Wednesday, February 27, 2013

अग्नि की खोज से पहले हिन्दू मुर्दे को दफ़न किया करते थे

शगुन गुप्ता की पोस्ट '

मौत से भी बुरे हैं रीति रिवाज़ !'

पर एक चर्चा 


Dr. Anwer Jamal का कहना है:

February 24,2013 at 03:18 PM IST
अच्छी पोस्ट के लिये शुक्रिया.
अग्नि की खोज के बाद मनुष्य ने दाह संस्कार करना सीखा। अग्नि की खोज से पहले हिन्दू मुर्दे को दफ़न किया करते थे। बच्चे और सन्यासी को आज भी हिन्दुओं में दफ़न किया जाता था। इसलाम में भी मुर्दे को दफ़न ही किया जाता है और इस तरह का कोई संस्कार नहीं किया जाता।
स्मृति आत्मा में सुरक्षित रहती है। खोपड़ी में घी भर कर जलाने से मुर्दे की स्मृति नष्ट नहीं होती। इसलाम में औरत को बहुत सम्मान से पूरा ढक कर दफ़न किया जाता है। मरने के बाद भी मर्द उसके नग्न शरीर को हाथ नहीं लगाता। मुर्दे की जान पलंग पर ही निकलने देते हैं और उसके अंगों को भी नहीं तोड़ा जाता। एक मुसलमान को जीवन के अंतिम अवसर पर पूरा सम्मान मिलता है और मरने के बाद भी। दफ़न आर्थिक रूप से भी सस्ता पड़ता है। मुर्दे को जलाने में 10 हज़ार रूपये से ज़्यादा ख़र्च आ जाता है जो कि ग़रीब आदमी को क़र्ज़दार बना देता है।
वेदों में दफ़न करने का ज़िक्र भी मौजूद है और आत्मा के इस जगत में आवागमन का कोई वर्णन नहीं है। अग्नि की खोज ने हिन्दुओं के सारे संस्कारों को बदल कर रख दिया है। इससे धर्म का स्वरूप बदल गया है। इसलाम धर्म का मूल स्वरूप है। जिसे इज़्ज़त से मरने की तमन्ना हो, वह इसलामी तरीक़े से दफ़न होने की वसीयत करके जाए।
देखें यह लिंक -
http://en.wikipedia.org/wiki/Islamic_funeral

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(Dr. Anwer Jamal को जवाब )- 
Abhi का कहना है:

February 24,2013 at 04:26 PM IST
गुरु जी, अग्नि की खोज से पेहले भी इस्लाम था क्या?
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(Dr. Anwer Jamal को जवाब )- 
Mangoman Hindustani का कहना है:

February 24,2013 at 10:56 PM IST
डॉक्टर जमाल, जिन्हे सिर्फ और सिर्फ एक भारतीय नागरिक का जीवन और एक भारतीय की ही म्ररत्यूं चाहिये उन्हे कोनसी वसीयत करनी चाहिये? वैसे मेरे विचार से तो ये बात ज्यादा मायने रखती है कि आपके जीवन का अंत चाहे कैसे भी हुआ हो परंतु आप देश के गद्दार की मौत तो नही मारे गये? ना कि आपका अंतिम संस्कार कैसे हुआ? कुछ हिन्दू लोग तो आपने शव को नदी में प्रवाहित भी करते है ताकि जलीय जीवों का भी कुछ भला हो. सर जी, कमियां हर धर्म और मजहब में है जरूरत उनमे सुधार करने की है ना की अपने को दूसरो से महान दिखाने की. क्या आप बता सकते है कि शहीद भगत सिंह के अंतिम संस्कार के तरीके से उनकी महानता पर कोई फर्क पड़ा?
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(Mangoman Hindustani को जवाब )- 
Dr. Anwer Jamal का कहना है:

February 27,2013 at 01:19 PM IST
देश का ग़ददार देश को नुक्सान पहुंचाता है। अगर आप देश को नुक्सान पहुंचाकर मरना नहीं चाहते तो आप देख लीजिए कि वेदों में दफ़न करने और जलाने की दोनों विधियां मौजूद हैं। चिता जलाने में ख़र्च भी ज़्यादा है और इसमें पेड़ भी कटते हैं और ग्लोबल वार्मिंग भी बढ़ती है। जलने से मनुष्य मांस और चरबी व घी जलने की दुर्गंध भी दूर दूर तक फैलती है। राख को नदी में बहाने से यह भी डर है कि कहीं वह बहकर दुश्मन देश की सरहद में न पहुंच जाए और हमारे शरीर की राख पानी में मिलकर उस देश की फ़सल को पुष्ट करे और उस अन्न को खाकर विदेश के सैनिक और आतंकवादी ताक़त पाएं और हमारे देश पर हमला करके उसे नुक्सान पहुंचाएं।
इस नुक्सान से बचने का आसान तरीक़ा केवल दफ़न करना है। शरीर दफ़न होकर अपने ही देश की भूमि का अंग बनेगा। वह जीवों और पेड़ों की खाद्य सामग्री बनेगा। मरकर भी वह हमारे देश की इकोलॉजी को समृद्ध बनाएगा। ताज़ा हवा में सांस लेकर हमारे सैनिक और देशवासी ताक़तवर बनेंगे और दुश्मनों के दांत खटटे करेंगे।
अतः अगर आप एक वफ़ादार की भांति मरना चाहें तो आपका अंतिम संस्कार बहुत महत्व रखता है और दफ़न होना देश के प्रति आपकी वफ़ादारी को प्रमाणित करता है।

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(Dr. Anwer Jamal को जवाब )- 
nirmal का कहना है:

February 24,2013 at 08:34 PM IST
सब से अच्छा पारसियों मे है जो मरने के बाद भी जीव जन्तुयो के काम आते है जो जीवन भर कुदरत के खिलाफ उनको खाते रहे.
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(nirmal को जवाब )- 
Dr. Anwer Jamal का कहना है:

February 27,2013 at 01:05 PM IST
अगर जीवों के खाने के कारण अंतिम संस्कार का तरीक़ा बेहतरीन कहला सकता है तो क़ब्र में भी लाश को जीव ही खाते हैं। मृतक का सम्मान भी बना रहता है।

Friday, February 22, 2013

सूर्य नमस्कार हिन्दू धर्म के किस ग्रंथ में पाया जाता है और इसका प्रचलन हिन्दू समाज में कब हुआ ?


सूर्य नमस्कार के विषय में आदरणीय ब्रजकिशोर जी हमारा संवाद हुआ। उसे यहां पेश किया जा रहा हैं उनकी पोस्ट का लिंक यह है-

सेक्स शिक्षा धर्मनिरपेक्ष तो सूर्यनमस्कार क्या ?


Dr. Anwer Jamal का कहना है:
February 21,2013 at 05:47 PM IST
लोगों की हालत यह है वे बात की हक़ीक़त को नहीं जानते और विरोध करने लग जाते हैं और ऐसा ही समर्थन करने वाले भी करते हैं.
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(Dr. Anwer Jamal को जवाब )- ब्रजकिशोर सिंहका कहना है:
February 21,2013 at 07:42 PM IST
मित्र,आपकी बात सही है लेकिन सिर्फ वैसे लोगों के लिए जो पूर्वाग्रह से ग्रस्त होते हैं और सिर्फ समर्थन के लिए समर्थन या विरोध के लिए विरोध करते हैं और जो लोग निष्पक्ष होकर मामले के गुण-दोष पर विचार नहीं करते.
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(ब्रजकिशोर सिंह को जवाब )- Dr. Anwer Jamalका कहना है:
February 22,2013 at 01:11 PM IST
मित्र, अगर लोग किसी बात को गुण दोष के आधार पर माना करते तो फिर वे अच्छे नेताओं को संसद में भेजते।
अगर आप भी गुण दोष के आधार पर आसन करते तो सूर्य नमस्कार न करके नमाज अदा करते।
सूर्य नमस्कार में सूर्य को नमस्कार है और नमाज में अजन्मे परमेश्वर को नमन है और योग का उददेश्य परमेश्वर से जुड़ना है न कि सूर्य से जुड़ना। सूर्य से लाभ उठाने के लिए धूप में खेलना पर्याप्त है। पातंजलि के योग दर्शन में एक सुखासन के अलावा दूसरा आसन तक नहीं है।
इसके बावजूद आप नमाज नहीं पढेंगे।
क्या यही है गुण दोष का विवेचन करना ?
मेरा उददेश्य आलोचना करना या इल्ज़ाम देना नहीं है। योग और स्वास्थ्य का उददेश्य से सूर्य नमस्कार से पूरा होता हो तो वह किया जाए और उससे वह उददेश्य पूरा न होता हो तो फिर सूर्य नमस्कार क्यों किया जाए ?
मैं प्राणायाम करता हूं।
मैंने योग में औपचारिक प्रशिक्षण के लिए साढ़े तीन वर्ष ख़र्च किये हैं और वैसे पिछले 30 लगाए हैं। शवासन आदि काफ़ी लाभदायक हैं लेकिन सूर्य नमस्कार मनुष्य को वस्तुओं के सामने झुकाता है। वस्तुओं को नमन करना इसलाम में नहीं है।
आप सूर्य नमस्कार की हिमायत कर रहे हैं लेकिन आप यह भी नहीं बता सकते कि यह हिन्दू धर्म के किस ग्रंथ में पाया जाता है और इसका प्रचलन हिन्दू समाज में कब हुआ ?
जानते हों तो बताने की कृपा करें।
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(Dr. Anwer Jamal को जवाब )- ब्रजकिशोर सिंहका कहना है:
February 22,2013 at 02:17 PM IST
मित्र मैं तो पहले ही कह चुका हूँ जिनका सूर्यनमस्कार में विश्वास नहीं हो वे इसे सिर्फ व्यायाम समझ कर कर लें फायदा ही होगा। जहाँ तक नमाज पढ़ने का सवाल है तो ऐसा करने में मुझे कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि मैं भी मानता हूँ कि ईश्वर मूलतः निराकार और निर्गुण है। सूर्य नमस्कार किस पुस्तक में वर्णित है अभी मैं नहीं बता सकता क्योंकि अभी मैंने डेरा बदला है और किताबें अस्त-व्यस्त है।



Tuesday, February 19, 2013

हमारे देश में आतंकवाद किसने पनपाया ?


देश की सुरक्षा से जुड़े मामलों पर भी राजनीति की जा रही है। यह ग़लत है लेकिन ग़लत काम करने वाले ही सदा से राज करते आए हैं।
मुजरिमों को सज़ा देने में भी राजनीति की जा रही है तो फिर न्याय कैसे होगा ?
अन्याय होगा तो आक्रोश पैदा होगा। आक्रोश फूटेगा तो फिर सुरक्षाकर्मी मरेंगे और तब न्याय के लिए जनता में से ही कुछ को सज़ा सुना दी जाएगी। ये मरे या वह, जो अन्याय करता है, वह महफ़ूज़ रहता है। आतंकवाद का मूल यही है। मूल सुरक्षित है। मूल की सुरक्षा हमारा कर्तव्य बना दिया गया है। ऐसा न किया तो संदिग्ध बन जाएगा।
राजनेता बड़े खिलाड़ी हैं। ये राजनीति भले ही दो कौड़ी की करते हों लेकिन अक्ल बहुत ऊँची रखते हैं। 
हमारे देश में आतंकवाद नहीं था। इसे किसने पनपाया ?
जब भी इस सवाल का जवाब ढूंढा जाएगा तो किसी न किसी राजनेता का नाम ही सामने आएगा। आतंकवाद के असल ज़िम्मेदार को कभी सज़ा सुनाई गई हो, ऐसा कोई रिकॉर्ड नहीं है।
प्यादे मारे जा रहे हैं, शाह सलामत है।
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यह कमेंट आदरणीय महेन्द्र श्रीवास्तव जी की पोस्ट पर दिया गया है-

Tuesday, February 12, 2013

जन को सज्जन बनाने वाला केवल धर्म है Dharm


भाई ! असल बात यह है कि नर नारी अपने पैदा करने वाले को भूल चुके हैं। उसे भूलने के बाद कौन किसका हक़ अदा करेगा और क्यों ?
हरेक अपने मन की चाही करेगा और कर ही रहे हैं।
ये सब अपनी बग़ावत की सज़ा भुगत रहे हैं।
इनकी अक्लमंदी इनके किसी काम नहीं आ रही है।
जो जितना पढ़ा लिखा है, आज वह उतना ही बड़ा हैवान है।
जैविक बम बनाने वाले वैज्ञानिक सब पढ़े लिखे हैं।
करो अपनी मनमानी और फिर भुगतो उसका परिणाम।
आपके पूरे लेख में ईश्वर अल्लाह का नाम नहीं आया।
उसका आदेश नहीं आया।
आप केवल सही बात बताएं।
यह न देखें कि लोग तो यह बात नहीं मानेंगे।
नहीं मानेंगे तो न मानें।
उनके मानने को देखकर उनके सामने फ़िलॉसफ़ी न परोसिए।
कल्याण दर्शन से नहीं धर्म से होता है।
धर्म का आम करो।
जन को सज्जन बनाने वाला केवल धर्म है।
हम धर्म को ही समस्या का हल मानते हैं।
यह कमेन्ट निम्न पोस्ट पर -
प्रस्तुतकर्ता DINESH PAREEK 

Friday, February 1, 2013

हमारे देश का नाम भारत क्यों पड़ा?

आदरणीय डा. अरविन्द मिश्रा जी, 
मज़े की बात यह है कि अरब लोग अपनी सुन्दर और प्यारी बेटियों का नाम हिंदा रखते थे . इस नाम की धातु अरबी में 'इंद' है, जो बहुत से रहस्य अनावृत करती है लेकिन अरबों के नज़रिये को किन्हीं वजहों से हमेशा नज़र अंदाज़ कर दिया जाता है.
उस रहस्य को जानने वाले इस नेट जगत में केवल हम हैं. इसीलिये हमने हमेशा कहा है कि हम भौगोलिक दृष्टि से भी हिन्दू हैं और धर्म की दृष्टि से भी. जो भारत देश से अरबों के प्यार का कारण नहीं जानता वह हमारी तरह कभी नहीं कह सकता.
आपकी पोस्ट बात को काफ़ी सुलझा रही है. महर्षि स्वंभू मनु के बारे में थोड़ा और बता देते कि उनकी पत्नी का नाम आद्या है और अथर्ववेद 11,8,7 में यह भी बताया गया है कि मन्यु और आद्या का विवाह वर्तमान पृथ्वी पर नहीं हुआ था बल्कि विगत पृथ्वी पर हुआ, तो यह गुत्थी और ज़्यादा सुलझ जाती.
पूर्वजों को पहचाने बिना उनकी महानता और अपनी प्राकृतिक एकता को पहचानना संभव ही नहीं है. आज हालत यह हो चुकी है कि अधिकतर भारतीय भरत जी को ही नहीं पहचानते . फिर उन्हें मनु का क्या पता कि कौन मनु स्वयंभू थे और कौन से मनु विवस्वत थे ?
देश का महान दुर्भाग्य है कि अपने पूर्वज भरत के बारे में लिख दिया कि वे पागलों की तरह व्यवहार करते थे.
अपने पूर्वजों को हम ढंग से आदर तक न दे पाये.

धन्यवाद.
यह कमेंट देखिये निम्न लाजवाब पोस्ट पर-
प्रस्तुतकर्ता Dr. 
 इस देश का नाम भारत क्यों पड़ा?
 ऋग्वेद में 'भरतों' का बहुत बार उल्लेख है!  दरअसल मनु के वंश में एक प्रतापी राजा भरत हुआ है -मत्स्य पुराण में उल्लेख है -'मनुर्भरत उच्यते' -मनु को ही भरत की संज्ञा दी गयी है . यह कहा गया -'वर्ष तत भारतं स्मृतं' अर्थात मनु से ही भारत नाम आया है . दरअसल ऋग्वेद में जो 'भरताः' नाम  आया है वह मनु के वंशज का है न कि दुष्यंत के बेटे भरत का . आर्यों की दो शाखाएं हैं सूर्यवंशी आर्य और चन्द्र वंशी आर्य .वे भरत जिनके नाम  पर इस देश का नामकरण हुआ उनका सम्बन्ध सूर्यवंशी आर्यों से है न कि चंद्रवंशी आर्यों से ...दुष्यंत चंद्रवंशी आर्य हैं .मजे की बात यह भी है कि राम के भाई भरत भी हैं मगर उनके नाम पर भारत का नाम पड़ा यह भी कहीं उल्लिखित नहीं है।

आतंकवाद कभी इस्लामी नहीं हो सकता


आदरणीय भाई विजय कुमार सिंघल अनजान जी ! अगर वैदिक आतंकवाद या भगवा आतंकवाद कहना अनुचित है तो फिर आप इस्लामी आतंकवाद किस आधार पर कह सकते है ?
‘इस्लामी आतंकवाद‘ एक ग़लत शब्द है
इस्लामी आतंकवाद यह एक शब्द है जिसे पश्चिम के सूदख़ारों ने इस्लाम को बदनाम करने के लिए दिया और दुनिया भर के सूदख़ोरों ने इसे दुहराया। यह लेख पढ़कर पता चला कि दीन की सही समझ न रखने वाले ऐसे लोग भी इसकी चपेट में आ गए हैं जिनके नाम मुसलमानों जैसे हैं। 
‘इस्लाम‘ का एक अर्थ सलामती और शान्ति है। 
‘इस्लामी आतंकवाद‘ का अनुवाद होता है ‘शान्तिवादी आतंकवाद‘।
क्या दुनिया में ‘शान्तिवादी आतंकवाद‘ संभव है ?
जहां शान्ति होगी वहां आतंकवाद नहीं हो सकता और जहां आतंकवाद होगा वहां शान्ति नहीं हो सकती।
अतः ‘इस्लामी आतंकवाद‘ एक ग़लत शब्द है। अपने खंडन के लिए यह शब्द ख़ुद ही गवाह है। 
लेखक को इस बात पर संजीदगी से विचार करना चाहिए।
यह कमेंट देखिये निम्न लेख पर -

हिन्दू आतंकवादी नहीं हो सकते !

विजय कुमार सिंघल 'अंजान'   Sunday January 27, 2013