जब आदमी अपने पैदा करने वाले का हुक्म भुला कर अपनी ख्वाहिशों के पीछे दौड़ने लगता है तो उसका जीवन असंतुलन का शिकार हो जाता है . तब आदमी को चाहिए कि वह अपने मालिक के बताये रास्ते पर लौट आये, जिसने उसे पैदा किया , लेकिन वह ऐसा नहीं करता और अपनी समस्याओं के हल के लिए धर्म के बजाय दर्शन का सहारा लेता है , कोई एक दर्शन का सहारा लेता है तो कोई दूसरे का और कोई तीसरे का . इस तरह सैकड़ों दर्शनों का हुजूम इकठ्ठा हो जाता है और मानव जाति इन दर्शनों को मानने की वजह से सैकड़ों वर्गों में बंट जाती है . अब इन विचारधाराओं में आपस में संघर्ष शुरू हो जाता है और खून की नदियाँ बहा दी जाते हैं .
पुराने मसले हल होने के बजाय हजारों नए मसले और खड़े हो जाते हैं . कुछ लोग तो अपने दर्शन को दर्शन ही कहते हैं लेकिन र कुछ लोग तो यह सितम करते हैं कि अपने दर्शन को धर्म कहने लगते हैं. दार्शनिक मतों में होने वाले झगड़ों को देखकर नादान लोग समझते हैं कि यह सारे झगड़े धर्म करा रहा है . लिहाज़ा अब कुछ लोग नास्तिक हो जाते है और इस तरह एक और दर्शन वुजूद में आ जाता है और मानव जाति के कुछ समस्याएँ और बढ़ जाती हैं . हजारों दर्शनों की भीड़ में ‘धर्म’ के दर्शन दुर्लभ हो जाते हैं , उसका सच्चा बोध दुर्लभ हो जाता है और आज यह सबसे बड़ी समस्या है. जब तक यह समस्या हल न होगी , तब तक कोई समस्या हल होने वाली नहीं है .
समस्या का हल न वामपंथ में है और न ही दक्षिणपंथ में . सारी समस्याओं का हल है ‘मध्यपंथ’ में. ‘मध्य’ में ही संतुलन है . आप संतुलन ढूंढ लीजिये आपको धर्म मिल जायेगा या फिर आप धर्म ढूंढ लीजिये आपको सभ्यता के संतुलन का सूत्र मिल जायेगा . जो यह न दे वह धर्म नहीं है . जो मानव जाति को शांति , कल्याण और विकास न दे वह धर्म नहीं है . जो सबके लिए न हो वह धर्म नहीं है. जो हरेक काल के लिए न हो वह धर्म नहीं है . जो पुराना पड़ जाये वह धर्म नहीं है . धर्म से हट जाना मनुष्य का धर्म नहीं है .
-------------------------------------------------------------------------------
मार्क्सवादी विचारधारा को अपनी बपौती समझते हैं। उनका शुरू से ही यह मत रहा है कि दुनिया या समाज के भीतर जब भी जो भी विचार जाए, उनके रास्ते होकर ही जाए। उनका ये भी मानना रहा है कि बस एक अकेला मार्क्सवाद ही है, जो दुनिया को ‘बेहतर तरीके’ से बदल सकता है। समाज में क्रांति ला सकता है। यानी अगर मार्क्सवाद को अपना लिया तो समझो जीवन सफल हो गया। अगर वादों के सहारे ही जीवन सफल हो रहे होते या दुनिया बदल रही होती या क्रांतियों का संचार हो रहा होता, तो आज हमारे समक्ष यह विकट समय भी न होता! तब समय ही कुछ और होता और इंसान भी कुछ और। लेकिन वे तो हमेशा इसी कोशिश में लगे रहे कि किसी भी तरह से बस उनका वाद स्थापित हो जाए। वाद को स्थापित करने की चिंता जितनी मार्क्सवादियों को सताती रहती है, उनती ही दक्षिणपंथियों को भी। दक्षिणपंथी अपनी अंध-आस्थाओं से बाहर नहीं निकल पाए, तो मार्क्सवादी अपनी घोषित प्रगतिशीलताओं से। वाद की इस लड़ाई में जन की भूमिका क्या रहनी चाहिए इसकी फिक्र करने की कोशिश दोनों में से किसी ने कभी नहीं की।
पुराने मसले हल होने के बजाय हजारों नए मसले और खड़े हो जाते हैं . कुछ लोग तो अपने दर्शन को दर्शन ही कहते हैं लेकिन र कुछ लोग तो यह सितम करते हैं कि अपने दर्शन को धर्म कहने लगते हैं. दार्शनिक मतों में होने वाले झगड़ों को देखकर नादान लोग समझते हैं कि यह सारे झगड़े धर्म करा रहा है . लिहाज़ा अब कुछ लोग नास्तिक हो जाते है और इस तरह एक और दर्शन वुजूद में आ जाता है और मानव जाति के कुछ समस्याएँ और बढ़ जाती हैं . हजारों दर्शनों की भीड़ में ‘धर्म’ के दर्शन दुर्लभ हो जाते हैं , उसका सच्चा बोध दुर्लभ हो जाता है और आज यह सबसे बड़ी समस्या है. जब तक यह समस्या हल न होगी , तब तक कोई समस्या हल होने वाली नहीं है .
समस्या का हल न वामपंथ में है और न ही दक्षिणपंथ में . सारी समस्याओं का हल है ‘मध्यपंथ’ में. ‘मध्य’ में ही संतुलन है . आप संतुलन ढूंढ लीजिये आपको धर्म मिल जायेगा या फिर आप धर्म ढूंढ लीजिये आपको सभ्यता के संतुलन का सूत्र मिल जायेगा . जो यह न दे वह धर्म नहीं है . जो मानव जाति को शांति , कल्याण और विकास न दे वह धर्म नहीं है . जो सबके लिए न हो वह धर्म नहीं है. जो हरेक काल के लिए न हो वह धर्म नहीं है . जो पुराना पड़ जाये वह धर्म नहीं है . धर्म से हट जाना मनुष्य का धर्म नहीं है .
-------------------------------------------------------------------------------
मैंने यह कमेन्ट मशहूर हिंदी लेखक श्री अंशुमाली रस्तौगी जी के निम्न लेख पर किया है . उस लेख का एक अंश यहाँ पेश है :
http://anshu.jagranjunction.com/2011/03/24/%E0%A4%A0%E0%A4%B9%E0%A4%B0%E0%A4%BE-%E0%A4%B9%E0%A5%81%E0%A4%86-%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B8%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A6/
कभी-कभी घोषित प्रगतिशील मार्क्सवादियों से बहस या तर्क करते वक्त मुझे कोफत-सी होने लगती है। मार्क्सवादियों के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि वे अपने आगे किसी की चलने नहीं देते। न ही किसी को कुछ समझते हैं। आपका रूतबा उनकी निगाह में तब तक ठीक बना रहता है, जब तक आपकी सहमति उनकी कथित प्रगतिशील विचारधारा के साथ बनी रहती है, लेकिन जहां भी आपने उनके मत पर असहमति प्रकट की वे तुरंत ही आपको ‘दृष्टिपंथी’ या ‘संघी’ घोषित करने में वक्त नहीं लगाते। पलभर में वे आपको अपना दुश्मन मानने लग जाते हैं। कह सकते हैं कि मार्क्सवादियों की निगाह में हर वो व्यक्ति संघी या फासिस्ट है, जो उनकी विचारधारा से असहमति रखता है।मार्क्सवादी विचारधारा को अपनी बपौती समझते हैं। उनका शुरू से ही यह मत रहा है कि दुनिया या समाज के भीतर जब भी जो भी विचार जाए, उनके रास्ते होकर ही जाए। उनका ये भी मानना रहा है कि बस एक अकेला मार्क्सवाद ही है, जो दुनिया को ‘बेहतर तरीके’ से बदल सकता है। समाज में क्रांति ला सकता है। यानी अगर मार्क्सवाद को अपना लिया तो समझो जीवन सफल हो गया। अगर वादों के सहारे ही जीवन सफल हो रहे होते या दुनिया बदल रही होती या क्रांतियों का संचार हो रहा होता, तो आज हमारे समक्ष यह विकट समय भी न होता! तब समय ही कुछ और होता और इंसान भी कुछ और। लेकिन वे तो हमेशा इसी कोशिश में लगे रहे कि किसी भी तरह से बस उनका वाद स्थापित हो जाए। वाद को स्थापित करने की चिंता जितनी मार्क्सवादियों को सताती रहती है, उनती ही दक्षिणपंथियों को भी। दक्षिणपंथी अपनी अंध-आस्थाओं से बाहर नहीं निकल पाए, तो मार्क्सवादी अपनी घोषित प्रगतिशीलताओं से। वाद की इस लड़ाई में जन की भूमिका क्या रहनी चाहिए इसकी फिक्र करने की कोशिश दोनों में से किसी ने कभी नहीं की।