Thursday, April 28, 2011

खुशामद के रूप


@ शन्नो जी ! गोपालकृष्ण गांधी जी एक प्रशासनिक अधिकारी रह चुके हैं और भारत सरकार के लिए वह ऊंचे पदों पर काम कर चुके हैं। उन्हें अक्सर खुशामदी लोगों से वास्ता पड़ता रहा है और इसीलिए उन्हें खुशामद करने वाले मतलबी लोगों से नफ़रत हो गई है। इस लेख उन्होंने अपने अनुभव को ही बयान किया है। लेकिन खुशामद के कुछ रूप और भी हैं जो कि उनकी नज़र से या तो चूक गए हैं या फिर इस लेख में नहीं आ पाए होंगे।
कोई बच्चा जब दूध पीने से इंकार कर देता है तो मां-बाप उसकी खुशामद करते हैं कि वह दूध पी ले। ज़ाहिर है कि यह ख़ालिस खुशामद होती है लेकिन इसमें अपने बच्चे से नफ़रत करना नहीं पाया जाता। कोई लड़की जब किसी के झूठे प्यार में गिरफ़्तार हो जाती है तो भी उसके मां-बाप उसकी खुशामद करते हैं कि वह उसे अपने दिल से निकाल दे। रूठकर मायके गई बीवी को वापस लाने के लिए उसकी कितनी खुशामद करनी पड़ती है, इसका मुझे तो पता नहीं है और हो सकता है कि डा. श्याम गुप्ता जी को भी इसका पता न हो। बैंक में अनपढ़ लोगों को अपने फ़ॉर्म भरवाने के लिए पढ़े-लिखे लोगों की खुशामद करते हरेक देख सकता है। शादी-विवाह में लंबे-लंबे मंत्र पढ़ने वाले पंडित जी को जल्दी से निपटाने के लिए खुशामद करते हुए भी देखा जा सकता है। ग़र्ज़ यह कि ऐसे बहुत से मौक़े होते हैं जहां खुशामद ज़रूरी होती है और वह कभी एक जायज़ अमल होती है और कभी पसंदीदा भी। खुशामद का मात्र वही रूप घृणित है जहां उसके पीछे सिर्फ़ और सिर्फ़ नाजायज़ लालच पोशीदा हो और खुशामद करने वाले का दिल ख़ैरख्वाही से ख़ाली हो।
आपकी टिप्पणी के लिए आपका शुक्रिया। 
http://ahsaskiparten.blogspot.com/2011/04/praise.html

Wednesday, April 27, 2011

जिन लोगों का ब्लागस्पाट पर ब्लॉग नहीं है, उन्हें ये लोग सम्मानित .क्यों नहीं कर रहे हैं ?


अलबेला जी ! पूरा मामला यह है कि दो अदद ब्लॉगर्स ने बिना मिले पहले तो दो किताबें लिख डालीं और फिर मिलकर अपने गुट के ब्लॉगर्स के गले में गमछा लटकाने का प्रोग्राम तय कर लिया। यह पूरी तरह एक गुटीय ब्लॉगर मीट है जिसे इस तरह प्रचारित किया जा रहा है जैसे कि इसका संबंध हिंदी ब्लॉगिंग के व्यापक हितों से हो। जिन लोगों का ब्लागस्पाट पर ब्लॉग नहीं है, उन्हें ये लोग सम्मानित ही नहीं कर रहे हैं।
क्या दूसरी वेबसाइट पर हिंदी ब्लॉगिंग के लिए कुछ भी रचनात्मक नहीं किया जा रहा है ?
इनकी माफ़ियागिरी को बेनक़ाब करने के लिए ही मैं यह सीरीज़ लिख रहा हूं।
आप आए बहार आई।
शुक्रिया । 
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Tuesday, April 26, 2011

एकजुट हो जाओ जुल्म के खि़लाफ़ Unity is best policy


माही जी ! आपकी तरह मैं भी यहां कुछ अरमान लेकर आया था। हिंदी ब्लॉगिंग का मतलब मैं यही समझता था कि हम अपने विचार दूसरों के साथ शेयर करें और दूसरों के लेख पढ़कर हम लाभ उठाएं लेकिन धीरे-धीरे यह सच्चाई सामने आई कि जिन लोगों को लिखने का ख़ाक पता नहीं है वे यहां बड़े ब्लॉगर बने बैठे हैं और ब्लॉगर्स के चक्रवर्ती सम्राट बनने के चक्कर में हैं। मैंने तुरंत से ही उनकी मुख़ालिफ़त शुरू कर दी तो उन्होंने मेरे धर्म को कोसना शुरू कर दिया और मुझे एक और लड़ाई में उलझा दिया। ताकि मुझ पर अन्य धर्मों का विरोधी होने का ठप्पा लगाया जा सके जिससे नए ब्लॉगर्स मेरी बात पर कान ही न धरें। धीरे-धीरे मैंने ऐसे सभी लोगों के होश ठिकाने लगा दिए और कुछ जगहों पर खुद को पीछे हटा लिया ताकि मैं फ़ालतू में इन बड़े ब्लॉगर्स की साज़िश का शिकार न बनूं। मैं चाहूं तो मैं भी ख़ामोश रह सकता हूं लेकिन मुझसे अन्याय होता देखकर चुप रहा ही नहीं जाता। इस बार मैं देख रहा हूं कि औरत को सरेआम नंगा करने वाले हिंदी व्यंग्यकार अपने यार-दोस्तों की टीम को सम्मानित कर रहे हैं और खुद भी सम्मानित हो रहे हैं।  
एक मशहूर एग्रीकटर की लगभग पूरी टीम को ही अहाने-बहाने से ऑबलाइज   किया जा रहा है। इस तरह औरत के सतीत्व और स्त्रीत्व को अपमानित करने वाले ये लोग तमाशेबाज़ी करके हिंदी ब्लॉग जगत में अपना नाम ऊंचा करने की फ़िराक़ में हैं। अगर ये लोग कामयाब हो गए तो नेकी-बदी और सम्मान-अपमान का पैमाना और उसकी तमीज़ ही ख़त्म हो जाएगी। इस क्राइसिस से बचाने के लिए मुझे अकेले ही आवाज़ उठानी पड़ी वर्ना ऐसा नहीं है कि मैं जोड़-तोड़ करके एक अदद सम्मान हासिल न कर सकता था। ऐसे जुगाड़ और ऐसी तकनीक मुझे भी आती है लेकिन सम्मान मेरा मक़सद नहीं है , मेरा मक़सद तो सत्य है। जो भी काम हो उसमें ईमानदारी और पारदर्शिता हो। अगर इन्होंने कोई सूची जारी कर ही दी थी तो अब पुरस्कार भी उसी के अनुरूप बांटे जाने चाहिएं थे और अगर श्रेष्ठ व्यंग्यकार को अपने द्वारा नंगा फ़ोटो लगाने पर कोई अफ़सोस है तो समस्त हिंदी ब्लॉगर्स से सार्वजनिक रूप से माफ़ी मांग लेते तो बात ख़त्म हो जाती। दूसरी बातों को हम भी नज़रअंदाज़ कर देते।
कार्यक्रम तो इनका होकर रहेगा क्योंकि इन्होंने एक लंबे अर्से से गुटबाज़ी करके एक नेटवर्क बना लिया है लेकिन इनका मज़ा तो ख़राब कर ही दिया जाएगा। जब ये लोग सम्मान सभा में सजकर बैठे हों तब भी इनकी एक नज़र आपकी पोस्ट पर रहनी चाहिए। इससे आइंदा इन पर दबाव बनेगा और ये इस बार की तरह हिंदी ब्लागर्स को मूर्ख बनाकर उन्हें अपमानित करने का साहस नहीं कर पाएंगे।
हमारे अंदर किसी भी मुद्दे पर कितनी भी असहमति क्यों न हो ? लेकिन हमें इनके चैधरीपने के सपने को चकनाचूर करने के लिए आपस में एकजुट होना ही पड़ेगा। जितने भी नए ब्लॉगर्स हैं, जितने ब्लॉगर्स भी गुटबाज़ी से दूर हैं उन्हें एकजुट करने के उद्देश्य से ही ‘हिंदी ब्लॉगर्स फ़ोरम इंटरनेशनल‘ की स्थापना की गई है। जो लोग इस संघर्ष में मेरे साथ आना चाहते हैं यदि वे फ़ोरम में शामिल होना चाहें तो उनका स्वागत है।
http://hbfint.blogspot.com/
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Monday, April 25, 2011

रावण को निंदनीय ही मानना चाहिए Ramayana


गगन शर्मा जी ! आपने मेरे कथन पर मनन किया, इसके लिए मैं आपका आभारी हूं। आप जानते हैं कि आरूषि हत्याकांड हमारे समय की ही घटना है और हज़ारों लोगों ने इसे लिखा भी है। इसके बावजूद हम नहीं जानते कि वास्तव में उस बच्ची के साथ क्या मामला पेश आया था ?
श्री रामचन्द्र जी का काल लगभग 8-9 करोड़ साल पुराना है। कथाकार बाल्मीकि भी उनके समकालीन ही थे। अलग अलग लोगों ने उनके काल की अलग अलग गणना की है। पं. सुरेन्द्र कुमार शर्मा ‘अज्ञात‘ जी ने आज से 12 लाख 96 हज़ार साल पहले उनका काल माना है। बहरहाल जो भी काल माना जाए लेकिन न तो संस्कृत भाषा इतनी पुरानी है और न ही यह रामायण।
इस संबंध में भाषा वैज्ञानिकों की आधुनिक खोज पर भी आप एक नज़र डाल लीजिए।

आपको यह जानकर ताज्जुब होगा कि इसी बाल्मीकि रामायण में बौद्धों की निंदा भी भरी हुई है, जिससे पता चलता है कि यह गौतम बुद्ध के बाद की रचना है। देखिए :
यथा हि चोरः स तथा हि बुद्धः तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि,
तस्माद् हि सः शक्यतमः प्रजानां स नास्तिके नाभिमुखो बुधः स्यात्
                  -अयोध्या कांड, 109, 34
अर्थात जैसे चोर दंडनीय होता है, इसी प्रकार (वेदविरोधी) बुद्ध (बौद्ध मतावलंबी) भी दंडनीय है। तथागत (नास्तिक विशेष) और नास्तिक (चार्वाक) को भी इसी कोटि में समझना चाहिए। इसीलिए प्रजा पर अनुग्रह करने के लिए राजा द्वारा जिस नास्तिक को दंड दिलाया जा सके, उसे चोर के समान दंड दिलाया ही जाए, परंतु जो वश के बाहर हो, उस नास्तिक के प्रति विद्वान ब्राह्ममण कभी उन्मुख न हों, उस से वार्तालाप तक न करें। (देखें श्रीमद् वाल्मीकीय रामायण, हिंदी अनुवाद, पृ. 303, गीता प्रेस गोरखपुर, सं 2033)
इस संबंध में आप सुरेन्द्र कुमार शर्मा जी का एक शोधपरक लेख ‘रामायण की ऐतिहासिकता‘ भी अवश्य देखें, जो कि उनकी पुस्तक ‘क्या बालू की भीत पर खड़ा है हिंदू धर्म ?‘ में संकलित है। उपरोक्त अंश उनकी इसी पुस्तक के पृ. सं. 424 से लिया गया है। यह पुस्तक आप ‘विश्वबुक्स दिल्ली‘ से हासिल कर सकते हैं।
मेरा मानना है कि रावण निंदनीय था तभी तो उसे श्री रामचनद्र जी ने मारा। उसके निंदनीय होने में जो बात भी शक पैदा करे उसे ग़लत समझा जाए। श्री रामचन्द्र जी समता, न्याय और वीरता के गुणों से युक्त थे। जो बात भी उनके इन गुणों के विपरीत जाए, उसे तुरंत ही त्याज्य मान लेना चाहिए। इस प्रकार हम चाहे श्री रामचन्द्र जी की वास्तविक कथा से भले ही परिचित न हो पाएं लेकिन इस प्रकार हम उनका आदर तो ढंग से कर पाएंगे और रामायण के केन्द्रीय पात्रों पर उठने वाली आपत्तियों का निराकरण भी हो जाएगा।
ऐसा मेरा मत है। इससे बेहतर कोई और बात संभव हो तो उसे आप बताएं ताकि मैं उसे मान लूं।
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Sunday, April 24, 2011

जिन्होंने औरत को पूरा नंगा कर दिया, उसे अपमानित ही कर डाला वे नेकनाम कैसे बने घूम रहे हैं ‘सम्मान बांटने का पाखंड‘ रचाते हुए ? Shamefull act

Anwer Jamal , Srinagar , Kashmir
@ आदरणीय भाई खुशदीप सहगल जी ! मैंने आपकी नसीहत को ग़ौर से दो बार पढ़ा, आधे घंटे के अंतराल से। आपने मुझे नसीहत की है जिससे मेरे प्रति आपकी फ़िक्रमंदी का पता चलता है लेकिन आपकी नसीहत पर अमल करने से पहले मुझे अपनी पूरी स्ट्रैटेजी पर ग़ौर करना होगा और आपको भी यह जानना ज़रूरी है कि यह सब आखि़र हो क्यों रहा है ?
हालांकि इसे बयान करने के लिए एक पूरी पोस्ट दरकार है लेकिन संक्षेप में अर्ज़ करता हूं कि ‘मैं न कोई संत हूं और न ही कोई जोकर।‘
संत का काम क्षमा करना होता है और जोकर का हंसाना। मैं जज़्बात से भरा हुआ एक आम आदमी हूं, एक पठान आदमी। पठान का मिज़ाज क़बायली होता है, वह आत्मघाती होता है। वह हर चीज़ भूल सकता है लेकिन वह इंतक़ाम लेना नहीं भूलता। मैं आर्यन ब्लड हूं। इस्लाम को पसंद करने के बावजूद मैं अभी भी इस्लाम के सांचे में पूरी तरह ढल नहीं पाया हूं। अभी मैं अंडर प्रॉसैस हूं। इसी हाल में मैं हिंदी ब्लॉगर बन गया। मेरे दीन का और खुद मेरा तिरस्कार किया गया। एक लंबे अर्से तक सुनामी ब्लॉगर्स मेरी छवि को दाग़दार करते रहे और बाक़ी ब्लॉगर्स मुझे दाग़दार करने वालों की चिलम भरते रहे। ये वही लोग हैं जिन्हें नेकी और नैतिकता का ख़ाक पता नहीं है। जो कुछ मुझे दिया गया है, मैं उसके अलावा उन्हें और क्या लौटा सकता हूं ?
इसीलिए आपको मेरे लेख में आक्रोश मिलेगा, प्रतिशोध मिलेगा, अपमान और तिरस्कार भी मिलेगा, कर्कश स्वर और दुर्वचन भी मिलेगा, टकराव और संघर्ष मिलेगा। आपको मेरे लेख में बहुत कुछ मिलेगा लेकिन असत्य नहीं मिलेगा। ‘छिनाल छिपकली प्रकरण‘ भी ऐसी ही एक घटना है जो कि एक वास्तविक घटना है। औरत को सरेआम नंगा किया गया लेकिन कोई मर्द नहीं आया इसकी निंदा करने। द्रौपदी की साड़ी ज़रा सी खींचने पर तो दुःशासन आज तक बदनाम है और जिन्होंने औरत को पूरा नंगा कर दिया, उसे अपमानित ही कर डाला वे नेकनाम कैसे बने घूम रहे हैं ‘सम्मान बांटने का पाखंड‘ रचाते हुए ?
इस प्रकरण को लेख से निकालने का मतलब है अपने लेख के मुख्य संदेश को निकाल देना, फिर इसमें बचेगा ही क्या ?
इसी संदेश को रूचिकर बनाने के लिए अन्य मसाले भरे गए हैं। जिसे आप एक कंकर की तरह अप्रिय समझ रहे हैं, वास्तव में वही मुद्दे की बात है। हां, अगर वह झूठ हो तो मैं उसे निकाल दूंगा , झूठ से मेरा कोई संबंध नहीं है। अपने विरोधी के खि़लाफ़ भी मैं झूठ नहीं बोलूंगा।
मेरा बहिष्कार करके मेरे विरोधियों ने और उनके सपोर्टर्स ने मेरा क्या बिगाड़ा ?
किसी से कोई रिश्ता बनने ही नहीं दिया कि किसी से कोई मोह होता, किसी के दिल दुखने की परवाह होती। जब किसी को हमारी परवाह नहीं है तो फिर भुगतो अपने कर्मों को। मत आओ हमारे ब्लॉग पर, मत दो हमें टिप्पणियां और फिर भुगतो फिर उसका अंजाम। ऐसा मैं सोचता हूं और जो मैं सोचता हूं वही अपने ब्लॉग पर लिखता हूं।
क्या ब्लॉग पर सच्चाई लिखना मना है ?
इसके बावजूद मेरे दिल में कुछ लोगों के प्यार भी है और सम्मान भी। प्रिय प्रवीण जी के साथ आप और डा. अमर कुमार जी ऐसे ही लोग हैं। डा. अमर कुमार जी के ज्ञान में वृद्धि की कोशिश करना सूरज को दिया दिखाना है और आपको मैं अपना मानता हूं।
आपकी सलाह प्रैक्टिकल दुनिया में जीने का बेहतरीन उपदेश है। मैं इस सलाह की क़द्र करता हूं। महानगरीय जीवन में यह उसूल लोगों की ज़िंदगी में आम है लेकिन मैं एक क़स्बाई सोच वाला आदमी हूं, मेरा माहौल भी आपसे थोड़ा अलग है। इसलिए हो सकता है कि आपकी सलाह पर अमल करने में मुझे कुछ समय लग जाए।
एक नेक सलाह के लिए मैं आपका दिल से आभारी हूं।
शुक्रिया !
http://tobeabigblogger.blogspot.com/2011/04/family-life.html 
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कृपया देखें

कैसा होता है एक बड़े ब्लॉगर का वैवाहिक जीवन ? Family Life

Saturday, April 23, 2011

गांधी जी के ' ब्रह्यचर्य के प्रयोग' Brahmcharya


डॉ० वेद प्रताप वैदिक जी ! आपने लिखा है कि<b>
 वे चाहते थे कि वे स्वेच्छया पूर्णरूपेण नपुंसक बन जाएं, जैसा कि बाइबिल और कुरान में कहा गया है| </b>

और आपने यह भी लिखा कि
<b>भारत लौटकर 15-16 साल बाद गांधी जी ने ब्रह्यचर्य के कुछ ऐसे प्रयोग शुरू कर दिए, जो गांधी के पहले दुनिया में किसी ने नहीं किए|</b>

अब आप खुद सोच सकते हैं कि जब उनसे पहले ब्रह्मचर्य के ऐसे घिनौने प्रयोग किसी ने भी नहीं किये तो फिर उनके प्रयोगों को बाइबिल और कुरआन से जोड़ना क्या शरारतपूर्ण नहीं है ?
 ऐसे प्रयोगों की शिक्षा तो गीता भी नहीं देती जिसके वह मुरीद थे और न ही ऐसे प्रयोग श्रीकृष्ण जी ने किये तब गांधी जी को ऐसे प्रयोग करने कि सूझी कैसे ?
इस्लाम में अजनबी औरतों को ही नहीं बल्कि अपनी माँ बहन को भी नग्न देखना मना है . संतानोत्पत्ति ही यौनक्रिया का एकमात्र मक़सद नहीं है . आनंद और साहचर्य के लिए भी पति पत्नी आपस में एकाकार हो सकते हैं , इस्लाम इसकी इजाज़त देता है और मानवीय प्रकृति के विरुद्ध व्रत लेने को निषिद्ध ठहराता है . इसीलिए इस्लाम में संन्यास भी हराम और वर्जित है . धर्म का पालन सरल है लेकिन जो इस्लाम को नहीं मानता वह अपने लिए नए नए दर्शन घड़ता है . सारी समस्याओं की जड़ यही है कि आदमी अपने मन की करता है और वह अपने मालिक का हुक्म मानने के लिए तैयार नहीं है .
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यह कमेन्ट हमने निम्न लेख पर किया 

गांधी के ब्रह्यचर्य पर नई बहस

2011-04-22 05:57 PM को विचार पर प्रकाशित
जोज़फ लेलीवेल्ड का भला हो कि उनकी वजह से गांधी पर एक बार फिर लंबी-चौड़ी बहस शुरू हो गई है| कृतज्ञ भारत गांधी को सिर्फ हर 2 अक्तूबर या 30 जनवरी को याद करने को मजबूर हो जाता है वरना गांधी अब अजायबघर की वस्तु हो गए हैं| लेलीवेल्ड की पुस्तक ”ग्रेट सोल : महात्मा गांधी एंड हिज़ स्ट्रगल विथ इंडिया” कोई चालू किताब नहीं है| लेलीवेल्ड ने वर्षों के अनुसंधान के बाद यह पुस्तक लिखी है| वे ‘पुलिट्रजर’ जैसे प्रतिष्ठित पुरस्कार के विजेता हैं| वे ‘न्यूयार्क टाइम्स’ के कार्यकारी संपादक भी रह चुके हैं| उन्हें भारत और दक्षिण अफ्रीका में रहकर काम करने का भी अच्छा अनुभव है| उन्होंने अपनी पुस्तक पर लगे प्रतिबंध की कड़ी भर्त्सना की है और इस आरोप को बिल्कुल निराधार बताया है कि उन्होंने गांधी को समलैंगिक या नस्लवादी कहा है| उनका कहना है कि इस तरह के शब्द उनकी पुस्तक में कहीं आए ही नहीं हैं|
लेलीवेल्ड बिल्कुल ठीक हैं| उन्हें उनके शब्दों के आधार पर कोई भी नहीं पकड़ सकता लेकिन उनकी पुस्तक की एक समीक्षा ने उन्हें विवादास्पद बना दिया| एक बि्रटिश अखबार ने इस समीक्षा को आधार बनाकर महात्मा गांधी और उनके शिष्य हरमन कालेनवाख के संबंधों को उछाल दिया| उसने लेलीवेल्ड द्वारा वर्णित तथ्यों की ऐसी वक्र-व्याख्या की कि गांधी एक बार फिर चर्चा के घेरे में आ गए| लेलीवेल्ड ने गांधी और कालेनबाख के संबंधों के बारे में जो भी लिखा है, वह प्रामाणिक दस्तावेजों के आधार पर लिखा है| संपूर्ण गांधी वाड्रमय से उन्होंने कालेनबाख के नाम गांधी के पत्रें को उद्रधृत किया है|
ये हरमन कालेनबाख कौन थे ? कालेनबाख गांधी से दो साल छोटे थे| वे जर्मन-यहूदी थे| वे 1904 में गांधी से मिले| गांधी और कालेनबाख इतने घनिष्ट मित्र् बन गए कि वे एक-दूसरे को दो शरीर और एक आत्मा मानते थे| कालेनबाख ने ही अपनी 1100 एकड़ भूमि गांधीजी को दी थी, जिस पर उन्होंने ”तॉल्सतॉय फार्म” नामक आश्रम खड़ा किया था| वे गांधी से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने ब्रह्यचर्य और शाकाहार का व्रत ले लिया| वे गांधीजी के सत्याग्रहों में जमकर भाग लेते, संगठनात्मक कार्य करते और आश्रम की व्यवस्था भी चलाते| ऐसे दो परम मित्रें के बीच समलैंगिक संबंधों की बात कैसे उठी ?
लेलीवेल्ड ने गांधीजी के पत्रें के कुछ शब्दों को इस तरह उद्रधृत किया कि उनके दोहरे अर्थ लगाए जा सकते हैं| जैसे गांधीजी खुद को ‘अपर चेंबर’ (उच्च सदन) और कालेनबाख को ‘लोअर चेम्बर’ (निम्न सदन) लिखा करते थे| लेलीवेल्ड ने इन दो शब्दों को तो उछाला लेकिन उन्होंने और उनके समीक्षकों ने यह नहीं बताया कि वे ऐसा क्यों लिखते थे ? कालेनबाख ‘लोअर हाउस’ की तरह बजट बनाते थे और गांधीजी ‘अपर हाउस’ की तरह उसमें  कतरब्योंत कर देते थे| इस आर्थिक पदावलि को यौन पदाविल में बदलनेवाले मस्तिष्क को आप क्या कहेंगे ? यह आधुनिक पश्चिमी जीवन-पद्घति का अभिशाप है| इसी तरह गांधी के पत्रें में जगह-जगह कालेनबाख के लिए लिखे गए ”स्नेह और अधिक स्नेह” जैसे शब्दों का भी गलत अर्थ लगाया गया| गांधी द्वारा अपने शयन-कक्ष में रखे गए कालेनबाख के चित्र् को भी उसी अनर्थ से जोड़ा गया| गांधी के  लगभग 200 पत्रें में उन्होंने कालेनबाख से अपने पूर्व-जन्म के संबंधों की बात भी कही है| ये सब बातें किसी भी भौतिकवादी सभ्यता के ढांचे में पले-बढ़े विद्वान या पत्र्कार के लिए अजूबा ही हो सकती हैं| वे यह मानकर चलते हैं कि दो पुरूषों या दो महिलाओं के बीच परम आत्मीयता का भाव रह ही नहीं सकता| यौन संबंधों के बिना आत्मीय संबंध संभव ही नहीं हंंै|
वास्तव में गांधी इतने विलक्षण और इतने अद्वितीय थे कि उन्हें न तो परंपरागत पश्चिमी चश्मों से देखा जा सकता है और न ही परंपरागत भारतीय चश्मों से ! गांधी का सही रूप देखने के लिए मानवता को अपना एक नया चश्मा बनाना पड़ेगा| गांधी ने अपनी आत्म-कथा को ”मेरे सत्य के प्रयोग’ कहा है| यदि वे कुछ वर्ष और जीवित रहते और मेरी उनसे भेंट हो जाती तो मैं उनसे कहता कि आप एक आत्म-कथा और लिखिए और उसका शीर्षक दीजिए ‘मेरे ब्रह्यचर्य के प्रयोग’ ! उनकी यह दूसरी आत्म-कथा भी मानवता की बड़ी सेवा करती| मानव-समाज को तब यह मालूम पड़ता कि दुनिया में महापुरूष तो एक से एक बढ़कर हुए लेकिन गांधी-जैसा कोई नहीं हुआ| पिछले 55 वर्षों में गांधीजी के निजी जीवन पर चार-पांच ग्रंथ आ चुके हैं| जिनमें प्रो. गिरजाकुमार का शोध सर्वश्रेष्ठ है लेकिन अभी इस रहस्यमय मुद्दे पर काफी काम होना शेष है|
कामदेव से कौन पराजित नहीं हुआ ? क्या माओ, क्या लेनिन, क्या हिटलर, क्या आइंस्टीन, क्या कार्ल मार्क्स, क्या सिगमिंड फ्रायड, क्या तॉल्सतॉय, क्या लिंकन, क्या केनेडी और क्या क्लिंटन ? दुनिया के किसी भी बलशाली या धनशाली व्यक्ति का नाम लीजिए और उसके पीछे कोई न कोई रेला निकल आएगा| जिन्हें विभिन्न मज़हब और संप्रदाय अपना जनक कहते हैं और जिन्हें अवतारों और देवताओं की श्रेणी में रखा जाता है, ऐसे महापुरूष भी यौन-पिपासा के शिकार हुए बिना नहीं रहे लेकिन गांधी गजब के आदमी थे, वे 79 साल की उम्र में भी कामदेव से लड़ते रहे और उसे परास्त करते रहे| 37 साल की भरी जवानी में उन्होंने जो ब्रह्यचर्य का व्रत लिया, उसे उन्होंने अंतिम सांस तक निभाया| उन्होंने अपनी यौन-शक्ति का उदात्तीकरण किया| वे ऊर्ध्वरेता बने| जब कभी कुछ लड़खड़ाहट का अंदेशा हुआ, उन्होंने उसे छिपाया नहीं| अपने अति अंतरंग अनुभवों को भी उन्होंने अपने संपादकीय में लिख छोड़ा| वे सत्य के सिपाही थे| यदि मन में सोते या जागते हुए भी कोई कुविचार आया तो उन्होंने उसे अपने साथियों को बताया और उसके कारण और निवारण में वे निरत हुए|
ज़रा याद करें कि अपनी आत्म-कथा में उन्होंने अपनी कामुकता का चित्र्ण कितनी निर्ममता से किया है| उन्होंने अंतिम सांसें गिनते हुए पिता की उपेक्षा किसलिए की ? सिर्फ काम-वासना के वशीभूत होने के कारण ! इस काम-शक्ति ने अंतिम दम तक गांधी का पीछा नहीं छोड़ा| दक्षिण अफ्रीका में सिर्फ कालेनबाख ही नहीं, हेनरी पोलक और उनकी पत्नी मिली ग्राहम तथा उनकी 16 वर्षीय सचिव सोन्या श्लेसिन के साथ गांधी के संबंध इतने घनिष्ट और आत्मीय रहे कि कोई चाहे तो उनकी कितनी ही दुराशयपूर्ण व्याख्या कर सकता है| मिस श्लेसिन को केलनबाख ही गांधीजी के पास लाए थे| गांधीजी ने लिखा है कि श्लेसिन बड़ी नटखट निकली ”लेकिन एक महिने के भीतर ही उसने मुझे वश में कर लिया|” अपने पुरूष और महिला मित्रें के साथ गांधी के संबंध इतने खुले और सुपरिभाषित होते थे कि कहीं किसी प्रकार की मर्यादा-भंग का प्रश्न ही नहीं उठता था| तॉल्सतॉय फार्म और फीनिक्स आश्रम में गांधी जैसे खुद रहते थे, वैसे ही वे अपने अनुयायियों को भी रहने की छूट देते थे| उसका नतीज़ा क्या हुआ ? दोनों स्थानों पर अपि्रय यौन-घटनाएं घटीं| गांधी को विरोधस्वरूप उपवास करना पड़ा| कुछ लोगों को निकालना पड़ा| उनके अपने बेटे को दंडित करना पड़ा| गांधी-जैसे लौह-संयम और पुष्प-सुवास की-सी उन्मुक्त्ता क्या साधारण मनुष्यों में हो सकती है ? इन दो अतियों का समागम गांधी-जैसे अद्वितीय व्यक्ति में ही हो सकता था|
गांधीजी के दबाव में आकर आग्रमवासी ब्रह्यचर्य का व्रत तो ले लेते थे लेकिन वे लंबे समय तक उसका पालन नहीं कर पाते थे| स्वयं कालेनबाख इसके उदाहरण बने| गांधी के बड़े-बड़े अनुयायी वासनाग्रस्त होने से नहीं बचे लेकिन गांधी ने कभी घुटने नहीं टेके| गांधीजी के आश्रमों में रहनेवाले युवक-युवतियों को वे काफी छूट देते थे लेकिन उन पर कड़ी निगरानी भी रखते थे|
जहां तक कालेनबाख का सवाल है, वे उन्हें ‘लोअर चेंबर’ कहकर जरूर संबोधित करते थे लेकिन ऐसे अड़नाम उन्होंने अपने कई अन्य पुरूष और महिला मित्रें को दे रखे थे| रवीद्रनाथ ठाकुर की भतीजी सरलादेवी चौधरानी को वे अपनी ‘आध्यात्मिक पत्नी’ कहा करते थे| बि्रटिश एडमिरल की बेटी मिस स्लेड को उन्होंने ‘मीरा बेन’ नाम दे दिया था| अमेरिकी भक्तिन निल्ला क्रेम कुक को वे ‘भ्रष्ट बेटी’ कहा करते थे| बीबी अमतुस्सलाम को वे ‘पगली बिटिया’ बोला करते थे| दक्षिण अफ्रीका के अपने 21 वर्ष के प्रवास में गांधीजी ने ब्रह्यचर्य की जो शपथ ली, उसके पीछे उद्दीपक कारण उनका जेल का एक भयंकर अनुभव भी था| नवंबर 1907 में ट्रांसवाल की जेल में उन्होंने अपनी आंखों से देखा कि एक चीनी और एक अफ्रीकी कैदी किस तरह पूरी रात वीभत्स यौन-क्रीड़ा करते रहे| उन्हें अपनी रक्षा के लिए पूरी रात जागना पड़ा| संतोनोत्पत्ति के अलावा किसी भी अन्य कारण के लिए किए गए सहवास को वे पाप मानने लगे| इस प्रतिज्ञा का पालन उन्होंने जीवन भर किया| अफ्रीकी कैदियों के दुराचरण को नजदीक से देखने के कारण ही गांधीजी ने जो टिप्पणी कर दी, उसके आधार पर उन्हें नस्लवादी कहना सर्वथा अनुचित है|
दक्षिण अफ्रीकी प्रवास के दौरान उन्होंने ब्रह्यचर्य पर काफी जोर दिया लेकिन भारत लौटकर 15-16 साल बाद गांधीजी ने ब्रह्यचर्य के कुछ ऐसे प्रयोग शुरू कर दिए, जो गांधी के पहले दुनिया में किसी ने नहीं किए| वे स्वयं पूर्ण नग्न होकर नग्न युवतियों और महिलाओं के साथ सोते थे, पूर्ण नग्नावस्था में महिलाओं से मालिश करवाते थे और रजस्वला युवतियों को मां की तरह व्यावहारिक मदद देते थे| गांधीजी के इन प्रयोगों पर राजाजी, विनोबा, कालेलकर, किशोरभाई मश्रूवाला, नरहरि पारेख और डॉ. राजेन्द्रप्रसाद जैसे गांधी-भक्तों ने भी प्रश्न चिन्ह लगाए| गांधीजी के साथी प्रो. निर्मलकुमार बोस ने गांधीजी के इस आचरण पर कड़ी आपत्ति भी की| नोआखली यात्र के दौरान गांधीजी के निजी सचिव आर.पी. परसुराम इतने व्यथित हुए कि उन्होंने पंद्रह  पृष्ठ का पत्र् लिखकर गांधीजी के प्रयोगों का विरोध किया और इस्तीफा दे दिया| फिर भी गांधीजी डटे रहे|
गांधीजी क्यों डटे रहे ? क्योंकि गांधीजी के मन में कोई कलुष नहीं था| वे कामशक्ति पर विजय पाने को अपनी आध्यात्मिकता का चरमोत्कर्ष समझते थे| वे चाहते थे कि वे स्वेच्छया पूर्णरूपेण नपुंसक बन जाएं, जैसा कि बाइबिल और कुरान में कहा गया है| वास्तव में वे उस हद तक पहुंच रहे थे| वे अपनी कुटिया में खिड़की-दरवाजें बंद करके कभी नहीं सोए| वे मालिश भी खुले मैदान में करवाते थे| वे अपनी परीक्षा तो रोज करते ही थे, आम लोगों को भी देखने देते थे कि वे इस परीक्षा में सफल हुए या नहीं| उनके बहुत निकट रहनेवाली लगभग दर्जन भर देसी और विदेशी महिलाओं में से किसी ने भी एक बार भी यह नहीं कहा कि गांधीजी ने कभी कोई कुचेष्टा की है| कुछ महिलाओं और युवतियों को गांधीजी ने अपने से दूर किया, क्योंकि उनमें से विकार के संकेत आने लगे थे| महिलाएं गांधीजी के संग क्यों आती थीं और उन पर क्या प्रतिकि्रया होती थी, यह एक अलग विषय है|
गांधीजी का ब्रह्यचर्य केथोलिक और हिंदू ब्रह्यचर्य से काफी अलग था| सहवास के अलावा उनके यहां दरस-परस-वचन-स्मरण आदि की छूट थी लेकिन पारंपरिक ब्रह्यचर्य के इन अपवादों में कहीं रत्ती भर भी वासना न हो, यह देखना गांधी का काम था| सरलादेवी चौधरानी के साथ चले ‘वासनामय’ प्रेम-प्रसंग को भंग करने के लिए गांधी ने जिस आध्यात्मिक साहस का परिचय दिया, वह बड़े-बड़े साधु-संतों के लिए भी ईर्ष्या का विषय हो सकता है| ऐसे गांधी पर कालेनबाख के हवाले से समलैंगिक होने का संदेह करना अपनी विकृत मानसिकता को गांधी पर आरोपित करना है|
जनसत्ता, 07अप्रैल 2011 : जोज़फ लेलीवेल्ड का भला हो कि उनकी वजह से गांधी पर एक बार फिर लंबी-चौड़ी बहस शुरू हो गई है| कृतज्ञ भारत गांधी को सिर्फ हर 2 अक्तूबर या 30 जनवरी को याद करने को मजबूर हो जाता है वरना गांधी अब अजायबघर की वस्तु हो गए हैं| लेलीवेल्ड की पुस्तक ”ग्रेट सोल : महात्मा गांधी एंड हिज़ स्ट्रगल विथ इंडिया” कोई चालू किताब नहीं है| लेलीवेल्ड ने वर्षों के अनुसंधान के बाद यह पुस्तक लिखी है| वे ‘पुलिट्रजर’ जैसे प्रतिष्ठित पुरस्कार के विजेता हैं| वे ‘न्यूयार्क टाइम्स’ के कार्यकारी संपादक भी रह चुके हैं| उन्हें भारत और दक्षिण अफ्रीका में रहकर काम करने का भी अच्छा अनुभव है| उन्होंने अपनी पुस्तक पर लगे प्रतिबंध की कड़ी भर्त्सना की है और इस आरोप को बिल्कुल निराधार बताया है कि उन्होंने गांधी को समलैंगिक या नस्लवादी कहा है| उनका कहना है कि इस तरह के शब्द उनकी पुस्तक में कहीं आए ही नहीं हैं|  लेलीवेल्ड बिल्कुल ठीक हैं| उन्हें उनके शब्दों के आधार पर कोई भी नहीं पकड़ सकता लेकिन उनकी पुस्तक की एक समीक्षा ने उन्हें विवादास्पद बना दिया| एक बि्रटिश अखबार ने इस समीक्षा को आधार बनाकर महात्मा गांधी और उनके शिष्य हरमन कालेनवाख के संबंधों को उछाल दिया| उसने लेलीवेल्ड द्वारा वर्णित तथ्यों की ऐसी वक्र-व्याख्या की कि गांधी एक बार फिर चर्चा के घेरे में आ गए| लेलीवेल्ड ने गांधी और कालेनबाख के संबंधों के बारे में जो भी लिखा है, वह प्रामाणिक दस्तावेजों के आधार पर लिखा है| संपूर्ण गांधी वाड्रमय से उन्होंने कालेनबाख के नाम गांधी के पत्रें को उद्रधृत किया है| ये हरमन कालेनबाख कौन थे ? कालेनबाख गांधी से दो साल छोटे थे| वे जर्मन-यहूदी थे| वे 1904 में गांधी से मिले| गांधी और कालेनबाख इतने घनिष्ट मित्र् बन गए कि वे एक-दूसरे को दो शरीर और एक आत्मा मानते थे| कालेनबाख ने ही अपनी 1100 एकड़ भूमि गांधीजी को दी थी, जिस पर उन्होंने ”तॉल्सतॉय फार्म” नामक आश्रम खड़ा किया था| वे गांधी से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने ब्रह्यचर्य और शाकाहार का व्रत ले लिया| वे गांधीजी के सत्याग्रहों में जमकर भाग लेते, संगठनात्मक कार्य करते और आश्रम की व्यवस्था भी चलाते| ऐसे दो परम मित्रें के बीच समलैंगिक संबंधों की बात कैसे उठी ?  लेलीवेल्ड ने गांधीजी के पत्रें के कुछ शब्दों को इस तरह उद्रधृत किया कि उनके दोहरे अर्थ लगाए जा सकते हैं| जैसे गांधीजी खुद को ‘अपर चेंबर’ (उच्च सदन) और कालेनबाख को ‘लोअर चेम्बर’ (निम्न सदन) लिखा करते थे| लेलीवेल्ड ने इन दो शब्दों को तो उछाला लेकिन उन्होंने और उनके समीक्षकों ने यह नहीं बताया कि वे ऐसा क्यों लिखते थे ? कालेनबाख ‘लोअर हाउस’ की तरह बजट बनाते थे और गांधीजी ‘अपर हाउस’ की तरह उसमें  कतरब्योंत कर देते थे| इस आर्थिक पदावलि को यौन पदाविल में बदलनेवाले मस्तिष्क को आप क्या कहेंगे ? यह आधुनिक पश्चिमी जीवन-पद्घति का अभिशाप है| इसी तरह गांधी के पत्रें में जगह-जगह कालेनबाख के लिए लिखे गए ”स्नेह और अधिक स्नेह” जैसे शब्दों का भी गलत अर्थ लगाया गया| गांधी द्वारा अपने शयन-कक्ष में रखे गए कालेनबाख के चित्र् को भी उसी अनर्थ से जोड़ा गया| गांधी के  लगभग 200 पत्रें में उन्होंने कालेनबाख से अपने पूर्व-जन्म के संबंधों की बात भी कही है| ये सब बातें किसी भी भौतिकवादी सभ्यता के ढांचे में पले-बढ़े विद्वान या पत्र्कार के लिए अजूबा ही हो सकती हैं| वे यह मानकर चलते हैं कि दो पुरूषों या दो महिलाओं के बीच परम आत्मीयता का भाव रह ही नहीं सकता| यौन संबंधों के बिना आत्मीय संबंध संभव ही नहीं हंंै| वास्तव में गांधी इतने विलक्षण और इतने अद्वितीय थे कि उन्हें न तो परंपरागत पश्चिमी चश्मों से देखा जा सकता है और न ही परंपरागत भारतीय चश्मों से ! गांधी का सही रूप देखने के लिए मानवता को अपना एक नया चश्मा बनाना पड़ेगा| गांधी ने अपनी आत्म-कथा को ”मेरे सत्य के प्रयोग’ कहा है| यदि वे कुछ वर्ष और जीवित रहते और मेरी उनसे भेंट हो जाती तो मैं उनसे कहता कि आप एक आत्म-कथा और लिखिए और उसका शीर्षक दीजिए ‘मेरे ब्रह्यचर्य के प्रयोग’ ! उनकी यह दूसरी आत्म-कथा भी मानवता की बड़ी सेवा करती| मानव-समाज को तब यह मालूम पड़ता कि दुनिया में महापुरूष तो एक से एक बढ़कर हुए लेकिन गांधी-जैसा कोई नहीं हुआ| पिछले 55 वर्षों में गांधीजी के निजी जीवन पर चार-पांच ग्रंथ आ चुके हैं| जिनमें प्रो. गिरजाकुमार का शोध सर्वश्रेष्ठ है लेकिन अभी इस रहस्यमय मुद्दे पर काफी काम होना शेष है|  कामदेव से कौन पराजित नहीं हुआ ? क्या माओ, क्या लेनिन, क्या हिटलर, क्या आइंस्टीन, क्या कार्ल मार्क्स, क्या सिगमिंड फ्रायड, क्या तॉल्सतॉय, क्या लिंकन, क्या केनेडी और क्या क्लिंटन ? दुनिया के किसी भी बलशाली या धनशाली व्यक्ति का नाम लीजिए और उसके पीछे कोई न कोई रेला निकल आएगा| जिन्हें विभिन्न मज़हब और संप्रदाय अपना जनक कहते हैं और जिन्हें अवतारों और देवताओं की श्रेणी में रखा जाता है, ऐसे महापुरूष भी यौन-पिपासा के शिकार हुए बिना नहीं रहे लेकिन गांधी गजब के आदमी थे, वे 79 साल की उम्र में भी कामदेव से लड़ते रहे और उसे परास्त करते रहे| 37 साल की भरी जवानी में उन्होंने जो ब्रह्यचर्य का व्रत लिया, उसे उन्होंने अंतिम सांस तक निभाया| उन्होंने अपनी यौन-शक्ति का उदात्तीकरण किया| वे ऊर्ध्वरेता बने| जब कभी कुछ लड़खड़ाहट का अंदेशा हुआ, उन्होंने उसे छिपाया नहीं| अपने अति अंतरंग अनुभवों को भी उन्होंने अपने संपादकीय में लिख छोड़ा| वे सत्य के सिपाही थे| यदि मन में सोते या जागते हुए भी कोई कुविचार आया तो उन्होंने उसे अपने साथियों को बताया और उसके कारण और निवारण में वे निरत हुए| ज़रा याद करें कि अपनी आत्म-कथा में उन्होंने अपनी कामुकता का चित्र्ण कितनी निर्ममता से किया है| उन्होंने अंतिम सांसें गिनते हुए पिता की उपेक्षा किसलिए की ? सिर्फ काम-वासना के वशीभूत होने के कारण ! इस काम-शक्ति ने अंतिम दम तक गांधी का पीछा नहीं छोड़ा| दक्षिण अफ्रीका में सिर्फ कालेनबाख ही नहीं, हेनरी पोलक और उनकी पत्नी मिली ग्राहम तथा उनकी 16 वर्षीय सचिव सोन्या श्लेसिन के साथ गांधी के संबंध इतने घनिष्ट और आत्मीय रहे कि कोई चाहे तो उनकी कितनी ही दुराशयपूर्ण व्याख्या कर सकता है| मिस श्लेसिन को केलनबाख ही गांधीजी के पास लाए थे| गांधीजी ने लिखा है कि श्लेसिन बड़ी नटखट निकली ”लेकिन एक महिने के भीतर ही उसने मुझे वश में कर लिया|” अपने पुरूष और महिला मित्रें के साथ गांधी के संबंध इतने खुले और सुपरिभाषित होते थे कि कहीं किसी प्रकार की मर्यादा-भंग का प्रश्न ही नहीं उठता था| तॉल्सतॉय फार्म और फीनिक्स आश्रम में गांधी जैसे खुद रहते थे, वैसे ही वे अपने अनुयायियों को भी रहने की छूट देते थे| उसका नतीज़ा क्या हुआ ? दोनों स्थानों पर अपि्रय यौन-घटनाएं घटीं| गांधी को विरोधस्वरूप उपवास करना पड़ा| कुछ लोगों को निकालना पड़ा| उनके अपने बेटे को दंडित करना पड़ा| गांधी-जैसे लौह-संयम और पुष्प-सुवास की-सी उन्मुक्त्ता क्या साधारण मनुष्यों में हो सकती है ? इन दो अतियों का समागम गांधी-जैसे अद्वितीय व्यक्ति में ही हो सकता था| गांधीजी के दबाव में आकर आग्रमवासी ब्रह्यचर्य का व्रत तो ले लेते थे लेकिन वे लंबे समय तक उसका पालन नहीं कर पाते थे| स्वयं कालेनबाख इसके उदाहरण बने| गांधी के बड़े-बड़े अनुयायी वासनाग्रस्त होने से नहीं बचे लेकिन गांधी ने कभी घुटने नहीं टेके| गांधीजी के आश्रमों में रहनेवाले युवक-युवतियों को वे काफी छूट देते थे लेकिन उन पर कड़ी निगरानी भी रखते थे| जहां तक कालेनबाख का सवाल है, वे उन्हें ‘लोअर चेंबर’ कहकर जरूर संबोधित करते थे लेकिन ऐसे अड़नाम उन्होंने अपने कई अन्य पुरूष और महिला मित्रें को दे रखे थे| रवीद्रनाथ ठाकुर की भतीजी सरलादेवी चौधरानी को वे अपनी ‘आध्यात्मिक पत्नी’ कहा करते थे| बि्रटिश एडमिरल की बेटी मिस स्लेड को उन्होंने ‘मीरा बेन’ नाम दे दिया था| अमेरिकी भक्तिन निल्ला क्रेम कुक को वे ‘भ्रष्ट बेटी’ कहा करते थे| बीबी अमतुस्सलाम को वे ‘पगली बिटिया’ बोला करते थे| दक्षिण अफ्रीका के अपने 21 वर्ष के प्रवास में गांधीजी ने ब्रह्यचर्य की जो शपथ ली, उसके पीछे उद्दीपक कारण उनका जेल का एक भयंकर अनुभव भी था| नवंबर 1907 में ट्रांसवाल की जेल में उन्होंने अपनी आंखों से देखा कि एक चीनी और एक अफ्रीकी कैदी किस तरह पूरी रात वीभत्स यौन-क्रीड़ा करते रहे| उन्हें अपनी रक्षा के लिए पूरी रात जागना पड़ा| संतोनोत्पत्ति के अलावा किसी भी अन्य कारण के लिए किए गए सहवास को वे पाप मानने लगे| इस प्रतिज्ञा का पालन उन्होंने जीवन भर किया| अफ्रीकी कैदियों के दुराचरण को नजदीक से देखने के कारण ही गांधीजी ने जो टिप्पणी कर दी, उसके आधार पर उन्हें नस्लवादी कहना सर्वथा अनुचित है| दक्षिण अफ्रीकी प्रवास के दौरान उन्होंने ब्रह्यचर्य पर काफी जोर दिया लेकिन भारत लौटकर 15-16 साल बाद गांधीजी ने ब्रह्यचर्य के कुछ ऐसे प्रयोग शुरू कर दिए, जो गांधी के पहले दुनिया में किसी ने नहीं किए| वे स्वयं पूर्ण नग्न होकर नग्न युवतियों और महिलाओं के साथ सोते थे, पूर्ण नग्नावस्था में महिलाओं से मालिश करवाते थे और रजस्वला युवतियों को मां की तरह व्यावहारिक मदद देते थे| गांधीजी के इन प्रयोगों पर राजाजी, विनोबा, कालेलकर, किशोरभाई मश्रूवाला, नरहरि पारेख और डॉ. राजेन्द्रप्रसाद जैसे गांधी-भक्तों ने भी प्रश्न चिन्ह लगाए| गांधीजी के साथी प्रो. निर्मलकुमार बोस ने गांधीजी के इस आचरण पर कड़ी आपत्ति भी की| नोआखली यात्र के दौरान गांधीजी के निजी सचिव आर.पी. परसुराम इतने व्यथित हुए कि उन्होंने पंद्रह  पृष्ठ का पत्र् लिखकर गांधीजी के प्रयोगों का विरोध किया और इस्तीफा दे दिया| फिर भी गांधीजी डटे रहे| गांधीजी क्यों डटे रहे ? क्योंकि गांधीजी के मन में कोई कलुष नहीं था| वे कामशक्ति पर विजय पाने को अपनी आध्यात्मिकता का चरमोत्कर्ष समझते थे| वे चाहते थे कि वे स्वेच्छया पूर्णरूपेण नपुंसक बन जाएं, जैसा कि बाइबिल और कुरान में कहा गया है| वास्तव में वे उस हद तक पहुंच रहे थे| वे अपनी कुटिया में खिड़की-दरवाजें बंद करके कभी नहीं सोए| वे मालिश भी खुले मैदान में करवाते थे| वे अपनी परीक्षा तो रोज करते ही थे, आम लोगों को भी देखने देते थे कि वे इस परीक्षा में सफल हुए या नहीं| उनके बहुत निकट रहनेवाली लगभग दर्जन भर देसी और विदेशी महिलाओं में से किसी ने भी एक बार भी यह नहीं कहा कि गांधीजी ने कभी कोई कुचेष्टा की है| कुछ महिलाओं और युवतियों को गांधीजी ने अपने से दूर किया, क्योंकि उनमें से विकार के संकेत आने लगे थे| महिलाएं गांधीजी के संग क्यों आती थीं और उन पर क्या प्रतिकि्रया होती थी, यह एक अलग विषय है| गांधीजी का ब्रह्यचर्य केथोलिक और हिंदू ब्रह्यचर्य से काफी अलग था| सहवास के अलावा उनके यहां दरस-परस-वचन-स्मरण आदि की छूट थी लेकिन पारंपरिक ब्रह्यचर्य के इन अपवादों में कहीं रत्ती भर भी वासना न हो, यह देखना गांधी का काम था| सरलादेवी चौधरानी के साथ चले ‘वासनामय’ प्रेम-प्रसंग को भंग करने के लिए गांधी ने जिस आध्यात्मिक साहस का परिचय दिया, वह बड़े-बड़े साधु-संतों के लिए भी ईर्ष्या का विषय हो सकता है| ऐसे गांधी पर कालेनबाख के हवाले से समलैंगिक होने का संदेह करना अपनी विकृत मानसिकता को गांधी पर आरोपित करना है|

लेखक/रचनाकार: डॉ० वेद प्रताप वैदिक

[ लेखक भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं। ] अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विशेषज्ञ की हैसियत से अनेक देशों के राष्ट्राध्यक्षों. प्रधानमंत्रियों और विदेशमंत्रियों से व्यक्तिगत परिचय. अफगानिस्तान के लगभग सभी शीर्षस्थ नेताओं तथा पेशावर स्थित मुजाहिदीन नेताओं से सुदीर्घ परिचय और संवाद. अफगानिस्तान में शांति-स्थापना का विशेष प्रयास. फीजी, मोरिशस, त्र्िनिदाद, सूरिनाम और खाड़ी-देशों के भारतवंशियों के लिए सक्रिय सांस्कृतिक-सामाजिक कार्य. संसार भर की हिन्दी संस्थाओं और हिन्दी विद्वानों से सतत संपर्क| हिंदी को विश्व भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए कृतसंकल्प ! 

Friday, April 22, 2011

हिंदुओं की भावना भड़की है इसलिए उन्‍हें अपना गुस्‍सा निकालने दो।’ -Modi


हिन्दुस्तान अगर आज बाक़ी है तो ऐसे इंसाफ पसंद वीरों के दम से ही बाक़ी है .
ऐसे वीरों पर हज़ार अन्ना कुर्बान , जो अन्याय होते देख कर ठाकरे के खिलाफ बोले तक नहीं .
और संजीव भट्ट  उससे बड़े से डरे नहीं.
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नरेंद्र मोदी की मुश्किलें बढ़ गई हैं। 2002 में हुए दंगों के दौरान गुजरात में तैनात एक आईपीएस अफसर ने आरोप लगाया है कि उस वक्‍त सीएम हाउस में हुई बैठक में मोदी ने दंगाइयों को और उत्‍पात मचाने के लिए छूट देने का फैसला किया था। गुजरात दंगों की जांच में जुटी एसआईटी की नीयत पर भी सवाल उठ खड़े हुए हैं। आरोप है कि एसआईटी ने खुफिया विभाग के अधिकारियों को सीएम द्वारा मीटिंग में दिए गए बयान को दर्ज नहीं करने के लिए अधिकारियों पर दबाव बनाया था।

आईबी में तैनात आईपीएस अफसर संजीव भट्ट ने सुप्रीम कोर्ट में 18 पन्‍ने का एक हलफनामा दायर किया है जिसमें उन्‍होंने मोदी और एसआईटी के बारे में सनसनीखेज खुलासे किए हैं। भट्ट ने एसआईटी पर नरेंद्र मोदी को बचाने का आरोप लगाया है।भट्ट ने हलफनामे में कहा है, ‘27 फरवरी 2002 को सीएम हाउस मे बैठक में मोदी ने अधिकारियों को निर्देश दिए कि हिंदुओं की भावना भड़की है इसलिए उन्‍हें अपना गुस्‍सा निकालने दो।’
भट्ट का आरोप है कि एसआईटी के अधिकारियों ने खुफिया विभाग के अधिकारियों को हकीकत लिखने से मना करने के लिए दबाव डाला। आरोप है कि अधिकारियों का बयान दर्ज करते समय एसआईटी ने असिस्‍टेंट इंटेलिजेंस अफसर केडी पंत को धमकी कि वो मोदी के उस बयान को मत लिखवाएं, नहीं तो गिरफ्तार कर लिए जाएंगे। 

Thursday, April 21, 2011

महापुरुष कभी वर्जित कर्म नहीं करते Relations


श्री कृष्ण जी के बारे में ही नहीं बल्कि हरेक महापुरुष के बारे में बहुत सी ऐसी  बातें मशहूर कर दी गयीं जो कि सच नहीं हैं. राधा का सम्बन्ध श्री कृष्ण जी से जोड़ना भी एक ऐसा ही काम है. इस बहाने पंडों ने रासलीलाएँ रचायीं और आज तक रचा रहे हैं और यह सब काम वे कर रहे हैं महात्मा श्री कृष्ण जी के नाम पर, धर्म के नाम पर. धर्म तो रोकता है पर-स्त्री को ताकने और छूने से भी . तब महात्मा श्री कृष्ण जी ऐसा कैसे कर सकते थे ?
http://blogkikhabren.blogspot.com/2011/04/raavan.html
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कान्यकुब्ज ब्राह्मण अटूट श्रद्धा से पूजा-अर्चना करते हैं रावण की, मध्य प्रदेश के विदिशा जिले के एक गांव “रावण” में Rawan

क्या बता दें ? 
जो न पूजने की चीज़ है वह तक तो यहाँ पुजवा दी ब्राह्मणों ने . तब अपने बाप को कैसे छोड़ देते बिना पुजवाए ?

Wednesday, April 20, 2011

तन के साथ मन भी निर्मल और शांत बनाईए


जल अमृत है . 
ज्ञान को भी अमृत कहते हैं .
जल से तन निर्मल होता है , शांत होता है .
ज्ञान से मन निर्मल होता है, शांत होता है .
जल बाँट रहे हैं तो जल के साथ ज्ञान भी बांटिये 
ताकि तन के साथ मन भी निर्मल और शांत बने.
अच्छा किया और अच्छा ही करते रहिये आप सभी.

http://hbfint.blogspot.com/2011/02/blog-post_4909.html
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गोकुल संस्था जौनपुर का निःशुल्क प्याऊ संचालित


क्या आत्मा कर्मानुसार बार बार पृथ्वी पर जन्म लेती है ? The principle of Karma


जो लोग अपनी मौत को याद रखते हैं वे पाप और अन्याय से बचते हैं यह सही है लेकिन न तो संन्यास लेना ठीक है और न ही कर्मानुसार आत्मा बार बार पृथ्वी पर जन्म लेती है . आवागमन पर हमारा चिंतन आपके लिए उपलब्ध है .
आवागमन महज़ एक मिथकीय कल्पना है Awagaman
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इस ब्लॉग पर विनय बिहारी सिंह जी लिखते हैं. आज उनकी पिछली पोस्ट्स देखीं , जिन पर हमने कमेन्ट दिया था तो पता चला कि उन्होंने हमारे कमेंट्स मिटा डाले हैं .

औरत क्यों सजती-संवरती है ? make up



आप एक मर्द हैं इसीलिए आप औरत की अपेक्षा ख़ुद को ज़्यादा ख़ूबसूरत समझते हैं लेकिन मैं समझता हूँ कि ख़ूबसूरती में दोनों ही बराबर होते हैं । औरत शारीरिक रुप से मर्द से कमज़ोर होती है। इसीलिए अपनी सुरक्षा के प्रति चिंतित रहती है जो कि उसे एक मर्द से ही मिल सकती है । वह सजती है पहले मर्द को पाने के लिए और फिर उसे अपने साथ बनाए रखने के लिए । अपनी और अपने बच्चों की सुरक्षा के लिए ही वह सजती-संवरती है। उसका सजना-संवरना उसकी अक़्लमंदी का सुबूत है । यही वजह है कि इस्लामी शरीअत मर्दों के लिए सोना और रेशम पहनना हराम ठहराती है लेकिन औरतों को इनके इस्तेमाल की इजाज़त देती है । अति बहरहाल हर चीज़ की बुरी होती है । आपने भी जिन बुराईयों की निशानदेही की है , वह एक भयानक असंतुलन के लक्षण हैं , जो कि ख़ुदा के हुक्म को और आख़िरत को भुलाने का अंजाम हैं और इनका निराकरण भी यही है कि लोग आख़िरत को सामने रखें और ख़ुदा के हुक्म पर चलें ।
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Tuesday, April 19, 2011

अलबेला खत्री जी , आप किसी आचार्य को कड़वा कसैला न कहें


संत आ गया है स्पष्टीकरण देने.
सपष्ट किया जाता है कि आचार्य जी ने कविता को पसंद किया और उसे कंठस्थ भी किया . इसके बाद लोगों को सुनाया . प्रवचन कर्ता विषय के अनुसार बहुत से शेर और कविताएँ सुनाते ही हैं , आचार्य जी ने कभी नहीं कहा होगा कि यह रचना मेरी है. पत्रकार अपनी मर्जी से कुछ भी लिख देते हैं , ये न तो जानते हैं और न ही मानते हैं. आप अखबारों से जवाब तलब करें कि जब आचार्य जी ने कहा नहीं है कि यह कविता उनकी रचना है तो आपने लिख कैसे दिया ?
आप शुरू से ही रचना के लिए लड़ते आये हैं , आप लड़िये हम भी आपके साथ है चाहे रचना आपके साथ हो या न हो .
@ मेरे गरीब कवि अलबेला खत्री जी , आप किसी आचार्य  को कड़वा कसैला न कहें .
वे बेचारे तो पहले ही स्वादमुक्त जीवन जी रहे हैं.
http://www.mushayera.blogspot.com/
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Monday, April 18, 2011

ईश्वर और सत्पुरुषों के आदर से ही सत्य की प्राप्ति संभव है Towards The Truth

हजरे अस्वद 
शिव नाम पवित्र है . ईश्वर भी पवित्र है और प्रथम ऋषि शिव भी पवित्र है . सदाचार और पवित्रता ही उनकी शिक्षा थी . जो बात भी सदाचार और पवित्रता के विरुद्ध पाई जाये , उसे उनके बारे में सत्य न माना जाये तो धर्म का सत्य स्वरुप सामने आ जाता है . अपने शोध में मैंने यही पाया है . हमारे पूर्वज हमें ईश्वर से जोड़ते हैं. अगर हम अपने पूर्वजों के सत्यस्वरुप को वास्तव में जान लें तो हम बिना किसी अतिरिक्त साधना के सहज भाव से ही ईश्वर से जुड़ जाते है .हम आपस में भी वास्तव में तभी जुड़ सकते हैं जबकि हम पहले अपने पूर्वजों से सही तौर पर जुड़ जाएँ और उनके बारे में फैलाई गयी गलत बातों का खंडन कर दें . इसी के बाद हमारे लिए उनका अनुकरण कर पाना संभव हो पाता है .
इसी उद्देश्य से मैंने  कुछ लेख लिखे हैं . उनमें से कुछ को मैं यहाँ पाठकों की सुविधा के लिए एक साथ पेश कर रहा हूँ . इसमें अगर किसी  भाई को कोई तथ्य गलत लगता है तो उसे गलत पाए जाने पर तुरंत हटा दिया जायेगा .

हमारे पूर्वज हमें ईश्वर से जोड़ते हैं जो कि कल्याणकारी है The Lord Shiva and First Man Shiv ji
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इस कमेन्ट की पूरी  पृष्ठभूमि जान्ने के लिए देखें :

Sunday, April 17, 2011

शिव और शिव जी के प्रति मेरी मान्यताओं से आपका परिचित होना ज़रूरी है


@ हरीश जी ! यह सवाल आपने ठीक उठाया है कि मैंने यह लेख क्यों आप लोगों के सामने रखा है ?
मैं आपको जवाब दूं उससे पहले आपको शिव के वास्तविक रूप से परिचित होना ज़रूरी है और शिव के प्रति मेरी मान्यताओं से भी, तभी आप जान पाएंगे कि जो हमारा ईश्वर है और जो उसके द्वारा रचित हमारे आदिमाता-आदिपिता हैं, उनका निरादर नित्य कौन और कैसे कर रहा है ?
देखिए मेरी लेख-श्रृंखला और सोचिए कि आपके आरोप सही हैं या ग़लत ?
हमारे पूर्वज हमें परमेश्वर शिव से जोड़ते हैं जो कि कल्याणकारी है The Lord Shiva and First Man Shiv ji
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http://blostnews.blogspot.com/2011/04/blog-post_16.html

Saturday, April 16, 2011

गृहस्थी का बोझ उठाना सबसे बड़ा चमत्कार है Chamatkar

हम तो सारी गृहस्थी का बोझ उठा लेते हैं , जो यह बोझ उठाने से जी चुराते हैं वे पत्थर उठाते घूमते हैं .  

भाई उठाने की चीज़ उठानी चाहिए , कल्याण तो इसी में है .
http://commentsgarden.blogspot.com/2011/04/blog-

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हठयोग के चमत्‍कार: लिंग के द्वारा 80 किलो का पत्‍थर उठाना ।

ईश्वर, चमत्कार और धर्म


धर्म का बोध
बी. प्रेमानंद जी की कोशिशों के बारे में जानकर ख़ुशी हुई .
जब गलत चीज़ को धर्म मान लिया जाता है तो उसका अंजाम यही होता है कि जब भी उसे तर्क और विज्ञानं की कसौटी पर परखा जाता है तो उसका पाखण्ड उजागर हो जाता है.
भारत में आम लोगों ने जिन चमत्कारों को धर्म मान लिया है , वास्तव में वे  धर्म कभी थे  ही नहीं . धर्म को यहाँ से लुप्त हुए बहुत अरसा हो चुका है. अब तो यहाँ प्राय: दर्शन और पाखण्ड ही विद्यमान है .
लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि यहाँ कभी धर्म था ही नहीं या आज यहाँ किसी के पास भी धर्म नहीं है.
आज भी यहाँ धर्म भी है और धर्म का चमत्कार भी है .
जो ईश्वरीय चमत्कार हम दिखाते हैं उसकी चेकिंग के लिए हरेक तर्कशील व्यक्ति आमंत्रित है .
आये और  चेक करके देख ले कि उस जैसा चमत्कार वह कैसे दिखा सकता है ?
हम कोशिश करेंगे कि आप लोगों के लिए समय निकालकर  इस चमत्कार को online  भी सामने लाया जाए .
धर्म का एकमात्र  शुद्ध स्रोत भी यही चमत्कार है . इससे जुड़ने के बाद ही मनुष्य को दर्शनों से मुक्ति मिलती और उसे वास्तविक धर्म की प्राप्ति होती है .
हम ईश्वर की चिंतन शक्ति से जन्मे हैं. हमारे मन में जो जन्म लेता है वह ईश्वर नहीं होता बल्कि ईश्वर के बारे में हमारी कल्पना होती है .
हरेक आदमी अपने ज्ञान और सामर्थ्य  के मुताबिक कल्पना करता है और इस तरह बहुत सी कल्पनाएँ वुजूद में आ जाती हैं. इन्हीं के आधार पर मूर्तियाँ और चित्र बना लिए जाते हैं . इन चीज़ों की पूजा शुरू हो जाती है और ठगने वाले लोग इन्हें भोग लगाने के नाम पर फल और शराब  इत्यादि का चढ़ावा मंगवाने लगते हैं . जिसे कम हुआ तो वे खुद खा लेते हैं  और ज्यादा हुआ तो वे उसे  फिर से बाज़ार में बेच लेते हैं . न तो जनता सुधारना चाहती है और न ही ये ठग उसे सुधारना चाहते हैं . यह धर्म नहीं है बल्कि धर्म के नाम पर धंधेबाजी है. खरबों  रुपया हर साल इसमें खप जाता है जिससे कि गरीब भारत की गरीबी में लगातार इजाफा होता जा रहा है . लोगों का समय अलग बर्बाद होता है . इन क्रियाओं से लोगों का नैतिक और चारित्रिक विकास भी नहीं होता . चमत्कार की आशा में वे पुरुषार्थ से भी महरूम रह जाते हैं और धर्म से भी .
बी. प्रेमानंद  जी का जागरूकता अभियान सराहनीय है. कोई सच्चा मिलेगा तो उन्हें धर्म का बोध भी मिल जायेगा .  
आपके ब्लॉग का लिंक 'ब्लॉग कि ख़बरें' पर लगाया गया .
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इस कमेन्ट की पृष्ठभूमि यह लेख है 

भगवान के अवतारों से बचिए!

बी. प्रेमानन्‍द भारत की उन महान शख्सियतों में शामिल हैं, जिन्‍होंने देश से अन्‍धविश्‍वास को मिटाने तथा अम जन को जागरूक करने का बीड़ा उठाया और उसे मूर्त रूप देने के लिए अथक प्रयत्‍न किये। प्रस्‍तुत है उनका एक विस्‍तृत साक्षात्‍कार, जिसमें उन्‍होंने जीवन से जुड़े महत्‍वपूर्ण सवालों के जवाब दिये हैं। 
प्रश्‍न: आप डॉ0 अब्राहम टी कोवूर के उत्‍तराधिकारी कैसे बने?
उत्‍तर: प्रारम्‍भ में मैंने ईश्‍वर और गुरूओं के विषय में जो कुछ पढ़ा, उसपर विश्‍वास कर लिया। मैं प्रत्‍येक सिद्धि हासिल करना चाहता था। 19 वर्ष की आयु में मैं अपने लिए गुरू की खोज में निकल पड़ा। मैं श्री अरबिन्‍दों के पास गया और श्री टैगोर, जो मेरे पिताजी के मित्र थे, उनके पास भी गया था। स्‍वामी रामदास, जिन्‍होंने अपनी पुस्‍तक इन सर्च ऑफ गॉड में बगैर पैसों के भारत भ्रमण कर जिक्र करते हुए लिखा है कि भगवान ने उनकी देखभाल की, मैं भी उन्‍हीं की तरह बिना पैसों के भारत भ्रमण को निकला, पर मैंने किसी भगवान को अपनी मदद करते नहीं पाया, मदद करने वाले सभी इंसान थे। 


मैं कई स्‍वामियों से मिला, जिन्‍होंने मुझे कुण्‍डलिनी के विषय में सिखाना चाहा। कुण्‍डलिनी अथवा सैक्‍स एनर्जी शरीर में योग द्वारा सुशुम्‍ना नाड़ी में शून्‍य पैदा करके ऊपर चढ़ जाती है। वैज्ञानिक भाषा में वीर्य ऊपर चढ़ता है, पर यह नाड़ी कहां है? कहा जाता है यह एक मानसिक नाड़ी है, जो सिर्फ ध्‍यान द्वारा महसूस की जा सकती है, जोकि शुद्ध काल्‍पनिक बात है। सेक्‍स एनर्जी को तंत्र शक्ति में परिवर्तित नहीं किया जा सकता। ब्रह्मचर्य से प्रोटेस्‍ट ग्‍लैण्‍ड में बड़ी पीड़ा होती है। मैंने सारे योगियों और ऋषियों को धोखेबाज पाया। फिर मैं भी जादू के खेलों में रूचि लेने लगा। मैं भी चाहूं तो किसी भी संत या बाबा की तरह खूब सारा धन कमा सकता हूँ। मैं 1500 चमत्‍कार दिखा सकता हूँ, जबकि सामान्‍य सिद्ध पुरूष को 50-60 ही आते हैं। 


1969 के बाद से डॉ0 कोवूर श्रीलंक से आकर चमत्‍कारों का भांडा फोड़ने हेतु कार्यक्रमों का आयोजन करते थे। मैंने ल्‍योर ऑफ मिराकल्‍स नामक एक पुस्‍तक सत्‍य साईं बाबा पर लिखी। प्रकाशकों ने उसे छूने से मना कर दिया। इसलिए मैंने स्‍वयं ही उसका प्रकाशन किया और डा0 कोवूर ने उसका विमोचन किया। उनके साथ उस यात्रा में मैं भी था, क्‍योंकि वे बीमार थे और कई लोग उन्‍हें मार डालना चाहते थे। फिर मैं तार्किक संस्‍था का सदस्‍य बन गया। हम लोग सुदूर गांवों में जाते थे, जहां पर सबसे पहले मैं ध्‍यान आकर्षित करने के लिए अपना शरीर जलाता था, फिर हम अपने लेक्‍चर देते थे। इस तरह से यह शुरूआत हो गयी।  
पूरा लेख देखें : 
http://ts.samwaad.com/2011/04/blog-post_16.html

Tuesday, April 12, 2011

सनातन धर्म और इसलाम के एकत्व को पहचान लिया जाए तो भारत का उद्धार हो जाएगा Solution

आदरणीय गुरु जी पंडित अयोध्या प्रसाद मिश्र जी ,
84 वर्षीय के साथ एक गोष्ठी में  
@ मित्र आशुतोष ! हिंदू और मुस्लिम एक माता-पिता की संतान हैं और एक ही ईश्वर की रचना हैं। ये सभी प्रेम से उपजते हैं लेकिन जैसे-जैसे बड़े होते जाते हैं, वे प्रेम के बजाय लालच के अधीन हो जाते हैं। लालच से हरेक धर्म-मत रोकता है। जहां भी जुल्म हुआ या हो रहा है, उसके पीछे आपको लालच ही नज़र आएगा। लालच का अंजाम तबाही है, जिसे हम सभी किसी न किसी रूप में भोग रहे हैं। पाकिस्तान का बंटवारा हुआ तो उसके पीछे भी लालच ही था और उससे पहले हिंदू राजाओं ने सैकड़ों हज़ारों टुकड़ों में बार-बार भारत माता को बांटा तो उसके पीछे भी लालच ही था।
लालच को कैसे कंट्रोल किया जाए ?
यह आज की ज्वलंत समस्या है।
लालच ही भ्रष्टाचार कराता है और लालच ही धर्म से विचलित करता है। राष्ट्रवाद लालच को रोकता नहीं है बल्कि बढ़ाता है। जितने लोगों को आप राष्ट्रवादी समझते हैं। आप उनके शादी-ब्याह और रोज़ाना के काम देख लीजिए, उनके कारोबार के अकाउंट्स देख लीजिए, ज़्यादातर आपको टैक्स चोर मिलेंगे।
लालच का ख़ात्मा धर्म करता है। धर्म बताता है कि तुम्हें एक दिन मरना भी है और फिर अपने कर्मों का फल भोगना है, इसलिए लालच से बचो और संयम से रहो। न्याय करो, दया और प्रेम करो। मानव बनो।
हरीश जी का मौजूदा लेख उनके पिछले लेखों की श्रृंखला का ही एक हिस्सा है। उनमें उन्होंने हिंदू धर्म की खूबियों का बयान किया है। अगर आप उन्हें पढ़ लेते तो आपको यह भ्रम न होता कि वे मुसलमानों का तुष्टिकरण कर रहे हैं।
मुसलमान भला उन्हें दे ही क्या सकते हैं ?
जिसे पाने के लिए वे ग़लत लिखेंगे ?
आप हिंदुस्तान के 2 प्रतिशत मुसलमानों को अलक़ायदा आदि का समर्थक किस आधार पर मानते हैं ?
क्या भारत सरकार ने ऐसा कोई सर्वे कराया है या आपने खुद ही अनुमान लगा लिया ?
हमें सारे धर्मों की खिचड़ी नहीं पकानी है और न ही भारतीय मुसलमानों का धर्म शेष विश्व से अलग है और न ही उनके इस्लाम का स्रोत अलग है। मानवता को आज भी अपने प्राचीन धर्म की ज़रूरत है, उसी का नाम सनातन धर्म है। हरेक चीज़ अपने लक्षणों से पहचानी जाती है। जब आप सनातन धर्म के लक्षण और इसलाम के सिद्धांतों का अध्ययन करेंगे तो आप पाएंगे कि दोनों एक ही हैं। इसी एकत्व को पहचान लिया जाए तो भारत का उद्धार हो जाएगा।
कृप्या यह लिंक भी देखें और इसी ब्लॉग पर आपके अध्ययन के लिए काफ़ी कुछ है-
    कमेंट्स गार्डन
हिन्दू कट्टर कैसे........... ?  मेरी नजर में कट्टरता....लेखक-हरीश सिंह 
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इस कमें को आप निम्न लिंक पर देखिये