुलाम हैं। नीरा राडिया के मामले में यह साबित हो ही चुका है। समझदार लोग इनके तलुवे चाटने में अपना भविष्य ढूंढते आए हैं हमेशा से। बहुटिप्पणीधन-संपन्न पंूजीपति आस्तिक-नास्तिक ब्लाग जगत की आभासी दुनिया की सच्ची आत्माओं को भी गुलाम बना लेना चाहते हैं। जो उनका गुलाम नहीं है, वह आपके साथ ज़रूर आएगा और आपने जिन ग़लतियों की निशानदेही की है, उन्हें भी ज़रूर दूर करेगा। कोयलों की खान में हीरे भी हआ करते हैं।
हीरे मोती आपके पास इकठ्ठे होते ही जा रहे हैं। अजय कुमार झा जी को आपके ब्लाग पर हीरे से उपमा दी भी जा चुकी है। जिनके लिए ऐसा नहीं बोला गया है, वे भी हीरे हैं, कोहेनूर हैं। अब जब आपका बुरा चाहने वालों के अरमान के बावजूद आपका दामन हीरे-मोतियों से लबालब भर गया है तो अजब नहीं कि कुछ जरायम पेशा अफ़राद आपके पीछे लग जाएं या आपका दिल बहलाने की ख़ातिर कोई मदारी अपने बंदरों से आपका दिल बहलाने आ जाए। हक़ीक़त की दुनिया की तरह यहां सर्कस भी है और जोकर भी। लुटिया चोर भी हैं और ब्लाग माफ़िया भी। आप खुद एक ज़मींदार घराने से हैं और माफ़ियाओं के शहर में ही रहते भी हैं, सो आपको हरेक की पहचान भी है और उनसे सलाम-दुआ करना भी आपको आता ही है। जो आपके साथ रहेगा, वह आपसे कुछ पाएगा भी और कुछ सीखेगा भी।
आपके पवित्र मिशन की क़द्र करता हूं और आपके साथ हूं क्योंकि मैं भी ब्लागिंग को एक नशा नहीं बल्कि एक पवित्र मिशन मानता हूं आपकी तरह और आपके साथियों की तरह। इसी बात का ज़िक्र मैंने आज जनाब राज भाटिया जी की पोस्ट पर एक टिप्पणी में भी किया है।
अगर ब्लागिंग का सही इस्तेमाल किया जाए तो सारी राजनैतिक और आर्थिक सरहदों के बावजूद ‘वसुधैव कुटुबंकम्‘ का सपना हक़ीक़त बन सकता है । तब सारी दुनिया एक परिवार बन जाएगी जैसा कि वास्तव में वह है भी।
मनु महाराज की शिक्षा भी यही थी और फ़रमाने मुहम्मदी भी यही है। ईश्वर अल्लाह का आदेश यही है। वेद-कुरआन का सार भी यही है। यही सत्य है। सत्य एक ही है। सत्य को ग्रहण करना ही धर्म है। ‘अमन का पैग़ाम‘ देकर इसी अनिवार्य मानव धर्म का पालन कर रहे हैं।
सादर !
शुभकामनाएं!
http://ahsaskiparten.blogspot.com/2010/12/patriot.html?showComment=1294241546471#c6344629849524531561

Sunday, January 2, 2011

ब्लागिंग के ज़रिये सारी मानव जाति को एक परिवार कैसे बनायें ? Live in relation

<b>ब्लागिंग : एक नशा नहीं बल्कि एक पवित्र मिशन</b>
@ जनाब मासूम साहब ! आपने अपनी पोस्ट की शुरूआत में राज भाटिया साहब के एक आदर्श जुमले से की है। हक़ीक़त यह है कि जब तक आदमी नहीं जानता , तब तक ही उससे ग़लती हो सकती है लेकिन जो जानबूझकर और बार बार ग़लती करता है और अपनी ग़लती को सही ठहराता है, वह मात्र दो पैरों पर चलने के कारण आदमी कहलाने का हक़दार नहीं है। सत्पुरूषों ने आदमी को इन्हीं सिफ़्ली ख्वाहिशात से ऊपर उठाने के लिए तरह तरह के तरीक़े बताए हैं लेकिन इन तरीक़ों पर चलता वही है जिसे कि अपनी ग़लतियों से मुक्ति दरकार होती है। जो लोग अपनी ग़लतियों में मज़ा उठाते हैं, उनके लिए नेक नसीहतें किसी काम की नहीं हुआ करतीं, अलबत्ता उन्हें नसीहत से एलर्जी होती है। ‘बंदर बया का घर अक्सर इसीलिए उजाड़ देते हैं‘ कि उसने  उनकी हमदर्दी में उन्हें नसीहत क्यों की ?
दुनिया भर में नेकी का उपदेश देने वालों को फ़क़त इसी जुर्म में मार दिया गया। भारत में भी इस जुर्म में मारे जाने वालों की लंबी तादाद है। संसद में सवाल पूछने के बदले पैसा लेने वाले नेताओं को कोई सज़ा नहीं मिलती लेकिन जब उनकी ‘देश सेवा‘ देखकर देशवासियों का विश्वास उनकी व्यवस्था से उठ जाता है तो कहा जाता है कि
<b>‘इसने सरकार के लिए लोगों के मन में तिरस्कार और विरक्ति के भाव जगाए।‘
</b>जैसा कि डाक्टर विनायक सेन को उम्रक़ैद की सज़ा सुनाते हुए अदालत ने कहा है। बाबरी मस्जिद के फ़ैसले के बाद यह एक मिसाल है कि हमारी अदालतों के फ़ैसले बेनज़ीर हैं।
डाक्टर विनायक सेन का क़ुसूर यह था कि वह एक ग़रीब नवाज़ डाक्टर है, ग्रामीण इलाक़े के अभावग्रस्त लोगों की सेवा को ही वह अपना कर्म-धर्म मानता था। बौर्ज़ुआ लोग पहले भी मुल्क पर हुकूमत करते आए हैं और यही लोग आज भी हावी हैं। ग़रीब लोग इनके बंधुवा हैं। लीडर इनके गुलाम हैं। नीरा राडिया के मामले में यह साबित हो ही चुका है। समझदार लोग इनके तलुवे चाटने में अपना भविष्य ढूंढते आए हैं हमेशा से। बहुटिप्पणीधन-संपन्न पूँजीजीपति आस्तिक-नास्तिक ब्लाग जगत की आभासी दुनिया की सच्ची आत्माओं को भी गुलाम बना लेना चाहते हैं। जो उनका गुलाम नहीं है, वह आपके साथ ज़रूर आएगा और आपने जिन ग़लतियों की निशानदेही की है, उन्हें भी ज़रूर दूर करेगा। कोयलों की खान में हीरे भी हआ करते हैं।
हीरे मोती आपके पास इकठ्ठे होते ही जा रहे हैं। अजय कुमार झा जी को आपके ब्लाग पर हीरे से उपमा दी भी जा चुकी है। जिनके लिए ऐसा नहीं बोला गया है, वे भी हीरे हैं, कोहेनूर हैं। अब जब आपका बुरा चाहने वालों के अरमान के बावजूद आपका दामन हीरे-मोतियों से लबालब भर गया है तो अजब नहीं कि कुछ जरायम पेशा अफ़राद आपके पीछे लग जाएं या आपका दिल बहलाने की ख़ातिर कोई मदारी अपने बंदरों से आपका दिल बहलाने आ जाए। हक़ीक़त की दुनिया की तरह यहां सर्कस भी है और जोकर भी। लुटिया चोर भी हैं और ब्लाग माफ़िया भी। आप खुद एक ज़मींदार घराने से हैं और माफ़ियाओं के शहर में ही रहते भी हैं, सो आपको हरेक की पहचान भी है और उनसे सलाम-दुआ करना भी आपको आता ही है। जो आपके साथ रहेगा, वह आपसे कुछ पाएगा भी और कुछ सीखेगा भी।
आपके पवित्र मिशन की क़द्र करता हूं और आपके साथ हूं क्योंकि मैं भी ब्लागिंग को एक नशा नहीं बल्कि <a href="http://blogparivaar.blogspot.com/2011/01/blog-post.html?showComment=1293958874229#c1036935508397109129">एक पवित्र मिशन </a>मानता हूं आपकी तरह और आपके साथियों की तरह। इसी बात का ज़िक्र मैंने आज जनाब राज भाटिया जी की पोस्ट पर एक टिप्पणी में भी किया है।
अगर ब्लागिंग का सही इस्तेमाल किया जाए तो सारी राजनैतिक और आर्थिक सरहदों के बावजूद ‘वसुधैव कुटुबंकम्‘ का सपना हक़ीक़त बन सकता है। तब सारी दुनिया एक परिवार बन जाएगी जैसा कि वास्तव में वह है भी।
मनु महाराज की शिक्षा भी यही थी और फ़रमाने मुहम्मदी भी यही है। ईश्वर अल्लाह का आदेश यही है। वेद-कुरआन का सार भी यही है। यही सत्य है। सत्य एक ही है। सत्य को ग्रहण करना ही धर्म है। ‘अमन का पैग़ाम‘ देकर इसी अनिवार्य <a href="http://ahsaskiparten.blogspot.com/2010/12/karbala-part-2.html">मानव धर्म </a>का पालन कर रहे हैं।
सादर !
शुभकामनाएं! 
नए साल के मौक़े को यादगार बनाने के लिए मैंने दो नए ब्लाग बनाए हैं। आप इन्हें देखकर टिप्पणी करेंगे तो यह सच में यादगार बन जाएंगे।
1- <a href="http://pyarimaan.blogspot.com/">प्यारी मां</a>

2- <a href="http://commentsgarden.blogspot.com/">कमेंट्स गार्डन</a>

http://payameamn.blogspot.com/2011/01/blog-post.html?showComment=1293978975979#c8090666678715872933

Saturday, January 1, 2011

वसुधा एक है और सारी धरती के लोग एक ही परिवार है Holy family

डा० अमर कुमार said...
लँगूर = इँसानी फ़ितरत का एक चालाक ज़ानवर
मस्जिद की मीनारें = एक फ़िरके के तरफ़दार
मंदिर के कंगूरे = दूसरे तबके की दरोदीवार

यह मुआ लँगूर सदियों से दोनों बिल्लियों को लड़वा कर अपनी रोटी सेंक रहा है !
अनवर साहब मुआफ़ी अता की जाये तो एक सीधा सवाल आपसे है, अल्लाह के हुक्म की तामील में कितने मुस्लमीन भाई ज़ेहाद अल अक़बर को अख़्तियार कर पाते हैं और इसके दूसरी ज़ानिब क्यों इन भाईयों को ज़ेहाद अल असग़र का रास्ता आसान लगता है ? वज़ह साफ़ है, अरबी आयतों के रटे रटाये मायनों में दीन की सही शक्लो सूरत का अक्स नहीं उतरता ।
यही बात शायद हम पर भी लागू होता हो, चँद सतरें सँसकीरत की, जिन्हें हम मँत्र कहते कहते इँसानी के तक़ाज़ों से मुँह फेर लेते हैं, यह क्या है ? यह चँद चालाक हाफ़िज़-मुल्लाओं औए शास्त्री-पँडितों की रोज़ी है, लेकिन बतौर आम शहरी अगर हम इन्हें समझ कर भी नासमझ बने रहने में अपने को महफ़ूज़ पाते हैं , हद है !

ज़ेहाद का क़ुरान में मतलब है- बुराइयों से दूर रहने के लिए मज़हब को अख़्तियार करना ...और इसके दो तरीके बताए गए हैं। एक तो तस्लीमातों का रास्ता-ज़ेहाद अल अक़बर ....इसका मतलब है आदमी अपनी बुराइयों को दूर करें....दूसरा है ज़ेहाद अल असग़र... अपने दीन की हिफ़ाज़त के लिए भिड़ना.... अगरचे इस्लाम पर ईमान लाने में कोई अड़चन लाये,...किसी मुस्लिम बिरादरान पर कोई किस्म का हमला हो, मुसलमानों से नाइँसाफ़ी हो रही हो, ऐसी हालत में इस तरह के हथियारबन्द ज़ेहाद छेड़ने की बात है, मगर अब इसका मिज़ाज़ ओ मतलब ही बदल गया है...ज़ेहन में ज़ेहाद का नाम आते ही सियासी मँसूबों की बू आती है, यही वज़ह है कि ज़ेहाद के नाम को दुनिया में बदनामियाँ मिलती आयीं हैं ।
हम लड़ भिड़ कर एक दूसरे की तादाद भले कम कर लें, एक दूसरे के यक़ीदे को फ़तह नहीं कर सकते.. तो फिर क्या ज़रूरत है.. एक दूसरे की चहारदिवारी में झाँकने की ?

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जनाब डा. अमर कुमार साहब से एक विनम्र विनती
1. जनाब डा. अमर कुमार साहब ! आप ख़ैरियत के साथ हमारे दरम्यान वापस लौट आएं, इसके लिए मैंने अपने रब से दुआ की थी। अब आप हमारे दरम्यान हैं। मैंने बतौर शुक्रे मौला दो रकअत नमाज़ नफ़्ल अदा की और आपके लिए फिर दुआ की।
आपकी टिप्पणी से आपके इल्मो-फ़ज़्ल को पहचाना जा सकता है। आपने जिहादे कबीर और जिहादे सग़ीर को उसके सही संदर्भ में समझा। यह एक मुश्किल काम था। नफ़रत की आंधियों में दुश्मनी की धूल लोगों की आंखों में पड़ी है। ऐसे में भी आपने खुद को बचाया, वाक़ई बड़ी बात है। इस्लाम के ख़िलाफ़ दुर्भावना का शिकार हो जाना आज राष्ट्रवाद की पहचान बन चुका है। आपके कलाम को सराहने वाले कुछ टिप्पणीकार भी अपने ब्लाग पर दुर्भावनाग्रस्त देखे जा सकते हैं।
आपने पूछा है कि ऐसे सच्चे मुजाहिद आज कहां हैं ?
ऐसे मुजाहिद आज भी हर जगह हैं जिनकी आप तारीफ़ कर रहे हैं। अगर वे न होते तो आज समाज में सही-ग़लत की तमीज़ न होती, नैतिकता न होती, धर्म न होता, समाज न होता, यह आलम ही क़ायम न होता। दो चार नहीं, हज़ार दो हज़ार नहीं बल्कि दस लाख ऐसे सत्यसेवी चरित्रवान आदमी तो मैं दिखा सकता हूं आपको। दिखा तो ज़्यादा सकता हूं लेकिन आपके लिए स्वीकारना सहज हो जाए, इसलिए तादाद कम लिख रहा हूं।
सत्य को पहचानना इंसान का धर्म है। जिस तथ्य और सिद्धांत को आदमी सत्य के रूप में पहचान ले, उसके अनुसार व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से, व्यवस्थित रूप से सामाजिक,राजनैतिक, आर्थिक व अन्य कर्तव्य पूरा करना धर्म है। न तो ईश्वर सौ-पचास हैं और न ही धर्म। सबका मालिक एक है तो सबका धर्म भी एक ही है। दार्शनिकों की किंतु-परंतु और ईशवाणी में क्षेपक के कारण आज बहुत से मत समाज में मौजूद हो गए हैं। मत कभी धर्म नहीं होता और सारे मत कभी सही नहीं होते। एक दूसरे के मत की समीक्षा-आलोचना सदा से होती आई है। एक इलाक़े के प्रचारक सदा से दूसरे मत वालों के दरम्यान देश में भी गए हैं और विदेश में भी। महात्मा बुद्ध ने भी विदेश में अपने मत के प्रचारक भेजे और खुद दयानंद और विवेकानंद भी विदेश में गए अपने मतों का प्रचार करने के लिए और आज भी असंख्य हिंदू गुरू विश्व भर में सभी मत वालों के दरम्यान प्रचार कार्य कर रहे हैं। परमहंस योगानंद का नाम भी इसी कड़ी में लिया जा सकता है। ‘इस्कॉन‘ अर्थात ‘हरे रामा हरे कृष्णा‘ वाले इस बात की एक ज़िंदा मिसाल हैं। ‘इस्कॉन‘ अर्थात ‘हरे रामा हरे कृष्णा‘ और ऐसे ही दीगर बहुत से हिंदू गुरू सभी मत वालों के सामने अपनी आयडियोलॉजी पेश कर रहे हैं। जब कोई प्रचारक दुनिया जहान के सामने अपनी विचारधारा रखता है तो वह आलोचना-समीक्षा को स्वतः ही आमंत्रित करता है। हरेक नया गुरू एक नए मत की बुनियाद रखकर पहले से ही मतों में विभाजित मानव जाति को और ज़्यादा बांटने का काम कर रहा है। मतों की दीवार इंसान के विचार पर टिकी हैं। इंसान का विचार कोई भी हो, उसे समीक्षा आलोचना से परे नहीं माना जा सकता। ख़ासकर तब जबकि उसके प्रचारक सारी दुनिया में उसका प्रचार कर रहे हों।
धर्म एक है। वसुधा एक है और सारी धरती के लोग एक ही परिवार है और इस परिवार का अधिपति परमेश्वर है। वही एक उपासनीय है और उसी के द्वारा निर्धारित कर्तव्य करणीय हैं, धारणीय हैं। जो बात सही है वह सबके लिए सही है। हवा , रौशनी और पानी सबके लिए एक ही तासीर रखती हैं। जो चीज़ बुरी है वह सबके लिए बुरी है। नशा, ब्याज, दहेज, व्यभिचार और शोषण के सभी रूप हरेक समाज के लिए घातक हैं। अगर पड़ौस में भी कोई अपने बच्चे की पिटाई कर रहा हो तो आस पास के लोग चीख़ पुकार सुनकर मामले को सुलझाने के लिए पहंुचते हैं। उन्हें सज्जन माना जाता है। उनसे कोई नही कहता कि आप दूसरे की चारदीवारी में आ कैसे गए ?
और यहां तो घर-परिवार दूसरा भी नहीं है बल्कि एक ही है। चातुर्मास में जब देवता को सोया हुआ मान लिया जाता है और शादियां बंद हो जाती हैं तो विवाह से जुड़े कामों को भारी धक्का लगता है। फ़र्नीचर वाले, बैंड बाजे वाले, फूल-माला वाले और होटल मालिक सभी बेरोज़गार से हो जाते हैं। छोटे कामगारों के घरों में तो भूखे मरने तक की नौबत भी आ जाती है। इन कामगारों में केवल हिंदू ही नहीं बल्कि मुसलमान भी होते हैं। हिंदू धर्म की मान्यताओं का असर मुसलमान व्यापारियों और कामगारों के धंधे पर भी पड़ता है और उनके आर्थिक विकास पर भी। जो चीज़ प्रभावित करती है, वह खुद ब खुद आकर्षित करती है। आज भारत में सती प्रथा आदि बहुत सी रस्में नहीं हैं। जिन्हें शूद्र माना जाता था, अछूत माना जाता था। आज उन्हें बराबर का इंसान माना जाता है।
भारतीय समाज में इस तब्दीली के पीछे मुस्लिम और ईसाई समाज का प्रभाव और संरक्षण एक ऐतिहासिक तथ्य है, जिसे कोई भी प्रबुद्ध आदमी झुठला नहीं सकता। मुस्लिम और ईसाई समाज पर भी हिंदू दर्शन और संस्कृति का प्रभाव अंकित है। यह लेन-देन, सोच-विचार और सहयोग-संघर्ष हमेशा से होता आया है और आज भी जारी है। यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। इसे रोका नहीं जा सकता। ईश्वर नज़र न आने के बावजूद मनुष्य को ऐसे ही पढ़ाता-सिखाता और बढ़ाता आ रहा है, यहां तक कि वह उसे चांद पर ले गया और अभी उसे वह सितारों तक ले जाएगा और कहते हैं कि सितारों से आगे जहां और भी हैं।
एंटी मैटर भी दरयाफ़्त कर लिया गया है।
इस प्रक्रिया को रोकना तो मुमकिन नहीं है लेकिन यह मुमकिन है कि हम संघर्ष में किस पक्ष की ओर हैं। सत्य और ज्ञान की ओर या असत्य और अज्ञान की ओर।
आप मौत की आंखों में आंखें डालकर लौटे हैं। अब आपको मान लेना चाहिए कि आपका और मेरा वास एक ही चारदीवारी के अंदर है और मैं आपके लिए ग़ैर नहीं हूं। आपका वास जन्नत में होगा और वहां भी मैं आपके साथ ही रहूंगा, इंशा अल्लाह !
आप विद्वान हैं सचमुच में। आपको इशारा ही काफ़ी है। ज़्यादा कहना सूरज को दिया दिखाने के समान है। अगर मेरी बात में आपको कोई ग़लती लगे तो प्लीज़ आप उसे सही कर दीजिएगा। मैं आपकी बात क़ुबूल कर लूंगा क्योंकि जो सही है , धर्म वही है। आपकी बात मानने से मेरा धर्म बदल नहीं जाएगा बल्कि मैं धर्म के कमतर स्तर से उच्चतर स्तर पर आ जाऊंगा।
आशा है आप मेरे उत्थान में दिलचस्पी लेंगे और यह सोचकर मुझे तज नहीं देंगे कि यह तो दूसरे घर का है। बहुत से घरों की विभाजनकारी और विध्वंसक कल्पना का अब अंत हो ही जाना चाहिए। कम से कम आप जैसे विद्वानों के हाथ से ही यह संभव भी है।
सादर !
मालिक से दुआ है कि वह आपका और सतीश जी का साया हम पर देर तक बनाए रखे।
आमीन !
तथास्तु !!
एक लेख पर आप नज़र डाल लेंगे तो मैं आपका आभारी होऊंगा।
1-  Islam is Sanatan . सनातन है इस्लाम , मेरा यही पैग़ामby Anwer Jamal 
 2- Father Manu मैं चैलेंज करता हूँ कि पूरी दुनिया में कोई एक ही आदमी यह साबित कर दे कि मनु ने ऊँच नीच और ज़ुल्म की शिक्षा दी है , है कोई एक भी विद्वान ? Anwer Jamal

http://ahsaskiparten.blogspot.com/2010/12/islam-is-sanatan-by-anwer-jamal.html
http://ahsaskiparten.blogspot.com/2010/11/father-manu-anwer-jamal_25.html