Saturday, April 16, 2011

ईश्वर, चमत्कार और धर्म


धर्म का बोध
बी. प्रेमानंद जी की कोशिशों के बारे में जानकर ख़ुशी हुई .
जब गलत चीज़ को धर्म मान लिया जाता है तो उसका अंजाम यही होता है कि जब भी उसे तर्क और विज्ञानं की कसौटी पर परखा जाता है तो उसका पाखण्ड उजागर हो जाता है.
भारत में आम लोगों ने जिन चमत्कारों को धर्म मान लिया है , वास्तव में वे  धर्म कभी थे  ही नहीं . धर्म को यहाँ से लुप्त हुए बहुत अरसा हो चुका है. अब तो यहाँ प्राय: दर्शन और पाखण्ड ही विद्यमान है .
लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि यहाँ कभी धर्म था ही नहीं या आज यहाँ किसी के पास भी धर्म नहीं है.
आज भी यहाँ धर्म भी है और धर्म का चमत्कार भी है .
जो ईश्वरीय चमत्कार हम दिखाते हैं उसकी चेकिंग के लिए हरेक तर्कशील व्यक्ति आमंत्रित है .
आये और  चेक करके देख ले कि उस जैसा चमत्कार वह कैसे दिखा सकता है ?
हम कोशिश करेंगे कि आप लोगों के लिए समय निकालकर  इस चमत्कार को online  भी सामने लाया जाए .
धर्म का एकमात्र  शुद्ध स्रोत भी यही चमत्कार है . इससे जुड़ने के बाद ही मनुष्य को दर्शनों से मुक्ति मिलती और उसे वास्तविक धर्म की प्राप्ति होती है .
हम ईश्वर की चिंतन शक्ति से जन्मे हैं. हमारे मन में जो जन्म लेता है वह ईश्वर नहीं होता बल्कि ईश्वर के बारे में हमारी कल्पना होती है .
हरेक आदमी अपने ज्ञान और सामर्थ्य  के मुताबिक कल्पना करता है और इस तरह बहुत सी कल्पनाएँ वुजूद में आ जाती हैं. इन्हीं के आधार पर मूर्तियाँ और चित्र बना लिए जाते हैं . इन चीज़ों की पूजा शुरू हो जाती है और ठगने वाले लोग इन्हें भोग लगाने के नाम पर फल और शराब  इत्यादि का चढ़ावा मंगवाने लगते हैं . जिसे कम हुआ तो वे खुद खा लेते हैं  और ज्यादा हुआ तो वे उसे  फिर से बाज़ार में बेच लेते हैं . न तो जनता सुधारना चाहती है और न ही ये ठग उसे सुधारना चाहते हैं . यह धर्म नहीं है बल्कि धर्म के नाम पर धंधेबाजी है. खरबों  रुपया हर साल इसमें खप जाता है जिससे कि गरीब भारत की गरीबी में लगातार इजाफा होता जा रहा है . लोगों का समय अलग बर्बाद होता है . इन क्रियाओं से लोगों का नैतिक और चारित्रिक विकास भी नहीं होता . चमत्कार की आशा में वे पुरुषार्थ से भी महरूम रह जाते हैं और धर्म से भी .
बी. प्रेमानंद  जी का जागरूकता अभियान सराहनीय है. कोई सच्चा मिलेगा तो उन्हें धर्म का बोध भी मिल जायेगा .  
आपके ब्लॉग का लिंक 'ब्लॉग कि ख़बरें' पर लगाया गया .
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इस कमेन्ट की पृष्ठभूमि यह लेख है 

भगवान के अवतारों से बचिए!

बी. प्रेमानन्‍द भारत की उन महान शख्सियतों में शामिल हैं, जिन्‍होंने देश से अन्‍धविश्‍वास को मिटाने तथा अम जन को जागरूक करने का बीड़ा उठाया और उसे मूर्त रूप देने के लिए अथक प्रयत्‍न किये। प्रस्‍तुत है उनका एक विस्‍तृत साक्षात्‍कार, जिसमें उन्‍होंने जीवन से जुड़े महत्‍वपूर्ण सवालों के जवाब दिये हैं। 
प्रश्‍न: आप डॉ0 अब्राहम टी कोवूर के उत्‍तराधिकारी कैसे बने?
उत्‍तर: प्रारम्‍भ में मैंने ईश्‍वर और गुरूओं के विषय में जो कुछ पढ़ा, उसपर विश्‍वास कर लिया। मैं प्रत्‍येक सिद्धि हासिल करना चाहता था। 19 वर्ष की आयु में मैं अपने लिए गुरू की खोज में निकल पड़ा। मैं श्री अरबिन्‍दों के पास गया और श्री टैगोर, जो मेरे पिताजी के मित्र थे, उनके पास भी गया था। स्‍वामी रामदास, जिन्‍होंने अपनी पुस्‍तक इन सर्च ऑफ गॉड में बगैर पैसों के भारत भ्रमण कर जिक्र करते हुए लिखा है कि भगवान ने उनकी देखभाल की, मैं भी उन्‍हीं की तरह बिना पैसों के भारत भ्रमण को निकला, पर मैंने किसी भगवान को अपनी मदद करते नहीं पाया, मदद करने वाले सभी इंसान थे। 


मैं कई स्‍वामियों से मिला, जिन्‍होंने मुझे कुण्‍डलिनी के विषय में सिखाना चाहा। कुण्‍डलिनी अथवा सैक्‍स एनर्जी शरीर में योग द्वारा सुशुम्‍ना नाड़ी में शून्‍य पैदा करके ऊपर चढ़ जाती है। वैज्ञानिक भाषा में वीर्य ऊपर चढ़ता है, पर यह नाड़ी कहां है? कहा जाता है यह एक मानसिक नाड़ी है, जो सिर्फ ध्‍यान द्वारा महसूस की जा सकती है, जोकि शुद्ध काल्‍पनिक बात है। सेक्‍स एनर्जी को तंत्र शक्ति में परिवर्तित नहीं किया जा सकता। ब्रह्मचर्य से प्रोटेस्‍ट ग्‍लैण्‍ड में बड़ी पीड़ा होती है। मैंने सारे योगियों और ऋषियों को धोखेबाज पाया। फिर मैं भी जादू के खेलों में रूचि लेने लगा। मैं भी चाहूं तो किसी भी संत या बाबा की तरह खूब सारा धन कमा सकता हूँ। मैं 1500 चमत्‍कार दिखा सकता हूँ, जबकि सामान्‍य सिद्ध पुरूष को 50-60 ही आते हैं। 


1969 के बाद से डॉ0 कोवूर श्रीलंक से आकर चमत्‍कारों का भांडा फोड़ने हेतु कार्यक्रमों का आयोजन करते थे। मैंने ल्‍योर ऑफ मिराकल्‍स नामक एक पुस्‍तक सत्‍य साईं बाबा पर लिखी। प्रकाशकों ने उसे छूने से मना कर दिया। इसलिए मैंने स्‍वयं ही उसका प्रकाशन किया और डा0 कोवूर ने उसका विमोचन किया। उनके साथ उस यात्रा में मैं भी था, क्‍योंकि वे बीमार थे और कई लोग उन्‍हें मार डालना चाहते थे। फिर मैं तार्किक संस्‍था का सदस्‍य बन गया। हम लोग सुदूर गांवों में जाते थे, जहां पर सबसे पहले मैं ध्‍यान आकर्षित करने के लिए अपना शरीर जलाता था, फिर हम अपने लेक्‍चर देते थे। इस तरह से यह शुरूआत हो गयी।  
पूरा लेख देखें : 
http://ts.samwaad.com/2011/04/blog-post_16.html