@ आकांक्षा जी ! हमारी वाणी पर लेख का शीर्षक देखकर आपके ब्लॉग पर आया और आपका पहला लेख पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। यहां आकर निराश नहीं होना पड़ा। आपने सच बात कही, मेरे मन की कही और जो मैं लिखने का इरादा कर रहा था, वह आपकी क़लम से ही सामने आ गया। लोग वास्तव में सुधार के इच्छुक होते तो सुधार की शुरूआत खुद से, अपने घर और अपने गांव से करते। बड़े नेता और अफ़सर बेईमान और भ्रष्ट हैं तो इसका मतलब यह नहीं है कि इस देश के ग़रीब नेक हैं। बड़े लोग अपने दायरे में भ्रष्ट हैं और ग़रीब लोग अपने दायरे में। लोग अपने दायरे में बेईमान और अनुशासनहीन रहते हुए दूसरों पर दबाव बना रहे हैं कि वे ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ बन जाएं। दबाव में सरकार कोई क़ानून बना भी देगी तो भी क्या फ़र्क़ पड़ने वाला है ?
क्या कन्या भ्रूण हत्या और दहेज निषेध के लिए, धोखाधड़ी, हत्या और दीगर तमाम जुर्मों को रोकने के लिए पहले ही क़ानून बने हुए नहीं हैं। इसके बावजूद हर साल क्राइम का ग्राफ़ बढ़ता ही जा रहा है। अन्ना हज़ारे का काम प्रशंसनीय है लेकिन हमें और भी ज़्यादा गहरी नज़र से देखना होगा और खुद को तो बहरहाल बदलना ही होगा।
http://charchashalimanch.blogspot.com/2011/04/anwer-jamal.html
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