Monday, December 5, 2011

औरत का मक़ाम


जो दे न सके
वह कंगाल है
पुरूष वह है
जो देता है
न देने वाले भी
अमृत बरसाते हैं
फूटते हैं नए अंकुर
मिलता है संतान सुख
जो कि सबसे बड़ा है
अपने वुजूद की मंज़िल
पाना बड़ा है
औरत को मर्द
यहीं तक पहुंचाता है।
वह न चाहे,
तब भी।
औरत का घर
उसका मक़ाम
यही तो है
कोई छत या दीवार नहीं
कोई धरा या आकाश नहीं।
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आज हमने रश्मि प्रभा जी की रचना पढ़ी तो हमारे मन में यह आया।
क्या आप सहमत हैं ?
पढ़िए आप रश्मि प्रभा जी की रचना का एक अंश

पुरुष और स्त्री


एक स्त्री बचपन से घर का सपना देखती है
दहलीज से आँगन तक
अपनी पायल के मोहक रुनझुन में
वह खुद को तलाशती है
जिम्मेदारियां उसे तीर्थ लगती हैं
सुबह से रात की परिक्रमा में
वह कुछ शब्द चाहती है -
प्यार के
एहसास के
सम्मान के ....
जिससे वह सर्वथा वंचित होती है !
सबकुछ खोकर
एक घर के लिए
साँसों की माला पे अपने घर को ही जपती है
तब तक - जब तक उसकी आँखें शुष्क न हो जाएँ
सोच शमशान न बन जाए .....