Sunday, December 30, 2012

ब्लॉगिंग से मोह भंग की मूल वजह बताने में हिचकिचाहट कैसी ?

ब्लॉगिंग से मोह भंग की मूल वजह जो है उसे कहना समझदारी के खिलाफ़ समझ लेने से भी हिन्दी ब्लॉगिंग पर बुरा असर पड़ा है.
See:
डा. टी. एस. दराल साहब अपनी लम्बी पोस्ट में यह मूल वजह कितनी स्पष्ट कर पाए हैं ?
यह देखना आपका काम है .
अंतर्मंथन: 2012 -- ब्लॉगिंग की राह में मज़बूर हो गए --- हिंदी ब्लॉगिंग का कच्चा (चर्चा) चिट्ठा !

अब आप एक छोटी सी पोस्ट भी देखिये,  ब्लॉगिंग छोड़ने से पहले उन्होंने क्या कहा है ?


कमेन्ट माफिया 


आज कल हमारे ब्लॉग जगत पर एक अलग सा माफिया ग्रुप का कब्ज़ा हो गया। इस माफिया ग्रुप का नाम मैंने रखा हैं कमेन्ट माफिया या सी कंपनी भी कह सकते हैं।

कुछ लोगो का आपसी ग्रुप इतना मजबूत हो चूका हैं कि अगर किसी ब्लोगेर ने दादी कि सुनी हुई कहानी भी लिख दी तो ७०- ८० कमेन्ट तो मिल ही जाता हैं। और कुछ ब्लोगेर बंधू तो ऐसे हैं कि सिर्फ महिलावो के ब्लॉग पर ही टिप्पड़ी करेंगे। और कुछ कि तो बात ही अलग हैं।

कुछ बंधू तो nice लिख कर के चलते बनते हैं।

भाई लोग ऐसा क्यों करते हैं। मैंने बहुत से ऐसे ब्लॉग देखे हैं जिनमे बहुत सी अच्छी -अच्छी जानकारी दी गई, होती हैं, धर्म के उपर बहुत से ब्लॉग अच्छी जानकारी देते हैं। समाज के उपर हो या विज्ञानं के उपर लेकिन ऐसे लेख बिना पढ़े ही रह जाते हैं। आज कि राजनितिक हलचल हो या महंगाई , कोई नहीं जाता , बेचारा लिखने वाला भी सोचता हैं कि में क्या लिखू।

में अपनी बात ही कह दू, कि अगर मैं किसी कि बुराई करता नज़र आ जाऊ तो लोग दबा के टिप्पड़ी करेंगे लेकिन अगर कोई अच्छी बात लिखने लगु तो ऐसे लगता हैं कि साली टिप्पड़ी भी नासिक के प्याज के खेते से आ रही हैं।

खैर अब देखता हूँ।

Tuesday, December 18, 2012

बुरे लोगों की बुराई से बचने के लिए अच्छे लोगों को संगठित होकर अच्छे नियमों का पालन करना ही होगा


जब भी कोई ऊपर वाले पर कोई इल्ज़ाम लगाता है तो यह उनके दिल पर क़ियामत की तरह टूटता है जो सत्य जानते हैं। सत्य यह है कि उस पालनहार प्रभु ने किसी पर कोई ज़ुल्म नहीं किया है। उसने मुनष्य को पेड़-पौधों और पशुओं से उच्चतर चेतना दी है। पेड़-पौधे और पशु सभी अपने स्वाभाविक कर्तव्य अंजाम देते हैं लेकिन यह इंसान ही है जो कि अपने अधिकार का ग़लत इस्तेमाल करता है। परस्पर सहयोग के बजाय शोषण कौन करता है ?
यह काम इंसान करता है। 
जो शोषण की शिकायत करता है, वही दूसरे स्तर पर ख़ुद शोषण करता हुआ नज़र आएगा। अपनी बहुओं से दहेज का लालच न रखने वाली और दूसरों का उदाहरण देकर उसके दिल को न जलाने वाली सास ननदें कितनी हैं ?
दहेज हत्या से लेकर कन्या भ्रूण हत्या तक, दर्जनों घिनौने अपराध बिना औरत के सहयोग के संभव ही नहीं हैं।
तांत्रिकों और बाबाओं को अपना रूपया और अपनी अस्मत देने के लिए औरत ख़ुद चलकर उनके डेरे पर जाती है। जो पढ़ी लिखी होने का दंभ रखती हैं और बाबाओं के पास नहीं जातीं, वे हीरोईनें और मॉडल्स बनकर दुनिया के सामने ख़ुद को परोसती हैं। पर्दे के पीछे उनके साथ क्या होता है ?, इसकी कहानियां भी समय समय पर सामने आती रहती हैं। वे तो आग भड़काकर पीछे हट जाती हैं लेकिन क्लिंटन अपने ऑफ़िस की किसी न किसी लेविंस्की को थाम ही लेता है। लेविंस्की न मिले तो अपने ब्वायफ़्रेंड के साथ देर रात अकेले घूमती हुई कोई आधुनिका ही सही। जागरूक शिक्षित कन्याएं आजकल गर्भनिरोधक गोलियां खा रही हैं और लिव इन रिलेशनशिप में रहकर अपनी मर्ज़ी से अपना शोषण करवा रही हैं।
ईश्वर की एक निर्धारित व्यवस्था है,  जिसका नाम सब जानते हैं। जब आदमी या औरत उससे बचकर किसी और मार्ग पर निकल जाए तो फिर वह जिस भी दलदल में धंस जाए तो उसके लिए वह ईश्वर को दोष न दे बल्कि ख़ुद को दे और कहे कि मैं ही पालनहार प्रभु के मार्गदर्शन को छोड़कर दूसरों के दर्शन और अपनी कामनाओं के पीछे चलता रहा।
अल्लाह तो लोगों पर तनिक भी अत्याचार नहीं करता, किन्तु लोग स्वयं ही अपने ऊपर अत्याचार करते है (44) जिस दिन वह उनको इकट्ठा करेगा तो ऐसा जान पड़ेगा जैसे वे दिन की एक घड़ी भर ठहरे थे। वे परस्पर एक-दूसरे को पहचानेंगे। वे लोग घाटे में पड़ गए, जिन्होंने अल्लाह से मिलने को झुठलाया और वे मार्ग न पा सके (45)
सूरा ए यूनुस आयत 44 व 45
See: 

आदमी आज भी वही है जोकि वह आदिम युग में था। समय के साथ साधन बदलते हैं लेकिन प्रकृति नहीं बदलती। बुरे लोगों की बुराई से बचने के लिए अच्छे लोगों को संगठित होकर अच्छे नियमों का पालन करना ही होगा। इसके सिवाय न पहले कोई उपाय था और न आज है।

दीन के नाम पर दुकानदारी करने वाले मुल्लाओं की एक कारस्तानी The Sin

इसलाम एक चेतना है, क़ुरआन व सीरत पढ़कर इसे अपने अंदर ख़ुद जगाना पड़ता है। यह चेतना न जागे तो इसलाम महज़ कुछ निर्जीव परम्पराओं का समूह बन कर रह जाता है और जाहिल लोग इसलाम का नाम लेकर अपनी चौधराहट क़ायम कर लेते हैं। लोग इन्हें अपना नेता, पीर और क़ाज़ी समझते हैं। ये लोग उन ग़रीबों से भी धन ऐंठ लेते हैं, जिन्हें कि ज़कात व सदक़ा दिया जाना चाहिए। आम मुसलमान को क़ुरआन, मदरसे और मस्जिद से अक़ीदत (श्रद्धा) होती है। ये मुफ़्तख़ोर चौधरी मुसलमानों की अक़ीदत का फ़ायदा उठाते हैं। इसलाम और मुसलमानों को दुनिया में बदनाम करने वाले यही हैं। मुईनुददीन और मरियम का वाक़या ऐसे ही ज़रपरस्तों को बेनक़ाब करता है.
Source : http://sohrabali1979.blogspot.in/2012/11/blog-post_12.html

इस्लाम को कलंकित करने वाला फरमान

ऐसा लगता है कि आजकल इस्लाम को बदनाम करने का ठेका स़िर्फ मुसलमानों ने ले रखा है. न स़िर्फ दुनिया के तमाम देशोंबल्कि भारत से भी अक्सर ऐसे समाचार मिलते रहते हैंजिनसे इस्लाम बदनाम होता है और मुसलमानों का सिर नीचा होता है. कभी बेतुके फतवे इस्लामी तौहीन का कारण बनते हैं तो कभी तालिबानी पंचायती फरमान. पिछले दिनों ऐसी ही एक शर्मनाक ख़बर उत्तर प्रदेश के लखीमपुर ज़िले से मिलीजिसके अनुसारवहां के सलेमपुर की एक मुस्लिम पंचायत ने गांव के एक बुज़ुर्ग दंपत्ति का सामाजिक बहिष्कार करने की घोषणा की है. बताया जाता है कि लगभग 1000 की मुस्लिम आबादी वाले इस गांव में मोइनुद्दीन एवं मरियम नामक एक ग़रीब बुज़र्ग दंपत्ति अपने झोपड़ीनुमा कच्चे मकान में रहते हैं और टॉफीनमक एवं बिस्कुट जैसी सस्ती चीज़ें बेचकर जीवनयापन करते हैं. इनकी ग़रीबी का आलम यह है कि ये अपने चंद मवेशियों के लिए घास-चारा और ईंधन के लिए लकड़ी आदि दूरदराज़ के खेतों से इकट्ठा करते हैं. इनके रहन-सहन से ही इनकी आर्थिक हैसियत का आसानी से अंदाज़ा लगाया जा सकता है.
इसी गांव के मुसलमानों ने अपनी एक मुस्लिम पंचायत अर्थात अंजुमन बना रखी है. गांव में एक मदरसा निर्माणाधीन हैजिसके लिए स्थानीय एवं बाहरी लोगों से चंदा इकट्ठा किया जा रहा है. अंजुमन द्वारा मोइनुद्दीन एवं मरियम से भी मदरसे के चंदे के रूप में पांच सौ रुपये की मांग की गई. इस ग़रीब दंपत्ति ने अपनी दयनीय आर्थिक स्थिति के मद्देनज़र चंदा देने में असमर्थता व्यक्त कर दी. बस फिर क्या थामोइनुद्दीन तो इस पंचायत की नज़र में इस्लाम का सबसे बड़ा दुश्मन बन गया. अंजुमन ने मोइनुद्दीन के सामाजिक-आर्थिक बहिष्कार की घोषणा कर दी. उसकी ख़स्ताहाल झोपड़ी के बाहर एक बोर्ड लगा दिया गया कि गांव का कोई भी व्यक्ति मोइनुद्दीन की दुकान से कोई सामान नहीं ख़रीदेगाकोई उससे किसी प्रकार का बर्तावव्यवहार एवं वास्ता नहीं रखेगा. यदि किसी ने अंजुमन के आदेश का उल्लंघन किया तो उसे 500 रुपये बतौर ज़ुर्माना अदा करने होंगे. तालिबानी फरमान का अंत यहीं नहीं हुआबल्कि इन तथाकथित इस्लामी ठेकेदारों ने इस दंपत्ति को अपने खेतों में शौच के लिए जाने पर भी पाबंदी लगा दी. यह आदेश भी जारी कर दिया गया कि मरणोपरांत इस परिवार के किसी व्यक्ति को स्थानीय क़ब्रिस्तान में दफन भी नहीं किया जाएगा. पंचायत के फरमान के बाद इस परिवार को अपनी दो व़क्त की रोटी जुटा पाने में भी दिक्कत पेश आ रही है. गांव की मुस्लिम पंचायत इसकी बदहाली और भुखमरी पर स्वयं को गौरवांवित महसूस कर रही हैवहीं दूसरी तऱफ पड़ोस के एक गांव का सिख परिवार मानवता का प्रदर्शन करते हुए इसे दो व़क्त की रोटी मुहैया करा रहा है.
यह तो था इन तथाकथित इस्लामपरस्तों का तालिबानी फरमानजो इन्होंने यह सोचकर जारी किया कि शायद ये तुगलकी सोच वाले मुसलमान इस्लाम पर बहुत बड़ा एहसान कर रहे हैंपरंतु आइए देखें कि इस्लाम दरअसल इन हालात में क्या सीख देता है. मैं अपने बचपन से कुछ इस्लामी शिक्षाएं वास्तविक इस्लामी दानिश्वरों से सुनता आया हूं. ऐसी ही एक इस्लामी तालीम थी कि पहले घर में चिराग़ जलाओफिर मस्जिद में. इस कहावत का अर्थ क्या हैयही न कि अपनी पारिवारिक ज़रूरतों से अगर पैसे बचें तो फिर अपने ख़ुदा की राह में ख़र्च करें. यह तो क़तई नहीं कि आप ख़ुद या आपके पड़ोसी भूखे रहें और आप मस्जिद या मदरसे के निर्माण कार्य के लिए चंदा देते फिरें. जो लोग इस्लाम में वाजिब कहे जाने वाले हज के नियम से वाक़ि़फ हैंवह यह भलीभांति जानते हैं कि अगर आप क़र्ज़दार हैं और हज कर रहे हैंतो वह भी जायज़ नहीं है. यहां तक कि अगर आप पर अपने बेटों एवं बेटियों की शादी का ज़िम्मा बाक़ी है तो पहले इन पारिवारिक ज़रूरतों को पूरा करने के बाद ही हज किया जा सकता है. अगर आप आर्थिक रूप से सुदृढ़ हैं तो फिर कभी भी हज कर सकते हैं. इसी तरह लगभग सभी इस्लामी कार्यकलापों के लिए यह बताया गया है कि हमेशा चादर के भीतर ही पैर फैलाना है. यहां तक कि फिज़ूलख़र्ची को भी इस्लाम में गुनाह क़रार दिया गया है. अपने को आर्थिक परेशानी में डालकर धर्म पर पैसे ख़र्च करना इस्लाम हरगिज़ नहीं सिखाता. मगर तालिबानी सोच रखने वाले कुछ मुसलमानों ने अपने गढ़े हुए इस्लाम के अंतर्गत फरमान जारी करके दो ग़रीब मुसलमानों को रोजी-रोटी से वंचित कर दिया. वहीं एक सिख परिवार वास्तविक मानवीय इस्लामी एवं सिख धर्म की शिक्षाओं का पालन करते हुए इन्हें दो व़क्त की रोटी मुहैया कराता रहा. क्या यही है इन तालिबानों का इस्लाम?क्या ऐसे फरमान इस्लाम धर्म की वास्तविक शिक्षाओं के अंतर्गत जारी किए जाने वाले फरमान कहे जा सकते हैं?
यह ग़ैर इस्लामी फरमान जारी करने के बाद पंचायत के प्रमुख का कहना था कि यह परिवार नमाज़ नहीं पढ़ताहमारे चंदे मेंख़ुशी और गम मेंहमारे धार्मिक कामों में शरीक नहीं होतालिहाज़ा गांव के लोग इससे अपना वास्ता क्यों रखेंसवाल यह है कि मान लिया जाए कि वह परिवार यदि किसी धार्मिक आयोजन या नमाज़-रोज़े में उनके साथ शरीक नहीं होता तो भी किसी को इस बात का कोई अधिकार नहीं है कि वह ज़ोर-ज़बरदस्ती करके उसके विरुद्ध कोई ऐसा फरमान जारी करे. किसी प्रकार की धार्मिक गतिविधियों में शिरकत करना या न करना किसी भी व्यक्ति का अति व्यक्तिगत मामला है. यदि कोई व्यक्ति धार्मिक कार्यकलापों में हिस्सा लेता है तो वह उसके पुण्य का भागीदार होगा. इसी प्रकार शरीक न होने अथवा नमाज़ आदि अदा न करने पर पाप का भागीदार भी स़िर्फ वही होगा. धर्म प्रचारक या मुल्ला-मौलवी उसे अपनी बात प्यार-मोहब्बत से समझा सकते हैंलेकिन उसका सामाजिक बहिष्कार करनाउसे आर्थिक संकट में डालना या उसके विरुद्ध कोई तालिबानी फरमान जारी करना पूरी तरह ग़ैर इस्लामीग़ैर इंसानी और अधार्मिक है.
दरअसल आज ऐसे तालिबानी सोच रखने वाले मुसलमानों एवं कठमुल्लाओं ने इस्लाम धर्म को बदनाम कर दिया है. चाहे वह अ़फग़ानिस्तान के बामियान प्रांत में महात्मा बुद्ध जैसे विश्व शांति के दूत समझे जाने वाले महापुरुष की मूर्ति को तोप के गोलों से ध्वस्त करने जैसी कायरतापूर्ण कार्रवाई हो या पाकिस्तान में मस्जिदोंदरगाहों एवं धार्मिक जुलूसों में शिरकत करने वाले शांतिप्रिय लोगों की बड़ी संख्या में जान लेना या भारत में कभी बेतुके फतवे जारी करनासलेमपुर गांव जैसा फरमान सुनाया जाना आदि कृत्य शर्मनाकइस्लाम विरोधी और मानवता विरोधी ही नहींबल्कि इस्लाम धर्म की प्रतिष्ठा पर धब्बा लगाने वाले भी हैं. यह कैसी विडंबना है कि उस गांव के तथाकथित मुसलमान एक मुस्लिम परिवार को भूखा-परेशान देखकर ख़ुश हो रहे हैंजबकि एक सिख परिवार उस परेशानहाल मुस्लिम परिवार की भूख और परेशानियां सहन नहीं कर पा रहा और यथासंभव मदद कर रहा है. क्या संदेश देती हैं हमें ऐसी घटनाएंक्या ऐसे फरमानों से इस्लाम का नाम रोशन हो रहा हैयहां एक सवाल यह भी उठता है कि जिस मदरसे की बुनियाद में ऐसे तालिबानी फरमान शामिल होंउन मदरसों से भविष्य में निकलने वाले बच्चों की मज़हबी तालीम क्या हो सकती है और आगे चलकर वही तालीम क्या गुल खिलाएगीइस बात का बड़ी सहजता से अंदाज़ा लगाया जा सकता है. इन कट्टरपंथी तालिबानी सोच के मुसलमानों को उस सिख परिवार से प्रेरणा लेनी चाहिए,जो उनके द्वारा भुखमरी की कगार पर पहुंचाए गए मुस्लिम परिवार को रोटी मुहैया करा रहा है. आज भी देश में हज़ारों ऐसी मिसालें मिलेंगीजिनमें हिंदूमुस्लिम एवं सिख समुदाय के लोग आपस में मिलजुल कर रहते हैं. कहीं हिंदू नमाज़ पढ़ते हैंकहीं रोज़ा रखते हैंकहीं मोहर्रम में ताज़ियादारी करते हैं तो कहीं पीरों-फकीरों की दरगाहों की मुहा़फिज़त करते हैं. इन ग़ैर मुस्लिमों का इस्लामी गतिविधियों की ओर झुकाव की वजह स़िर्फ उदारवादी इस्लामी शिक्षाएं हैंन कि कट्टरपंथी तालिबानी फरमान.
सलेमपुर की घटना से एक बात और ज़ाहिर होती है कि जब इन मुसलमानों का रवैया अपने ही समुदाय के एक परिवार के साथ ऐसा है तो फिर दूसरे समुदाय के प्रति इनसे प्रेम-सद्भाव से पेश आने की उम्मीद कैसी की जा सकती है. प्रभावित परिवार आज इस स्थिति में पहुंच गया है कि बुज़ुर्ग महिला मरियम ने यहां तक कह दिया कि अब हम इनके आगे न झुक सकते हैंन कुछ मांग सकते हैंबल्कि हमें ग़ैर मुस्लिमों के आगे झुकने और उनसे मांगने में कोई हर्ज नहीं है. कितना बेहतर होतायदि यही पंचायत अथवा अंजुमन ग़रीबों को आत्मनिर्भर बनानेउनकी रोज़ी-रोटी और शिक्षा आदि सुनिश्चित करने को तवज्जो देती. बजाय इसके वह लोगों से ज़ोर-ज़बरदस्ती करके चंदा वसूलने और न देने पर उनका सामाजिक-आर्थिक बहिष्कार करने जैसा अधार्मिक कृत्य अंजाम दे रही है. ज़रूरत इस बात की है कि ऐसे अज्ञानी कठमुल्लाओं से इस्लाम धर्म को कलंकित होने से बचाया जाए. क्या ऐसे तुगलकी और तालिबानी फरमान ग़ैर मुस्लिमों को अपनी ओर आकर्षित कर सकेंगेजिनसे मुस्लिम समुदाय का ही कोई परिवार रुसवा और बेज़ार हो जाए. जो इस्लाम सभी धर्मों एवं समुदायोंयहां तक कि पेड़-पौधों के साथ भी मानवता और सद्भाव से पेश आने की बात करता होवह किसी को भूखे रहने के लिए मजबूर करने की तालीम कैसे दे सकता है. इस्लाम में सूदखोरी हराम क्यों क़रार दी गई हैइसीलिए कि किसी व्यक्ति पर नाजायज़ आर्थिक बोझ न पड़े. इस्लाम में दिनोंदिन बढ़ती जा रही ऐसे लोगों की घुसपैठ रोकनी होगी. ऐसे फरमान जारी करने वालों के ख़िला़फ भी सख्त कार्रवाई किए जाने की ज़रूरत हैजैसा सलेमपुर के उस ग़रीब दंपत्ति के साथ वहां की अंजुमन ने किया. यह ग़ैर इस्लामी और अमानवीय हैइसकी जितनी भी घोर निंदा की जाएकम है.
तनवीर जाफरी

Sunday, November 25, 2012

मानव जाति की वास्तविक विडम्बना manav jati

यह बात बिल्कुल सही है कि बहुत सी बातें मौलवी साहिबान और पंडित जी अपने विवेक से बताते हैं और कई  बार ऐसा भी होता है कि धर्म की गददी पर ऐसे स्वार्थी तत्व बैठ जाते हैं जिनका मक़सद परोकपकार और ज्ञान का प्रचार नहीं होता बल्कि शोषण होता है। आज ऐसे तत्व ज़्यादा हैं लेकिन धार्मिक जन भी हैं।
धर्म जीवन की गुणवत्ता बढ़ाता है, जीने की राह दिखाता है। सबको बराबरी और प्रेम की शिक्षा देता है। ईश्वर सबको आनंदित देखना चाहता है। इसीलिए वह मनुष्य का मार्गदर्शन करता है। 
उसके मार्गदर्शन का नाम ही ‘धर्म‘ है, 
अपनी तरफ़ से मनुष्य जो कुछ चलाता है, वह दर्शन है।
दुनिया में दर्शन बहुत से हैं जबकि धर्म केवल एक है और सदा से बस एक ही है।
यही एक धर्म कल्याणकारी है।
लोग अपने स्वार्थ में पड़कर एक धर्म के अनुसार व्यवहार न करके अपने बनाए हुए दर्शनों में चकराते रहते हैं।
मानव जाति की वास्तविक विडम्बना यही है।
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यह कमेंट पल्लवी सक्सेना जी की पोस्ट पर किया गया है-
Link:

Sunday, November 18, 2012

सब एक परमेश्वर की रचना और एक मनु/आदम की संतान हैं

चर्चामंच पर एक पोस्ट 'गैर-मुसलमानों के साथ संबंधों के लिए इस्लाम के अनुसार दिशानिर्देश' का लिंक देने से कुछ फ़िरकापरस्तों नें समस्त चर्चाकारों के ऊपर मूढ़मति और न जाने क्या-क्या होने का आरोप लगाकर वह लिंक हटवा दिया तथा अतिनिम्न कोटि की टिप्पणियों से आदरणीय चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ जी को नवाज़ा।



इस पर हमने कहा है :
@ चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ जी ! सब एक परमेश्वर की रचना और एक मनु/आदम की संतान हैं. सब एक गृह के वासी हैं और मरकर सबको यहाँ से जाना है. इसलिए अच्छा यह है सब एक दुसरे को प्रेम और सहयोग दें. इस से सबको शान्ति मिलेगी और सबके बच्चे एक सुरक्षित वातावरण में पल सकेंगे.
हिन्दुओं को उनका धर्म और गुरु यही बताता है और मुसलामानों को उनका इस्लाम यही सिखाता है.
ऐतराज़ करने वाले भी यह बात जानते हैं लेकिन उनके अपने राजनीतिक स्वार्थ हैं. वे भी हमारे अपने भाई हैं. जल्दी ही वह दिन आएगा जब वे भी ठीक बात कहेंगे. नफरतों की उम्र ज़्यादा नहीं होती.
इसीलिए हमने मुसलामानों से कहा है कि
ऐ मुसलमानो ! हक़ अदा करो

Monday, October 1, 2012

सुनिये मेरी भी....: किया जा रहा है एक धोखा, नाम 'वास्तु' है !...

प्रस्तुतकर्ता प्रवीण शाह 
पर हमारा कमेन्ट-
वस्तु है तो वास्तु भी है.
मकान में हवा और रौशनी का प्रवाह सही हो. पानी की सप्लाई ठीक हो. मालो-ज़र घर के अंतिम कोने में हो और उस कोने की दीवारें मोटी हों . घर की औरतें हर दम उसके पास रहें चाहे वे मोटी हों या पतली हों. किचन बेडरूम से दूर हो और बच्चे बेडरूम से दूर हों . टॉयलेट बाथरूम और पानी बच्चों के पास हो. बच्चे गेट के पास रहें ताकि वे आने जाने वालों पर नज़र रख सकें. इस तरह तिजोरी से गेट तक सब कुछ सुरक्षित रहता है.
यह एक वैज्ञानिक विधि है लेकिन जब इसे ग्रहों से जोड़ दिया गया तो इसका विज्ञान छिप गया और अज्ञान छा गया. ग्रहों से डरने वाले अब अपने मकान के कोनों से भी डरने लगे और पीले बल्ब जलाने लगे.
अगर इनकी अक्ल रौशन हो जाए तो वे जान लेंगे कि वास्तु के अनुसार सही बने हए महलों में रहने वाले राजाओं को भी उनके कुलगुरु मुस्लिम हमलावरों से बचा नहीं पाए जबकि हमलावरों के मकान में दस तरह के वास्तु दोष हुआ करते थे. कुलगुरु खुद न बच पाए. सोमनाथ मंदिर का वास्तु ठीक ही रहा होगा लेकिन फिर भी उसमें रहने वाले गज़नवी की तलवार की भेंट चढ़ गए.
क्यों ?
क्योंकि खुद अपने विचार का वास्तु ठीक न था. 
विचार और कर्म ठीक हों तो वास्तु जैसा भी हो, नफ़ा ही देता है.
चाइनीज़ वास्तु ज्यादा वौज्ञानिक है. उसका ज्ञान भारतीय वास्तु में शामिल कर लिया है और उसका नाम भी न लिया.
अजब इत्तेफ़ाक़ यह है कि जैसे जैसे लोगों में वास्तु का ज्ञान बढ़ रहा है वैसे वैसे महंगाई भी बदती जा रही है.
प्राचीन ज्ञान चाहे चीन का हो या भारत का, उसे अंधविश्वास से अलग कर लिया जाए तो उसका वैज्ञानिक रूप सामने आ जाता है. तब हम उससे लाभ उठा सकते हैं.

Tuesday, September 18, 2012

डिप्रेशन का इलाज है ईश्वर पर विश्वास Depression Treatment


डिप्रेशन या अवसाद नए ज़माने की महामारी है। जब आदमी ज़िंदगी के बारे में ग़ैर हक़ीक़ी नज़रिया अख्तियार करता है और ऐसी अपेक्षाएं पालता है जो हक़ीक़त में पूरी नहीं हो सकतीं। जब ये अपेक्षाएं टूटती हैं तो इंसान को गहराई तक तोड़ कर रख देती हैं। ऐसे में खान पान और उपचार के साथ मन के उपचार की ज़रूरत भी है। मन को ग़ैर हक़ीक़ी नज़रिए के बजाय हक़ीक़त से वाक़िफ़ कराया जाए लेकिन हक़ीक़त का चेहरा भी बहुत भयानक होता है, जिसे देखकर इंसान की चीख़ निकल जाती है। ऐसे में उसे ईश्वर पर विश्वास बहुत बल देता है कि वह ईश्वर मेरा रक्षक और सहायक है, वह अवश्य मेरा कल्याण करेगा, वह अवश्य मेरे दुख दूर करेगा। जिसके पास यह संबल होता है, उसे अवसाद कभी नहीं होता और अगर कभी हो भी जाय तो वह जल्दी ही अवसाद से निकल आता है।


यह कमेंट कुमार राधारमण जी की पोस्ट पर दिया गया है। देखें-

अवसाद और मस्तिष्क


अवसाद या लंबे समय तक बना रहने वाला तनाव मस्तिष्क को सिकोड़ देता है। अमेरिका के येल युनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने शोध अध्ययन में पाया है कि भावनात्मक परिवर्तनों से शरीर पर स्थाई एवं अस्थाई परिवर्तन होते हैं। मस्तिष्क का आकार भी इसी कारण घटता है। 

अवसाद से शरीर में कई रासायनिक परिवर्तन होते हैं। कुछ स्थाई होते हैं तथा कुछ अस्थाई। हाल ही में हुए शोधों से साबित हुआ है कि प्राचीन काल से सकारात्मक सोच रखने की सीख अच्छे स्वास्थ के लिए कितनी जरूरी है। मरीज खुद को तनाव, अवसाद और व्याकुलता से जितना नुकसान पहुँचा सकता है उतना कोई दूसरा नहीं। सकारात्मक विचारों से शरीर की कई ग्रंथियाँ अधिक सक्रिय होकर काम करने लगती हैं। हारमोन्स का यह प्रवाह शरीर को तरोताजा रखता है। नींद भरपूर आती है और जीवन के प्रति रुचि जाग्रत होती है। व्याकुलता, अवसाद और अनिद्रा किसी भी इंसान को ध्वस्त करने की हद तक पहुँचा देने वाले मानसिक रोगों की अवस्थाएँ हैं। इनमें यदि वातावरणजन्य रोग और शामिल हो जाएँ तो जिंदगी ही व्यर्थ लगने लगती है। हमारी सोच पर वातावरण का भी प्रभाव पड़ता है। 

यदि आपको अपने ऑफिस बिल्डिंग की कलर स्कीम अच्छी नहीं लग रही है तो आप बेहद थकान महसूस करेंगे, आपके शरीर में फ्लू जैसे क्षण उभरने लगेंगे। मस्तिष्क पर धुंधलका छा जाएगा। आमतौर पर वातावरणजन्य रोगों में व्याकुलता, अवसाद और अनिद्रा प्रमुखता से उभरते हैं। अवसादग्रस्त होना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। यह जीवनसाथी के विछोह से लेकर प्रिय कुत्ते के मर जाने तक किसी भी कारण से हो सकता है। यह अवस्था कुछ समय तक ही रहती है बाद में आप सामान्य हो जाते हैं। 

देर तक अवसादग्रस्त रहने पर शरीर में बेहद थकान, जीवन के प्रति अरुचि जैसे लक्षण उभरने लगते हैं। कई लोग अवसादग्रस्त या तनावग्रस्त होने पर अधिक खाने लगते हैं। उनकी मानसिक एकाग्रता नष्ट हो जाती है। वे भूलने लगते हैं। वे अनिर्णय की स्थिति में पहुँच जाते हैं। विचारों की स्पष्टता खत्म हो जाती है। सबसे पहले साँस पर ध्यान दें। अक्सर देखा गया है कि अवसादग्रस्त व्यक्ति भरपूर साँस नहीं लेता। उसके शरीर में ऑक्सीजन का स्तर कम रहता है। इससे मरीज को सिरदर्द और पेटदर्द की भी शिकायत होती है। कभी-कभी मरीज को चक्कर भी आ जाते हैं। चिंता, तनाव और अवसाद जब रोजमर्रा के जीवन में हस्तक्षेप करने लगें तब चिकित्सक की मदद लेना जरूरी होता है।

क्या है इलाज 
तनाव और अवसाद के इलाज के तौर पर वर्षों से प्राकृतिक तरीकों से दी जा रही चिकित्सा पर ही भरोसा किया जा सकता है। मरीज के व्यवहार और जीवनशैली से संबंधित कुछ तनाव बिंदुओं पर इलाज केंद्रित किया जाता है। व्यवहार में पूर्ण बदलाव के लिए इस तरह के १५ से २० सेशन की जरूरत होती है। मरीज के तनाव और अवसाद कारक बिंदुओं को चिन्हित कर उसकी नकारात्मक विचारधारा प्रक्रिया को रोकने की दिशा में काम किया जाता है। इसी के साथ मरीज में एक सकारात्मक परिवर्तन दिखाई देने लगता है। मरीज को अवसाद मुक्त करने वाली दवाओं के साथ मूड एलिवेटर्स दी जाती हैं। 

सिर्फ दवा काफी नहीं 
मरीज़ अकेले औषधियों से ठीक नहीं होते। उन्हें दवाओं के साथ बिहेवियरल थैरेपी भी दी जाती है। इसके अलावा,योग और मानसिक तनाव शैथिल्य की क्रियाएं भी कराई जाती हैं। 

अवसाद से निपटें इस तरह 
-अवसाद से निपटने का सबसे सरल और कारगर तरीका यह है कि एक गिलास उबलते पानी में गुलाब के फूल की पत्तियाँ मिलाएं। ठंडा करें और शक्कर मिलाकर पी जाएं।

-एक चुटकी जायफल का पावडर ताजे आंवले के रस में मिलाकर दिन में तीन बार पी लें।

-ग्रीन टी भी अवसाद दूर भगाने में मदद करती है। दिन कम से कम तीन कप ग्रीन टी पिएं। अवसाद से छुटकारा पाने का एक और उपाय यह है कि एक कप दूध के साथ एक सेबफल और शहद का सेवन करें। 

-गुनगुने पानी के टब में लगभग आधे घंटे के लिए शरीर को ढीला छोड़ दें। यदि ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हों तो नदी अथवा तालाब के पानी में तैरें। इससे अवसाद कम होगा। 

-सामान्य चाय के प्याले में एक-चौथाई चम्मच तुलसी की पत्तियां मिलाएं और दिन में दो कप लें। 

-एक कप उबलते पानी में दो हरी इलायची के दाने पीसकर मिला दें। शक्कर मिलाकर पी लें। 

-सूखे मेवे,पनीर,सेबफल का सिरका एक गिलास पानी के साथ लें। 

-कद्दू के बीज,गाजर का रस,सेबफल का रस,5-6 सूखी खुबानी को राई के दानों के साथ मिलाकर पीस लें और इसे पी लें(सेहत,नई दुनिया,सितम्बर प्रथमांक 2012)।

Friday, September 14, 2012

हिफ़ाज़त की दुआ जो इंसान को गोलियों की बौछार में भी हादसों से महफ़ूज़ रखती है Dua for safety

इंसान से ग़लतियां होती ही हैं। इंसान ग़लतियों से सीखता है। मानव जाति के पास आज जो भी ज्ञान है। वह इसी तरह अर्जित हुआ है। ग़लतियों से मन में ग्लानि और पश्चात्ताप भी पैदा होता है। मन ग्लानि के बोझ से मुक्त हो जाए इसके लिए ही प्रायश्चित का विधान रखा गया है। किसी भी चीज़ में मन ऐसा उलझकर न रह जाए कि इंसान की तरक्क़ी रूक जाए। इसका ध्यान सदा रखना चाहिए।
माल के लालच ने इंसान की सही ग़लत की तमीज़ विकृत कर दी है और वह पश्चात्ताप और आत्मसुधार को भी भुला बैठा है। इंसान अपनी मौत को याद रखे तो वह अपने जीवन की क़ीमत को समझ सकता है वर्ना उसकी मौत तो क्या उसका जीना भी एक हादसा बनकर रह गया है। जो लोग हादसों में मर गए, वे मर तो गए। अब तो जीना भी दुश्वार हो रहा है। सड़कों पर चलना तो क्या घरों में रहना भी सुरक्षा की गारंटी नहीं बचा। घरों तक में ऐसे हादसे वुजूद में आ रहे हैं कि उन्हें न तो भुलाए बनता है और न ही कोई प्रायश्चित उन बुरी यादों को मन से निकाल पाता है।
हम तो अपने बच्चों को जब घर से बाहर स्कूल वग़ैरह भेजते हैं तो पहले अल्लाह के दो नाम ‘या हफ़ीज़ू या सलाम‘ चंद बार पढ़कर उनकी हिफ़ाज़त और सलामती की दुआ करते हैं फिर उन पर दम करते हैं। जहां इंसान की तदबीर काम नहीं देती दुआ वहां भी काम आती है।


पोस्ट अच्छी लगी।
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यह कमेंट पल्लवी सक्सेना जी की निम्न पोस्ट पर दिया गया है-

हादसे और ग्लानि

मैं तो यह सोचती हूँ जब नए-नए डॉक्टर के हाथों किसी मरीज की मौत हो जाती है तब उन्हें कैसा लगता होगा। क्या वह डॉक्टर उसे होनी या अनुभव का नाम देकर आसानी से जी लिया करते है। हालांकी कोई भी डॉक्टर किसी भी मरीज की जान जानबूझकर नहीं लेता। मगर हर डॉक्टर की ज़िंदगी में कभी न कभी ऐसा मौका ज़रूर आता है खासकर सर्जन की ज़िंदगी में, जब जाने अंजाने या परिस्थितियों के कारण उनके किसी मरीज की मौत हो जाती है। तब उन्हें कैसा लगता है और वो क्या सोचते हैं। वैसे तो आज डॉक्टरी पेशे में भी लोग बहुत ही ज्यादा संवेदनहीन हो गए हैं जिन्हें सिर्फ पैसों से मतलब है मरीज की जान से नहीं, खैर वो एक अलग मसला है और उस पर बात फिर कभी होगी या फिर यदि उन लोगों की बात की जाये जो बदले की आग में किसी पर तेज़ाब फेंक दिया करते है। क्या ऐसा घिनौना काम करने के बाद भी वो उस व्यक्ति के प्रति ग्लानि महसूस करते होंगे ? शायद नहीं क्यूंकि यदि ऐसा होता तो शायद वो इतना घिनौना काम करते ही नहीं मगर क्या ऐसे लोग उस हादसे को महज़ एक होनी समझ कर भूल जाते है ? या ज़िंदगी भर कहीं न कहीं दिल के किसी कौने में उन्हें इस बात की ग्लानि रहा करती है कि उनकी वजह से किसी की ज़िंदगी बरबाद हो गयी या जान चली गयी क्या इस बात का अफसोस उन्हें रहा करता है ? क्या ऐसे पेशे में यह बात इतनी साधारण और आम होती है जिस पर बात करते वक्त उस हादसे से जुड़े लोगों के चहरे पर किसी तरह का कोई अफसोस या एक शिकन तक नज़र नहीं आती।

Saturday, September 8, 2012

धन वर्षा अब आपके अपने हाथ में है How To Make Amla Hair Oil At Home .

पल्लवी सक्सेना जी ! आपने अपने अनुभव शेयर किए हैं। अब हम अपने अनुभव बताने की इजाज़त चाहेंगे।
(1) शिक्षा हरेक उम्र में हासिल की जा सकती है
हम एक रिक्शा में बैठे। एक नौजवान भी साथ में आ बैठा। हमारे पूछने पर उसने बताया कि वह हाई स्कूल भी नहीं कर पाया क्योंकि उसके मां बाप के हालात उसे पढ़ाने लायक़ नहीं थे। हमने उसे कहा कि अब आप कमाते हो, ख़ुद पढ़ लो। एनओएस के माध्यम से आप बिना स्कूल जाए ही हाई स्कूल और इंटर कर सकते हो और उसके बाद आप इंदिरा गांधी ओपन यूनिवर्सिटी से आगे की पढ़ाई कर सकते हो।
इंसान के अंदर पढ़ने की चाहत जगाना असली काम है। यह चाहत न हो तो आदमी पढ़ नहीं सकता चाहे उसके पास कितना ही पैसा क्यों न हो।
मुसलमानों में सबसे ज़्यादा पैसा क़साई बिरादरी के पास है और शिक्षा में सबसे कम भी यही हैं क्योंकि उनमें पढ़ाई के लिए इच्छा कम है। उनसे कम पैसे वाली दूसरी बिरादरियां शिक्षा में उनसे आगे हैं।

(2) आज हरेक नर-नारी पैसे वाला बन सकता है
आज पैसा अहमियत रखता है। हरेक आदमी आज पैसे वाला बन सकता है। पैसे के लिए आदमी को व्यापार से जुड़ना चाहिए। चाहे वह कोई नौकरी ही क्यों न कर रहा हो।
हरेक आदमी को बहुत सी चीज़ों की ज़रूरत पड़ती है। उनमें से आप कुछ भी उन्हें बेच दीजिए। हरेक सिर पर बाल हैं। बाल टूटना, उनका सफ़ेद होना और लंबा न होना हरेक मर्द-औरत की समस्या है। इसके सौ से ज़्यादा नुस्ख़े इंटरनेट पर ही उपलब्ध हैं।
5 रूपये का तेल आप 50 रूपये में बेचेंगे। जितने कन्ज़्यूमर होंगे, उतने ही आपके प्रचारक होंगे। समय के साथ आपके प्रोडक्ट की सेल बढ़ती चली जाएगी और दौलत आपके समेटने में नहीं आएगी। शहनाज़ हुसैन ने अपने काम की शुरूआत अपने घर के बरामदे से की थी। आपके पास शुरूआत करने के लिए उससे अच्छी जगह हो सकती है।
आप मार्कीट में आंवले के तेल के नाम पर बहुत से हरे रंग के तेल बिकते हुए देखेंगे। उनमें आंवला नहीं होता। बस हरा रंग और आंवले की ख़ुश्बू होती है। वह भी तिल के तेल में नहीं बल्कि किसी सस्ते से रिफ़ाइन्ड ऑयल में जिसे केमिकल से प्रॉसिस किया जाता है और एक मशहूर ब्रांड के तेल में मिटटी का तेल भी डाला जाता है। जिसके असर से बाल समय से पहले सफ़ेद हो जाते हैं। अक्सर मशहूर ब्रांड का यही हाल है।
आपको आंवले का तेल चाहिए तो हमदर्द का लीजिए या फिर बैद्यनाथ का महाभृंगराज तेल लीजिए। भृंगराज एक औषधि है जो क़स्बों और देहात में नालियों के किनारे उगती है। इस पर सफ़ेद फूल आता है। हमें इसकी पहचान है। हमें यह मुफ़्त मिल जाता है वर्ना बाज़ार में सूखा हुआ बहुत महंगा मिलता है।
गूगल की मदद से आप इसका चित्र पहचान लीजिए तो आपको यह अपने घर के आस पास ही मिल जाएगा। आप अपने लिए महाभृंगराज का तेल ख़ुद बनाइये। आंवले का तेल भी आप ख़ुद बना सकते हैं। तरीक़ा बहुत आसान है।
मिसाल के तौर पर आप 10 ग्राम आंवले लीजिए और उसे सोलह गुने पानी में भिगो दीजिए। रात भर भीगने के बाद आप सुबह उसे मंद आंच पर पका लें। जब पानी आधा रह जाए तो यानि कि 80 ग्राम तो उसे छान लीजिए और उसमें 80 ग्राम तिल का तेल मिलाकर फिर आग पर पकाएं। जब पानी भाप बनकर उड़ जाए तो सिर्फ़ तेल बचेगा। यही वास्तव में आंवले का तेल है। इसमें आप बाज़ार से ख़ुश्बू और रंग अपनी पसंद का लेकर मिलाएं और बेचें।
भृंगराज
आप भृंगराज का तेल भी इसी विधि से बना सकती हैं। ये नुस्ख़े बनाने मुश्किल लगें तो एक सस्ता और तेज़ असर करने वाला नुस्ख़ा हरेक बना सकता है। आप तिल के तेल में बरगद के पत्ते और उसकी दाढ़ी पकाकर भी बेचने लगें तो लोगों के बाल टूटना बंद हो जाएंगे। तेल का रिज़ल्ट आपके तेल की सेल बढ़ा देगा। कुछ दूसरे तरीक़ों से भी आप तेल तैयार कर सकते हैं। इन्हें आप यूट्यूब में उपलब्ध वीडियो में देख सकते हैं।
इसी तरह आप 2 रूपये के बेसन में एक चुटकी हल्दी और दो चुटकी चंदन चूरा मिलाकर फ़ेस पैक तैयार कर सकती हैं। इसे नींबू के रस और पानी में मिलाकर चेहरे पर लगाएं। ज़िददी कील-मुहांसे ग़ायब हो जाएंगे और चेहरा दिन ब दिन निखरता चला जाएगा। 6 महीने में लड़की का रंग इतना बदल जाएगा कि देखने वालों को यक़ीन ही नहीं आएगा। सांवले रंग की लड़कियां इसे आज़माएं और सुंदर सलोना रूप पाएं। आप यह फ़ेस पैक 10-20 रूपये में आसानी बेच सकते हैं।

(3) आपका इरादा आपको आगे ले जाएगा
कहने का मतलब यह है कि अपने मिलने जुलने वालों के नेटवर्क में किसी दूसरी कंपनी के उत्पाद इंट्रोड्यूस कराने से बेहतर है अपने ख़ुद के प्रोडक्ट्स बेचना। कंपनी आपको अपने मुनाफ़े का एक छोटा सा हिस्सा देती है जबकि अपने प्रोडक्ट्स बेचकर सारा मुनाफ़ा आप ख़ुद रखते हैं और अपनी कंपनी के सीईओ कहलाने का सुख आपको अलग से मिलता है।
भारत में जितने लोग बेरोज़गार हैं, अपनी नासमझी की वजह से बेरोज़गार हैं। हर तरफ़ चीज़ें बिक रही हैं लेकिन न तो वे चीज़ें हमारी बिक रही हैं और न ही उन्हें हम बेच रहे हैं। वे चीज़े मल्टीनेशनल कंपनियों की बिक रही हैं और हम उन्हें ख़रीद रहे हैं। हमारा पैसा विदेश जा रहा है।
एमएलएम कंपनियों ने हमें बेचना सिखा दिया है।
उनका शुक्रिया ।
अब इस स्किल का भरपूर फ़ायदा उठाने की ज़रूरत है।
आपकी पोस्ट अच्छी है और प्रेरक भी, कि इतना कुछ लिखने की प्रेरणा मिली। कमेंट में संबोधित आप हैं लेकिन संदेश सबके लिए है। कम्प्यूटर वालों के लिए आपने लिखा और बाक़ी सबके लिए हमने लिख दिया है। जो कम्प्यूटर कोर्स न करना चाहें, वे भी बहुत कुछ कर सकते हैं।
यह कमेंट आपकी पोस्ट के अंश समेत यहां सहेजा जा चुका है-



और अब पल्लवी सक्सेना जी की पोस्ट, जिस पर हमने यह कमेंट दिया है-

 परिवर्तन

परिवर्तन जीवन का दूसरा नाम है क्यूंकि परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है, कहते हैं समय के साथ बदल जाना ही समझदारी की निशानी है क्यूंकि समय कभी एक सा नहीं रहता। इन्हीं कहावतों के चलते आइये आज बात करें शिक्षा के क्षेत्र में आये कुछ परिवर्तनों पर, युग बदला, बदला हिंदुस्तान जिसके चलते इंसानी जीवन में न जाने कितने अनगिनत बदलाव आये जो आज हमारे सामने है। जिन्होंने इंसानी जीवन के हर एक पहलू को छुआ फिर क्या समाज और क्या ज़िंदगी, इस ही बात को मद्देनज़र रखते हुए हम बात करते है अपनी शिक्षा प्रणाली की, क्यूंकि शिक्षा ही सच्चे जीवन का आधार है ऐसा मेरा मानना है। क्यूंकि ज्ञान ही सभी भेद भाव मिटाकर आपको आपका सच्चा हक़ दिला सकता है। :-)

Wednesday, September 5, 2012

तालिबान को हथियार और ट्रेनिंग देने वाले ज़ालिम बदनाम क्यों न हुए ? Who was godfather of Taliban ?

" तालिबान शब्द शैतान का पर्याय हो गया"

जबकि उन्होंने इतने लोग नहीं मारे जितने कि उन्होंने मारे जोकि तालिबान नहीं हैं बल्कि विश्व शांति का झंडा भी उनके ही हाथ में है. तालिबान को हथियार और ट्रेनिंग देने वाले भी यही हैं.
ऐसा क्यों हुआ .
ऐसा केवल इसलिए हुआ कि "मीडिया" भी उनके ही हाथ में है.
जैसे मिथ्या जगत का व्यापार सत्य ब्रह्म के अधीन है, ऐसे ही हरेक मिथ्या आज उसके अधीन है  जिसके पास "शब्द" है.  शब्द को भारतीय दर्शन में ब्रह्म भी कहा गया है .
आध्यात्मिक सत्य को भौतिक धरातल पर भी घटित होते हुए देखा जा सकता है.
मन में जमे दुराग्रह और प्रचार के तिलिस्म को तोडा जाए तभी जाना जा सकता है कि आज ज़ालिम कौन है ?
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हमने यह कमेन्ट अजित वडनेरकर जी की पोस्ट पर दिया है. देखिये-

शब्दों का सफर: तालिबान शब्द शैतान का पर्याय हो गया
सेमिटिक मूल का मतलब अरबी से बरास्ता फ़ारसी, भारतीय भाषाओं में दाखिल हुआ । सेमिटिक धातु त-ल-ब / ṭā lām bā यानी ( ب ل ط ) से जन्मा है । अल सईद एम बदावी की कुरानिक डिक्शनरी के मुताबिक इसमें तलाश, खोज, चाह, मांग, परीक्षा, अभ्यर्थना, विनय और प्रार्थना जैसे भाव हैं । इससे ही जन्मा है 'तलब' शब्द जो हिन्दी का खूब जाना पहचाना है । तलब यानी खोज या तलाश । तलब के मूल मे 'तलाबा' है जिसमें रेगिस्तान के साथ जुड़ी सनातन प्यास का अभिप्राय है । आदिम मानव का जीवन ही न खत्म होने वाली तलाश रहा है । दुनिया के सबसे विशाल मरुक्षेत्र में जहाँ निशानदेही की कोई गुंजाइश नहीं थी । चारों और सिर्फ़ रेत ही रेत और सिर पर तपता सूरज । ऐसे में सबसे पहले पानी की तलाश, आसरे की तलाश, भटके हुए पशुओं की तलाश...अंतहीन तलाशों का सिलसिला थी प्राचीन काल में बेदुइनों की ज़िंदगी । तलब शब्द का रिश्ता आज भी प्यास से जुड़ता है । ये अलग बात है कि अब पीने-पिलाने या नशे की चाह के संदर्भ में तलब शब्द का ज्यादा प्रयोग होता है ।
...लब से ही 'तालिब' बनता है जिसका अर्थ है ढूंढनेवाला, खोजी, अन्वेषक, जिज्ञासु । तालिब-इल्म का अर्थ हुआ ज्ञान की चाह रखनेवाला अर्थात शिष्य, चेला, विद्यार्थी, छात्र आदि । इस तालिब का पश्तो में बहुवचन है तालिबान। तालिब यानी जिज्ञासु का बहुवचन पश्तो में आन प्रत्यय लगा कर बहुवचन तालिबान बना । उर्दू में अंग्रेजी के मेंबर में आन लगाकर बहुवचन मेंबरान बना लिया गया है । आज तालिबान दुनियाभर में दहशतगर्दी का पर्याय है ।तालिबान का मूल अर्थ है अध्यात्मविद्या सीखनेवाला । हम इस विवरण में नहीं जाएंगे कि किस तरह अफ़गानिस्तान की उथल-पुथल भरी सियासत में कट्टरपंथियों का एक अतिवादी विचारधारा वाला संगठन करीब ढाई दशक पहले उठ खड़ा हुआ । खास बात यह कि उथल-पुथल के दौर में नियम-कायदों की स्थापना के नाम पर मुल्ला उमर ने अपने शागिर्दों की जो फौज तालिबान के नाम से खड़ी की, उसने तालिब नाम की पवित्रता पर इतना गहरा दाग़ लगाया है कि तालिबान शब्द शैतान का पर्याय हो गया ।

Saturday, September 1, 2012

ब्लॉगिंग का ब्लैक डे क्यों है सम्मान समारोह ? Award Fixing

आदरणीय महेन्द्र श्रीवास्तव जी ! एक नेक राह दिखाती हुई पोस्ट का स्वागत है. रवीन्द्र प्रभात जी से या उनके सहयोगियों और सरपरस्तों से हमें कोई निजी बैर नहीं है. हम उन सबका सम्मान करते हैं लेकिन अच्छा काम सही तरीक़े से किया जाना चाहिए. यह बात उनके लिए भी सही है, आपके लिए भी और हमारे लिए भी.

आपकी पोस्ट और सभी टिप्पणियाँ पढ़ीं.
आपने यह बिलकुल सही कहा है -
"हम जो सही समझते हैं अगर वो भी हम ना कह पाएं तो मैं समझता हूं कि मुझे नहीं आप सबको ब्लागिंग करने का अधिकार नहीं है। हमारे अंदर इतनी हिम्मत होनी ही चाहिए कि हम चोर को चोर और ईमानदार को ईमानदार डंके की चोट पर कह सकें..."

हमारा नज़रिया भी यही है. यह पोस्ट लिख कर जो काम आपने किया है, आप से पहले यही काम हम करते थे. सच कहने का साहस रखने वाला एक और आया, यह ख़ुशी की बात है.
सच कहने वाले का कोई गुट या निजी हित नहीं होता लेकिन फिर भी उसका अपमान करके, उसका मज़ाक़ उड़ा कर उसका हौसला पस्त करने की कोशिशें की जाती हैं. हमारे साथ यही हुआ है और अब आपके साथ होते देख रहे हैं. हम अपनी राह से आज तक न डिगे और मालिक से दुआ है कि आप भी हमेशा सच पर क़ायम रहें. सब कुछ सामने है. इसीलये हम इस सम्मान समारोह पर कोई टिप्पणी नहीं कर रहे हैं. इस बार हम कुछ भी नहीं कह रहे हैं कि किसका सम्मान या अपमान क्यों ग़लत हुआ ?
ज़्यादातर लोग अभी तक ब्लॉगिंग को समझ नहीं पाए हैं. वे बार बार इसकी तुलना अख़बार या प्रकाशित साहित्य से करते हैं और फिर 'उम्दा या घटिया' तय करने लगते हैं. हिंदी ब्लॉगिंग की मुख्यधारा  यही है.
मुख्यधारा में कुछ बातें और भी है जो एक सच्चे ब्लॉगर की चिंता का विषय हैं.
जानिए बड़े ब्लॉगर्स के ब्लॉग पर बहती मुख्यधारा
आपकी यह पोस्ट अपने कमेन्ट के साथ यहाँ भी सहेज दी गयी है.
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आदरणीय महेन्द्र श्रीवास्तव जी की पोस्ट का एक अंश, जिस पर यह कमेन्ट दिया गया -

सम्मान समारोह : ब्लागिंग का ब्लैक डे !

जी हैं आप मेरी बात से भले सहमत ना हों, लेकिन मेरे लिए 27 अगस्त " ब्लागिंग के ब्लैक डे " से कम नहीं है। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूं कि इसके पर्याप्त कारण हैं। इस दिन ब्लागिंग में ईमानदारी की हत्या हुई, इस दिन ब्लागिंग में बडों के सम्मान की हत्या हुई, इस दिन हमारी सांस्कृतिक विरासत "अतिथि देवो भव" की हत्या हुई। सच कहूं तो कल को अगर इस दिन को कुछ लोग याद रखेंगे तो सिर्फ इसलिए कि इस दिन ब्लागिंग में लंपटई की बुनियाद रखी गई, जिसे अब सहेज कर रखने की जिम्मेदारी कुछ लोगों के कंधे पर है। हालाकि ये कंधे बहुत मजबूत हैं, इसलिए  वो  सबकुछ संभाल लेंगे, वैसे भी ये सब ऐसे ही धंधे में सने हुए हैं।
...पहले तो इसमें दशक के ब्लागर का ही सम्मान होना था, लेकिन जब उसके तौर तरीके  पर सवाल उठने लगे, आयोजकों की भी किरकिरी होने लगी। तो लोगों को लगा कि कहीं ऐसे में ब्लागरों ने इस आयोजन से कन्नी काट ली तो क्या होगा ? आनन फानन में एक साजिश के तहत 40 और सम्मान जोड़ दिए गए। बस फिर क्या था, पूरी हो गई "अलीबाबा 40 चोर" की टीम। ब्लागर की आवाज को बंद करने का इससे नायाब तरीका हो ही नहीं सकता। इन्होंने पहले तो 40 लोगों को सम्मानित करने का ऐलान कर दिया। फिर हर वर्ग में तीन तीन ब्लागर का नाम शामिल कर दिया गया। अब 120 लोग सम्मान की कतार में आ गए। इतनी बड़ी संख्या में जब सम्मानियों की कतार लग गई तो सब के मुंह बंद हो गए।
...बहरहाल मैं अपने विचार आप पर थोप नहीं सकता,  आपको जैसा लगा वो आपने व्यक्त किया। खैर.. एक शेर याद आ रहा है कि ..

जी चाहता है तोड़ दूं शीशा फ़ रेब का,
अफ़सोस मगर अभी तो ख़ामोश रहना है।

मित्रों मैं इस बात को नहीं समझ पाता हूं कि हम सही को सही कहने की हिम्मत रखते हैं, लेकिन गलत को गलत कहने में हमारी हिम्मत कहां चली जाती है ? पिछले दिनों मैने जब इस समारोह के बारे में लिखा तो बहुत सारे लोगों ने मुझे फोन कर शुक्रिया कहा और ये भी कहा कि आपने सच कहने की हिम्मत की। एक ब्लागर की बात तो मैं आज भी नहीं भूल पाया हू, जिन्होंने मुझे बताया कि उन्हें "वटवृक्ष" का सह संपादक बनाने के लिए पैसे लिए गए। जब हिंदी की सेवा करने का दावा करने वालों का चेहरा ऐसा हो तो आसानी से समझा जा सकता है कि इन सबकी आड़ में असल में क्या खेल चल रहा है। फिर मुझे तो इसलिए भी हंसी आई कि इस अंतर्राष्ट्रीय समारोह में इन्हें मुख्य अतिथि कोयला मंत्री ही मिले, जिस मंत्रालय की कारगुजारी की वजह से देश की संसद कई दिनों से ठप है। खैर अच्छा हुआ वो नहीं आए। चलिए आयोजन के जरिए यहां भी खेल करने के लिए एक और जुगाड़ की बुनियाद रख दी गई है,  स्व. राम मनोहर लोहिया के नाम पर अब ब्लागरों का कल्याण किया जाएगा। हाहाहहाहा..

माई आन्हर, बाऊ आन्हर,
हम्मैं छोड़ सब भाई आन्हर,
केके केके दिया देखाई
बिजुरी अस भौजाई आन्हर।

(स्व. कैलाश गौतम)
Link-
http://aadhasachonline.blogspot.in/2012/09/blog-post.html

Wednesday, May 23, 2012

आधुनिक सभ्यता वास्तव में इस्लाम धर्म की तरफ़ बढ़ रही है

पर हमारी टिप्पणी

@ इस्लाम भाईचारे और शांति के घोषित मकसद की आड़ में हिंसा को बल दे रहा है ?

पुलिस का घोषित मक़सद शांति व्यवस्था बनाए रखना है, मुजरिमों को पकड़ना है लेकिन इस घोषित मक़सद की आड़ में कुछ पुलिसकर्मी रिश्वत लेते हैं और ज़ुल्म करते हैं तो इससे पुलिस की ज़रूरत ख़त्म नहीं हो जाती।

इस्लाम भी एक व्यवस्था है। इस पर चलने वाले लोग ही होते हैं। जो इस्लाम का नाम लेकर अपने निजी हित साधे, उसे मुनाफ़िक़ कहा जाता है न कि आदर्श मुस्लिम। देखना यह चाहिए कि इस्लाम के उसूलों को छोड़ दिया जाए तो फिर माना क्या जाएगा ?
इस्लाम को छोड़कर भी जब कोई अच्छी बात मानता है तो वह इस्लाम को ही बिना नाम लिए मानता है।
जब भी संगठन बनेगा तो वहां शक्ति का उदय होगा। समय गुज़रेगा तो शक्ति पाने के लिए ग़लत आदमी वहां भी पहुंचेगे। अपना नाम ‘नन्स‘ रखकर वे बच नहीं पाएंगे।
<b>ईश्वर में विश्वास, जन सेवा और संगठन, तीनों इस्लामी उसूल हैं। </b>
इस्लाम परोक्ष ही नहीं प्रत्यक्ष भी पश्चिमी देशों में फैल रहा है। यह बात सामने रखी जाए तो ही यह जाना जा सकता है कि आधुनिक सभ्यता वास्तव में ही एक ऐसे धर्म की तरफ़ बढ़ रही है जो उसकी ज़रूरतों को पूरा करता है।
Please see

इटालियन राजदूत के दिल में दाखि़ल हुआ नूरे इस्लाम

http://drayazahmad.blogspot.in/2012/05/blog-post_12.html

आतंकवाद की परिभाषा ही तय नहीं है तो कैसे किसी को आतंकवादी कहा जा सकता है ?
राजनीतिक हितों के लिए शक्तिशाली देश पूरा देश तबाह कर दे तो वह शांति की स्थापना है और मज़लूम नागरिक पत्थर भी मारें तो आतंकवादी ?
भगत सिंह इसी अन्याय के शिकार हुए। अंग्रेज़ों का यह खेल पुराना है।
 

Tuesday, May 22, 2012

सबके लिए एक ही नैतिकता को स्टैंडर्ड घोषित किया जाए Vivah

शर्मनाक हरकतें और बुज़ुर्ग

पर हमारी टिप्पणी

आंखें जो देखती हैं और मन जो समझ लेता है, वह हमेशा सच नहीं होता।
मोटर साइकिल पर साथ जाते भाई बहन को भी आशिक़ माशूक़ समझ लिया जाता है और अपनी लड़की को विदा करते हुए बाप को भी उसका दूल्हा समझ लिया जाता है।
दूल्हा जैसा सेहरा इस बुज़ुर्ग के चेहरे पर नहीं है और इन्होंने लड़की का हाथ नहीं पकड़ा है बल्कि इनका हाथ बड़ी अपनाइयत से पकड़े हुए है, जैसे कि विदाई के वक्त एक लड़की अपने बाप का हाथ पकड़ती है।
यह तो हुई आपके चित्र पर टिप्पणी।

इसके बावजूद भी बड़ी उम्र के लोग कम उम्र लड़कियों के साथ विवाह करते हैं। विवाह के लिए लड़की की रज़ामंदी शर्त होती है। कहीं यह रज़ामंदी ग़रीबी की वजह से होती है और कहीं दिल की गहराई से। आर्थिक मजबूरियों के चलते रज़ामंदी देने की आलोचना कितनी भी कर ली जाए लेकिन जहां देश में दहेज का दानव बहुओं को और कन्या भ्रूणों को निगल रहा हो, वहां इस तरह के विवाह होते ही रहेंगे।
एक सर्वे में यह भी बात सामने आई थी कि कुछ लड़कियां नौजवानों के मुक़ाबले बुज़ुर्गों को तरजीह देती हैं अपना पति बनाने के लिए क्योंकि नौजवान अभी ख़ुद को जमाने के लिए संघर्ष ही कर रहा होता है जबकि बुज़र्ग ऑल रेडी स्थापित होते हैं और वे नौजवानों की तरह ग़ैर ज़िम्मेदार भी नहीं होते। लिहाज़ा उम्र का फ़ासला लड़कियों को हमेशा ही दुख दे, ऐसी बात नहीं है। यह तो दिल का मामला है।
दिल कब किस पर आ जाए ?
क्या कहा जा सकता है ?

बुज़ुर्गों के द्वारा छेड़छाड़ और अवैध यौन संबंध वाक़ई निंदनीय है लेकिन तब जबकि एक सही सोच को समाज में मान्यता मिली हुई हो।
नगर वधू और गणिका से लेकर कई और तरीक़ों तक को समाज और परिवार में मान्यता मिली हुई है जिनके तहत यौन संबंध हमेशा से ही यहां बनते आए हैं।
यहां तक कि शास्त्र में विवाह के 8 प्रकार बताए गए हैं और उनमें बलात्कृता और अपहरण की हुई कन्या को भी पत्नी ही स्वीकार किया गया है।
अलग अलग समाजों के रीति रिवाज अलग अलग हैं लेकिन अब समय आ गया है कि सबके लिए एक ही नैतिकता को स्टैंडर्ड घोषित किया जाए।
यह नैतिकता वह होगी जो सबके लिए आज के समय में व्यवहारिक हो और सबके लिए लाभदायक भी हो।

Sunday, May 20, 2012

जो लोग सहज ध्यान नहीं कर पाते वे जीवन भर असहज ही रहते हैं

एक प्रकार का ध्यान है टहलना

पर हमारी टिप्पणी
टहलने के लिए जब आदमी निकले तो वह अल्लाह की नेमतों पर ध्यान दे।
अपने पैरों पर ध्यान दे।
जिस ज़मीन पर टहल रहा है, उसकी बनावट पर और उसकी हरियाली पर ध्यान दे।
उगते हुए सूरज की किरणों पर ध्यान दे।
सूरज निकलता है तो उसकी किरणें पेड़ पौधों के पत्तों पर पड़ती हैं तो तब वे फ़ोटोसिंथेसिस की क्रिया करते हैं। इस तरह वे ऑक्सीजन छोड़ते हैं जो कि हमारे जीवन और हमारी सेहत के लिए ज़रूरी है और वे हमारी छोड़ी हुई कार्बन डाई ऑक्साइड को सोख लेते हैं जो कि हमारे लिए जानलेवा है।
रौशनी, हवा, ज़मीन और हमारा शरीर, इनमें से हरेक चीज़ ऐसी है कि इन पर ध्यान दिया जाए।
जब यह ध्यान दिया जाएगा तो टहलना एक सहज ध्यान बन जाएगा और मालिक का शुक्र दिल से ख़ुद ब ख़ुद निकलेगा।
जो लोग सहज ध्यान नहीं कर पाते वे जीवन भर असहज ही रहते हैं।
दिल मालिक के शुक्र से भरा हो, उसकी मुहब्बत से भरा हो तो जीवन से शिकायतें ख़त्म हो जाती हैं।
प्रकृति सुंदर है, हमारा शरीर सुंदर है।
सुंदरता पर ध्यान देंगे तो जीवन में मधुरता और सकारात्मकता आएगी।
सुबह सुबह अच्छा काम करेंगे तो शाम तक का समय अच्छा गुज़रेगा।

Friday, May 18, 2012

पांव हैं तो चलना ही पड़ेगा

अभिव्यक्ति: मैं चलूंगा - डॉ. शान्तिलाल भारद्वाज ‘राकेश’ की एक कविता
पर हमारी टिप्पणी

यह कविता बहुत अच्छी लगी।
यह कविता पढ़कर दिल में आया कि कह दूं-

तू चलेगा तो मैं भी चलूंगा।
पांव हैं तो चलना ही पड़ेगा।
घाव है तो ढकना ही पड़ेगा।
तू भी चल और मैं भी चलूं।
साथ दोनों चलेंगे तो हल मिलेगा।
चलने का तभी फल मिलेगा।
अकेले सफ़र कोई तय नहीं होता।
एक साथी ज़रूरी है सफ़र में।
मुश्किलें बहुत आती हैं डगर में।
चलना ही है तो एक दिशा में चलें।
कहीं तो पहुंच ही जाएंगे,
कभी न कभी एक रोज़।
यही एक आस है,
जिसके लिए चलना पड़ेगा।
नहीं चलेंगे तो यह आस भी न बचेगी।
आस क़ायम रहे, यह ज़रूरी है।
इसीलिए चलना बहुत ज़रूरी है।

Saturday, May 12, 2012

इलाज के नाम पर गर्म होता हवसख़ोरी का बाज़ार

अंतर्मंथन: ज़रा संभल के --- स्वास्थ्य के मामले में चमत्कार नहीं होते .

पर हमारी टिप्पणी

चमत्कार न होते तो डाक्टर को मौत न आती।

ऐसा देखा जा सकता है कि बहुत बार हायजीनिक कंडीशन में रहने वाले डाक्टर बूढ़े हुए बिना मर जाते हैं जबकि कूड़े के ढेर पर 80 साल के बूढ़े देखे जा सकते हैं।
मिटटी पानी और हवा में ज़हर है लेकिन लोग फिर भी ज़िंदा हैं।
क्या यह चमत्कार नहीं है ?

लोग दवा से भी ठीक होते हैं और प्लेसिबो से भी।

भारत चमत्कारों का देश है और यहां सेहत के मामले में भी चमत्कार होते हैं।
हिप्नॉटिज़्म को कभी चमत्कार समझा जाता था लेकिन आज इसे भी इलाज का एक ज़रिया माना जाता है।
जो कभी चमत्कार की श्रेणी में आते थे, उन तरीक़ों को अब मान्यता दी जा रही है।
एक्यूपंक्चर का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है लेकिन उसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अगर मान्यता दी जा रही है तो सिर्फ़ उसके चमत्कारिक प्रभाव के कारण।
होम्योपैथी भी एक ऐसी ही पैथी है।
वैज्ञानिक आधार पर खरी ऐलोपैथी से इलाज कराने वालों से ज़्यादा लोग वे हैं जो कि उसके अलावा तरीक़ों से इलाज कराते हैं।
पूंजीपति वैज्ञानिकों से रिसर्च कराते हैं और फिर उनकी खोज का पेमेंट करके महंगे दाम पर दवाएं बेचते हैं।
वैज्ञानिक सोच के साथ जीने का मतलब है मोटा माल कमाने और ख़र्च करने की क्षमता रखना।
भारत के अधिकांश लोग 20-50 रूपये प्रतिदिन कमाते हैं। सो वैज्ञानिक सोच और वैज्ञानिक संस्थान व आधुनिक अस्पताल उनके लिए नहीं हैं। इनकी दादी और उसके नुस्ख़े ही इनके काम आते हैं।
यही लोग वैकल्पिक पद्धतियां आज़माते हैं, जिनके पास कोई विकल्प नहीं होता।

बीमारियां केवल दैहिक ही नहीं होतीं बल्कि मनोदैहिक होती हैं।
...और मन एक जटिल चीज़ है।
मरीज़ को विश्वास हो जाए कि वह ठीक हो जाएगा तो बहुत बार वह ठीक हो जाता है।
मरीज़ को किस आदमी या किस जगह या किस बात से अपने ठीक होने का विश्वास जाग सकता है, यह कहना मुश्किल है।
यही वजह है कि केवल अनपढ़ व ग़रीब आदमी ही नहीं बल्कि शिक्षित व धनपति लोग भी सेहत के लिए दुआ, तावीज़, तंत्र-मंत्र करते हुए देखे जा सकते हैं।
आधुनिक नर्सिंग होम्स के गेट पर ही देवी देवताओं के मंदिर देखे जा सकते हैं। मरीज़ देखने से पहले डाक्टर साहब पहले वहां हाथ जोड़कर प्रार्थना करते हैं कि उनके मरीज़ों को आरोग्य मिले।

आपकी पोस्ट अच्छी है लेकिन चिकित्सा के पेशे को जिस तरह सेवा से पहले व्यवसाय और अब ठगी तक में बदल दिया गया है, उसी ने जनता को नीम हकीमों के द्वार पर धकेला है।

Monday, April 23, 2012

पुलिस और पीएसी से या सेना से टकराना बेकार है, इस लड़ाई का कोई अंत नहीं है

पर हमारी टिप्पणी
नागरिक और प्रशासन, सभी को अपने अधिकारों के साथ अपने फ़र्ज़ का भी ध्यान रखना चाहिए।
हिंसा से समाज का तो भला नहीं होता लेकिन जो लोग सदियों से अवाम को ग़ुलाम बनाए हुए हैं। उन्हें इसका लाभ ज़रूर मिलता है। लोग हिंदू, मुस्लिम और जाति के आधार पर बंटते हैं तो कमज़ोर वर्गों के लिए न्याय की लड़ाई कमज़ोर पड़ती है।
मुसलमान भी जब तक केवल अपने लिए लड़ते रहेंगे, कामयाब न होंगे।
हरेक शोषित के लिए उन्हें खड़ा होना पड़ेगा और इसके लिए भी हिंसा की ज़रूरत नहीं है बल्कि सबको आपस में एक दूसरे का सम्मान करने और आपस में सहयोग करने के जज़्बे को जगाने की ज़रूरत है।
कमज़ोर कमज़ोर आपस में जुड़कर खड़े होंगे तो ज़ालिम बिना लड़े ख़ुद ही कमज़ोर हो जाएगा।
पुलिस और पीएसी से या सेना से टकराना बेकार है।
इस लड़ाई का कोई अंत नहीं है।
दुनिया में ताक़त ही राज करती है।
कोशिश करनी चाहिए कि ताक़त न्याय करने वालों के हाथों में ही पहुंचे।
इसके लिए जागरूकता के लंबे आंदोलन की ज़रूरत है क्योंकि इस तरह के लोग न इस पार्टी में हैं और न उस पार्टी में।
समस्या को शॉर्ट कट तरीक़े से हल करने की कोशिश में कमज़ोर लोग दमन का शिकार होंगे और वे पहले से भी ज़्यादा बर्बाद होकर रह जाएंगे।
 

Friday, April 20, 2012

एक मूल प्रश्न : पैमाना अगर बुद्धि हो तो किसकी बुद्धि हो ? Wisdome

किरपा का धंधा और आत्मविश्वास

पर हमारी टिप्पणी

एक मूल प्रश्न
गुटखा नुक्सान देता है लेकिन लोग फिर उसे खाते हैं क्योंकि लोग नहीं जानते कि ‘इमोशनल फ़ीडिंग‘ नाम की भी कोई चीज़ होती है। कोई गुटखा खाता है तो कोई पान खाता है। इनकी कृपा से ही पान वाले की रोज़ी रोटी चल रही है। ऐसे ही सब एक दूसरे से जुड़े हुए हैं और प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से एक दूसरे को लाभ पहुंचा रहे हैं। यही कृपा लाभ है।
लोग एक दूसरे से लड़कर उन्हें नष्ट करने पर तुले हुए नहीं हैं। यह भी उनकी एक दूसरे पर कृपा है। कृपा लाभ से ही समाज क़ायम है।
समाज की संरचना बड़ी जटिल है और मानवीय संबंधों की संरचना उससे भी ज़्यादा जटिल है। गुरू शिष्य का रिश्ता भी इसी दायरे में आता है। रिश्ते हमेशा से हैं और उनकी मर्यादा भी। मर्यादा से खेलने वाले भी हमेशा से हैं।
सही गुरू सही मार्गदर्शन देगा, सही ज्ञान देगा और जिसे ख़ुद सही ज्ञान न हो वह केवल धोखा देगा। निर्मल बाबा यही कर रहे हैं।
किसी के काम को धोखा कहने के लिए हमारे पास एक ऐसा पैमाना होना ज़रूरी है जो ज्ञान-अज्ञान और विश्वास-अंधविश्वास में फ़र्क़ करना सिखा सके।
इस पैमाने के अभाव में हरेक की बुद्धि अलग फ़ैसला लेगी। एक की बुद्धि एक बात को सही और जायज़ बताएगी तो दूसरे की बुद्धि उसी काम को ग़लत और नाजायज़ बताएगी।
पैमाना अगर बुद्धि हो तो किसकी बुद्धि हो ?

यह मूल प्रश्न हल हो जाए तो इस देश में फ़र्ज़ी बाबाओं की धोखाधड़ी का वुजूद ही ख़त्म हो जाएगा।

एक विचारणीय पोस्ट देने के लिए शुक्रिया !


Monday, April 16, 2012

धर्म के धंधेबाज़ों को चुनौती कौन देगा और कैसे देगा ? Thag

पर एक टिप्पणी
आस्तिक हो या नास्तिक फ़्रॉड हरेक वर्ग के लोग कर रहे हैं। जनता जहां भी जा रही है फ़्रॉड लोग ही हाथ आ रहे हैं।
कुछ लोग ख़ुद को नास्तिक बताते हैं लेकिन अपनी बहन को उसी तरह बहन मानते हैं जिस तरह कि आस्तिक लोग धर्मानुसार मानते हैं। जब वह अपनी बहन के लिए लड़का तलाशने निकलता है तो भी वह उन सब परंपराओं का पालन करता जिनका पालन आस्तिक लोग करते हैं। उनकी शादी में वैदिक मंत्रों का उच्चारण करने के लिए पंडित जी भी आते हैं और उन्हें दक्षिणा आदि देकर ही विदा किया जाता है।
इस देश के नास्तिकों का हाल भी जब आस्तिकों जैसा है तो फिर धर्म के धंधेबाज़ों को चुनौती कौन देगा और कैसे देगा ?
जीवन भर चुनौती देने वाला भी समय आने पर इनके ही चरणों में धन अर्पण करता हुआ मिलेगा।
लिखने और बोलने की छूट यहां है। सो सब लिख रहे हैं।
आपने भी लिखा और अच्छा लिखा।
एक अच्छे निबंध के सभी तत्व इसमें विद्यमान हैं।
बधाई हो ।

लड़की के मायके वाले बेटी के घाव देखकर भी अनदेखा क्यों कर देते हैं ? Beti ka Dard

लड़की के मायके वाले बेटी के घाव देखकर भी अनदेखा कर देते हैं क्योंकि कुछ तो पुरानी परंपराएं आड़े आ जाती हैं कि अगर यहां से बात ख़राब हो गई तो फिर इसका दूसरा विवाह करना पड़ेगा जो कि हमारे ख़ानदान में आज तक नहीं हुआ और दूसरी तरफ़ हिंदुस्तानी क़ानून औरतों का पक्षधर होने के बावजूद औरत को कुछ ख़ास नहीं दिला पाता।
हमने अपनी बहन के दुख पर ध्यान दिया।
आज 4 चार से ज़्यादा अदालत में केस लड़ते हुए हो गए हैं लेकिन एक पैसा अदालत अब तक ख़र्चे का नहीं दिला सकी है।
तलाक़ का मुक़ददमा किया तो डाकिए ने सम्मन पर यह लिखकर वापस कर दिया कि घर पर ताला लगा है। परिवार के लोग कहीं बाहर गए हुए हैं। यह बात डाकिए ने लिफ़ाफ़े पर नहीं लिखी बल्कि उसे फाड़कर अंदर के सम्मन पर लिखी लेकिन अदालत ने इसे सम्मन की तामील नहीं माना और दोबारा फिर सम्मन जारी कर दिया।
यहां उम्र ऐसे ही बर्बाद करती है अदालती कार्रवाई।
अब हमने शरई अदालत में मुक़ददमा किया है। वहां क़ाज़ी दो बार डाक से सम्मन भेजेगा और तीसरी बार दस्ती यानि बाइ हैंड।
या तो शौहर आकर अपना पक्ष रखेगा या फिर नहीं आएगा। तब तीन माह के अंदर क़ाज़ी लड़की को ‘ख़ुला‘ दे देगा। लड़की दूसरी जगह निकाह करने के लिए आज़ाद होगी।
हिंदुओं में भी इस तरह की बिना ख़र्च की अदालतें हों तो लड़की के लिए जीने की राह आसान हो सकती है।
इस विषय को विस्तार से देखिए-
हिंदुस्तानी इंसाफ़ का काला चेहरा
अगर आप किसी मजलूम लड़की के बाप या उसके भाई हैं तो आपके लिए हिंदुस्तान में इंसाफ़ नहीं है, हां, इंसाफ़ का तमाशा ज़रूर है। हिंदुस्तानी अदालतें इंसाफ़ की गुहार लगाने वाले को इंसाफ़ की तरफ़ से इतना मायूस कर देती हैं कि आखि़रकार वह हौसला हार कर ज़ालिमों के सामने झुक जाता है।
यह मेरा निजी अनुभव है।
आप किसी भी अदालत में जाइये और अपनी बहन-बेटी के साथ इंसाफ़ की आस में भटक रहे लाखों लोगों में से किसी से भी पूछ लीजिए, मेरी बात की तस्दीक़ हो जाएगी।

उलमा ए इसलाम मिल्लत के साझा मसाएल हल करने के लिए मसलकी फ़िरक़ावारियत से हटकर सोचें

आपका-अख्तर खान "अकेला": गोपलागढ़ का भूत सरकार का पीछा नहीं छोड़ रहा है
पर एक टिप्पणी
कमज़ोरों के साथ यही सुलूक होता है।
जुर्म अपना है कि बंट कर कमज़ोर क्यों हुए ?
मौलाना फ़ज़्ले हक़ को कोशिश करनी चाहिए कि उलमा ए इसलाम मिल्लत के साझा मसाएल हल करने के लिए मसलकी फ़िरक़ावारियत से हटकर सोचें। पूरे मुल्क में अपना एक अमीर बनाएं और अवाम को बताएं कि उन पर हुक्म ए ख़ुदा की इत्तबा वाजिब है।
उलमा के एक होते ही अवाम एक हो जाएगी और आप के एक होते ही हरेक ताक़त सज्दे में गिर पड़ेगी।
दुनिया में ताक़तवर ही राज करता है।
ताक़त हासिल कीजिए,
शिकायतों की सुनवाई यहां कम होती है।

Wednesday, April 4, 2012

आदम हव्वा का नंगा फोटो लगाने पर हमें ऐतराज़ है

देशनामा: बोल्डनेस छोड़िए हो जाइए कूल...खुशदीप​

आदम हव्वा का नंगा फोटो लगाने पर हमें ऐतराज़ है

खुशदीप जी को उनकी ग़लती बताई तो मानने के बजाय हमारी टिप्पणी ही मिटा डाली .
खुशदीप जी की गलती दिलबाग जी ने भी दोहरा डाली .

अथर्ववेद 11,8 बताता है कि मनु कौन हैं ?
इस सूक्त के रचनाकार ऋषि कोरूपथिः हैं -
यन्मन्युर्जायामावहत संकल्पस्य गृहादधिन।
क आसं जन्याः क वराः क उ ज्येष्ठवरोऽभवत्। 1 ।

यहां स्वयंभू मनु के विवाह को सृष्टि का सबसे पहला विवाह बताया गया है और उनकी पत्नी को जाया और आद्या कहा गया है। ‘आद्या‘ का अर्थ ही पहली होता है और ‘आद्य‘ का अर्थ होता है पहला। ‘आद्य‘ धातु से ही ‘आदिम्‘ शब्द बना जो कि अरबी और हिब्रू भाषा में जाकर ‘आदम‘ हो गया।
स्वयंभू मनु का ही एक नाम आदम है। अब यह बिल्कुल स्पष्ट है। अब इसमें किसी को कोई शक न होना चाहिए कि मनु और जाया को ही आदम और हव्वा कहा जाता है और सारी मानव जाति के माता पिता यही हैं।
अपने मां बाप आदम और हव्वा अलैहिस्सलाम पर मनघड़न्त चुटकुले बनाना और उनका काल्पनिक व नंगा फ़ोटो लगाना क्या उन सबकी इंसानियत पर ही सवालिया निशान नहीं लगा रहा है जो कि यह सब देख रहे हैं और फिर भी मुस्कुरा रहे हैं ?
See
http://blogkikhabren.blogspot.in/2012/04/manu-means-adam.html
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  1. जमाल जी , जब मनु आदम एक ही हैं , तब पाला बदल कर उनको मानने का क्या औचित्य ??? तब इस्लाम का क्या औचित्य ??? हर बार आप ये कहने की कोशिश करते हैं , की दोनों धर्म एक ही हैं , फिर बार बार इस्लाम इस्लाम चिल्लाने की क्या जरुरत ... ?? इस तरह की दलीले तो मई १०० रख दूँ , खैर ये टिप्पड़ी आपके दलील पे थी .

    रही बात अदम हौव्वा को नंगी फोटो लगाने की तो इस बात पे मै आपसे सहमत हूँ ...
    Delete
  2. एक तरफ तो कहते हो हम एक ही है , एक तरफ कहते हो हम सर्वश्रेष्ठ है , किसी भी चीज को दलील देके गेंद अपने पाले करने में आप माहिर हैं . ( मेरी ये टिप्पड़ी आपके टिप्पड़ी पे है , फोटो वाले मुद्दे पे मै सहमत हूँ )
    1. @ कमल जी ! स्वयंभू मनु का ही नाम आदम है और सनातन धर्म का नाम ही अरबी में इस्लाम है, जिसका अर्थ है ईश्वर की आज्ञा का पालन करना।
      इस्लाम इस्लाम चिल्लाने का अर्थ यह है कि लोगों तक यह संदेश पहुंचे कि ईश्वर का आज्ञापालन करो।
      इसमें किसी को भी कोई आपत्ति न होनी चाहिए।

      इस्लाम की एक ख़ास बात यह है कि क़ुरआन में सबसे पहले जिस ऋषि का वृत्तांत बताया गया है वह स्वयंभू मनु हैं। क़ुरआन में हमारे पास मनु महाराज का ऐसा आदर्श चरित्र है जिस पर दुनिया का एक भी आदमी ऐतराज़ नहीं कर सकता। इसीलिए हम मनु महाराज की शिक्षाओं पर उठने वाले ऐतराज़ का निराकरण करने में सक्षम हैं।
      हम मनु के धर्म पर हैं, हम मनुवादी हैं और वास्तव में मनुवादी हैं ही हम। मनु ने अपनी संतान को बराबरी की शिक्षा दी थी, यह बात केवल हम कह सकते हैं, आप नहीं।
      पाला हमने नहीं बदला है बल्कि आपने ही धर्म और धार्मिक इतिहास भुला दिया है।

Monday, April 2, 2012

पत्नी की संतुष्टि उसका स्वाभाविक अधिकार है Women's Natural Right

वंदना गुप्ता जी ने हिंदी ब्लॉग जगत को एक पोस्ट दी है ‘संभलकर, विषय बोल्ड है‘
हमने उनकी इस पोस्ट पर अपनी टिप्पणी देते हुए कहा है कि

वंदना गुप्ता जी ! आपने नर नारी संबंधों के क्रियात्मक पक्ष की जानकारी बहुत साफ़ शब्दों में दी है। यह सबके काम आएगी। तश्बीह, तम्सील और बिम्बों के ज़रिये कही गई बात को केवल विद्वान ही समझ पाते हैं और फिर उनके अर्थ भी हरेक आदमी अलग अलग ले लेता है। आपका साहित्य सरल है इसे हरेक आदमी समझ सकता है। पुरूषों को यह बात ज़रूर जाननी चाहिए कि शारीरिक संबंधों की अदायगी भी क़ायदे से होनी चाहिए जैसे कि धार्मिक कर्मकांड और इबादत में इस बात का ध्यान रखा जाता है कि कहीं भी कोई कमी न रह जाए।
ईश्वर तक पहुंचने के लिए सीढ़ी माने जाने वालों से पत्नी के लिए पति और पति के लिए पत्नी भी हैं।
ईश्वर की प्रसन्नता चाहना भारतीय संस्कृति का अभिन्न तत्व है और अरबी संस्कृति का भी। संपूर्ण विश्व की आध्यात्मिक संस्कृति का मूल तत्व यही है। पत्नी भी प्रसन्न है कि नहीं, यह भी देखना बहुत ज़रूरी है। मां बाप गुरू अतिथि और पत्नी राज़ी हैं तो समझ लीजिए कि आपसे आपका रब भी राज़ी है।
पत्नी को राज़ी करना भी निहायत ही आसान है।
पत्नी चाहती क्या है ?
सिर्फ़ दो बोल प्रशंसा के,
जैसे कि ...
जब से तुम इस घर में आई हो मेरी ज़िंदगी संवर गई है।
तुम्हारे प्यार की क़द्र मेरे दिल में बहुत गहराई तक है।

बस हो गई नारी तुम्हारी, दिल से सदा के लिए।
लेकिन यह तारीफ़ दिल से निकलनी चाहिए।
औरत समर्पण करती है और अपने आप को मिटाती है तो उसे तारीफ़ मिलनी भी चाहिए।

मर्द को अपने खान पान को भी ‘औरत ओरिएंटिड‘ रखना चाहिए। मर्द को मछली और मुर्ग़ा ज़रूर खाना चाहिए। अगर मर्द शाकाहार का अभ्यस्त हो और सीधे मांस न खा सकता हो तो उसे दूध, शहद, बादाम, पनीर, लहसुन, अदरक, आंवला और एलोवेरा का सेवन ज़रूर करना चाहिए। बदन में जितनी ज़्यादा जान होगी, वह अपने महबूब के साथ उतना ही लंबा सफ़र कर सकता है।
महबूब को चांद के पार ले जाने में एलोवेरा का जवाब नहीं है। एलोवेरा के सेवन के बाद नारी तो संतुष्ट हो ही जाती है लेकिन मर्द संतुष्टि के अहसास को रिपीट करने का बल तुरंत ही पाता है।
चरम सुख के शीर्ष पर औरत का प्राकृतिक अधिकार है, हमारा यह उदघोष सदा से ही है।

इतनी लंबी टिप्पणी सिर्फ़ इसलिए कि जो भी पढ़े उसका वैवाहिक जीवन पूरी तरह संतुष्ट हो। संतोष परम धन है और हम भारत के युवक युवकों को ही नहीं बल्कि वृद्धों और वृद्धाओं को भी परम धनी देखना चाहते हैं। विधवा और विधुर सब इस धन से समृद्ध हों।
यह परम धन पास हो तो फिर लौकिक धन मुद्रा की कमी नर नारी को परेशान नहीं करती। उच्च के सामने तुच्छ का मूल्य गौण हुआ करता है।

Thursday, March 15, 2012

दिव्य प्राचीन भारतीय औषधियों का चर्चा बंद क्यों कर दिया गया ? ancient charak sanhita


डा. श्याम गुप्त ने कहा…
----आप और कुमार राधारमण भी वही कर रहे हैं जिन अन्य लोगों की आप आलोचना कर रहे हैं...... ---- नेचुरोपेथी...का सही भारतीय शब्द ’प्राक्रतिक चिकित्सा ’ है...आप क्यों इस चिकित्सा के लिये विदेशों में, विदेशी पुस्तकों, चिकित्सा शास्त्रों में घूम रहे है, उन्ही का लिखा-लिखाया उगले जा रहे हैं, अपनी पोस्टों-अलेखों में,.. अपने धन्धे को चलाने के लिये? ---- कुछ भारतीय सन्दर्भों को भी टटोलिये...सामने लाइये..

DR. ANWER JAMAL ने कहा…
दिव्य प्राचीन भारतीय औषधियां @ डा. श्याम गुप्ता जी ! 1. पोस्ट लिखकर हमने हिंदी ब्लॉगर्स को नेचुरोपैथी की प्रेरणा दी है, जो लोग करेंगे इससे उनकी तक़दीर संवरेगी, हमारा धंधा इस पोस्ट से चमकने वाला नहीं है। 2. आप अपने नाम के साथ अंग्रज़ी का शब्द डॉक्टर लिखते हैं, क्यों ? क्या डॉक्टर के लिए हिंदी में कोई शब्द नहीं है ? 3. हर बात पर बेवजह ऐतराज़ करना ठीक नहीं होता। प्राकृतिक चिकित्सा के मुक़ाबले नेचुरोपैथी शब्द सरल है और इसे लोग समझते भी हैं, इसीलिए हमने इसे इस्तेमाल किया है। 4. कृप्या ध्यान दीजिए कि नेचर या प्रकृति के समीप रहना केवल भारतीय ही नहीं जानते थे। हरेक काल में हरेक देश के किसान और ग़रीब मज़दूर हमेशा ही प्रकृति के क़रीब रहे हैं। ये लोग हमेशा से ही मिटटी, पानी और जड़ी बूटियों का इस्तेमाल जानते रहे हैं। यहां तक कि इन चीज़ों का इस्तेमाल करना वे भी सदा से जानते हैं जिन्हें जंगली जानवर कहा जाता है। भारत के लोग भी जानते थे लेकिन ऐसा नहीं है कि केवल भारत के लोग ही प्रकृति के वरदानों का इस्तेमाल जानते थे और दूसरे सब बिल्कुल कोरे ही थे। 5. आप भारतीय चिकित्सा विज्ञानियों के ज्ञान का उद्धरण देने का आग्रह कर ही रहे हैं तो आपके मानवर्धन हेतु हम यहां कहना चाहेंगे कि प्राचीन भारतीय चिकित्सकों के नुस्ख़े बहुत कारगर हैं, दुख की बात यह है कि इन्हें बताने वाला भी आज कोई बिरला ही है, आप चाहें तो इसका लाभ उठा सकते हैं - बर्हितित्तरिदक्षाणां हंसानां शूकरोष्ट्रयोः खरगोमहिषाणां च मांसं मांसकरं परम्. -चरकसंहिता चिकित्सा स्थानानम् 8,158 अर्थात मोर,तीतर,मुरग़ा,हंस,सुअर,ऊंट,गधा,गाय और भैंस का मांस रोगी के शरीर का मांस बढ़ाने के लिए यक्ष्मा रोगी के लिए उत्तम है. आप चाहें तो इस पर शोध करके यक्ष्मा की कोई जल्दी असर करने वाली औषधि भी बना सकते हैं। सारा विश्व आपकी प्रतिभा का लोहा मान जाएगा लेकिन हमें तो यह लगता है कि आप इस नुस्ख़े का ज़िक्र भी कहीं न करेंगे। भारतीय ऋषि तो बहुत कुछ जानते थे और बहुत कुछ करते थे, आप कहां उनके ज्ञान का प्रचार प्रसार कर पाएंगे ?
यह संवाद हमने अपनी पोस्ट पर किया  है जो कि 'भारतीय नारी' ब्लॉग पर प्रकाशित हुई है -

लड़कियों और महिलाओं के लिए नेचुरोपैथी

लड़कियों और महिलाओं के लिए नेचुरोपैथी में करिअर बनाना बहुत आसान भी है और बहुत लाभदायक भी. इसके ज़रिये वे खुद को और अपने परिवार को तंदरुस्त भी रख सकती हैं और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर भी बन सकती हैं.

प्राकृतिक जीवन पद्धति है नेचुरोपैथी Naturopathy in India



नेचुरोपैथी सीखने के लिए हमने भी औपचारिक रूप से  D.N.Y.S. किया है। आजकल धनी लोग इस पैथी की तरफ़ रूख़ भी कर रहे हैं। रूपया काफ़ी है इसमें। फ़ाइव स्टारनुमा अस्पताल तक खुल चुके हैं नेचुरोपैथी के और इस तरह एक सादा चीज़ फिर व्यवसायिकता की भेंट चढ़ गई।
यह ऐसा है जैसे कि भारत में जिस संत ने भी एक ईश्वर की उपासना पर बल दिया, उसे ही जानबूझ कर उपासनीय बना दिया गया।
शिरडी के साईं बाबा इस की ताज़ा मिसाल हैं। उनसे पहले कबीर थे। यह उन लोगों ने किया जिन लोगों ने धर्म को व्यवसाय बना रखा है और एकेश्वरवाद से उनके धंधा चौपट होता है तो वे ऐसा करते हैं कि उनका धंधा चौपट करने वाले को भी वह देवता घोषित कर देते हैं।
जिन लोगों ने दवा को सेवा के बजाय बिज़नैस बना लिया है वे कभी नहीं चाह सकते कि उनका धंधा चौपट हो जाए और लोग जान लें कि वे मौसम, खान पान और व्यायाम करके निरोग रह भी सकते हैं और निरोग हो भी सकते हैं।
ईश्वर ने सेहतमंद रहने का वरदान दिया था लेकिन हमने क़ुदरत के नियमों की अवहेलना की और हम बीमारियों में जकड़ते गए। हमें तौबा की ज़रूरत है। ‘तौबा‘ का अर्थ है ‘पलटना‘ अर्थात हमें पलटकर वहीं आना है जहां हमारे पूर्वज थे जो कि क़ुदरत के नियमों का पालन करते थे। उनकी सेहत अच्छी थी और उनकी उम्र भी हमसे ज़्यादा थी। उनमें इंसानियत और शराफ़त हमसे ज़्यादा थी। हमारे पास बस साधन उनसे ज़्यादा हैं और इन साधनों को पाने के चक्कर में हमने अपनी सेहत भी खो दी है और अपनी ज़मीन की आबो हवा में भी ज़हर घोल दिया है। हमारे कर्म हमारे सामने आ रहे हैं।
अब तौबा और प्रायश्चित करके ही हम बच सकते हैं।
यह बात भी हमारे पूर्वज ही हमें सिखा गए हैं।
हमारे पूर्वज हमें योग भी सिखाकर गए थे लेकिन आज योग को भी व्यापार बना दिया गया है। जो व्यापार कर रहा है लोग उसे बाबा समझ रहे हैं।
हमारे पूर्वज हमें ‘आर्ट ऑफ़ लिविंग‘ मुफ़्त में सिखाकर गए थे लेकिन अब यह कला सिखाने की बाक़ायदा फ़ीस वसूल की जाती है।
कोई भगवा पहनकर धंधा कर रहा है और सफ़ेद कपड़े पहनकर। इनकी आलीशान अट्टालिकाएं ही आपको बता देंगी कि ये ऋषि मुनियों के मार्ग पर हैं या उनसे हटकर चल रहे हैं ?
कुमार राधा रमण जी की यह पोस्ट भी आपके लिए मुफ़ीद  है, देखिए:

नेचुरोपैथी में करिअर

नेचुरोपैथी उपचार का न केवल सरल और व्यवहारिक तरीका प्रदान करता है , बल्कि यह तरीका स्वास्थ्य की नींव पर ध्यान देने का किफायती ढांचा भी प्रदान करता है। स्वास्थ्य और खुशहाली वापस लाने के कुदरती तरीकों के कारण यह काफी पॉप्युलर हो रहा है।
नेचुरोपैथी शरीर को ठीक - ठाक रखने के विज्ञान की प्रणाली है , जो शरीर में मौजूद शक्ति को प्रकृति के पांच महान तत्वों की सहायता से फिर से स्वास्थ्य की प्राप्ति के लिए उत्तेजित करती है। अन्य शब्दों में कहा जाए तो नेचुरोपथी स्वयं , समाज और पर्यावरण के साथ सामंजस्य करके जीने का सरल तरीका अपनाना है।
नेचुरोपैथी रोग प्रबंधन का न केवल सरल और व्यवहारिक तरीका प्रदान करता है , बल्कि एक मजबूत सैद्धांतिक आधार भी प्रदान करता है। यह तरीका स्वास्थ्य की नींव पर ध्यान देने का किफायती ढांचा भी प्रदान करता है। नेचुरोपथी पश्चिमी दुनिया के बाद दुनिया के अन्य हिस्सों में भी जीवन में खुशहाली वापस लाने के कुदरती तरीकों के कारण लोकप्रिय हो रहा है।
कुछ लोग इस पद्धति की शुरुआत करने वाले के रूप में फादर ऑफ मेडिसिन हिपोक्रेट्स को मानते हैं। कहा जाता है कि हिपोक्रेट्स ने नेचुरोपथी की वकालत करना तब शुरू कर दिया था , जब यह शब्द भी वजूद में नहीं था। आधुनिक नेचुरोपैथी की शुरुआत यूरोप के नेचर केयर आंदोलन से जुड़ी मानी जाती है। 1880 में स्कॉटलैंड में थॉमस एलिंसन ने हायजेनिक मेडिसिन की वकालत की थी। उनके तरीके में कुदरती खानपान और व्यायाम जैसी चीजें शामिल थीं और वह तंबाकू के इस्तेमाल और ज्यादा काम करने से मना करते थे।
नेचुरोपैथी शब्द ग्रीक और लैटिन भाषा से लिया गया है। नेचुरोपथी शब्द जॉन स्टील (1895) की देन है। इसे बाद में बेनडिक्ट लस्ट ( फादर ऑफ अमेरिकन नेचुरोपथी ) ने लोकप्रिय बनाया। आज इस शब्द और पद्धति की इतनी लोकप्रियता है कि कुछ लोग तो इसे समय की मांग तक कहने लगे हैं। लस्ट का नेचुरोपैथी के क्षेत्र में काफी योगदान रहा। उनका तरीका भी थॉमस एलिंसन की तरह ही था। उन्होंने इसे महज एक तरीके की जगह इसे बड़ा विषय करार दिया और नेचुरोपथी में हर्बल मेडिसिन और हाइड्रोथेरेपी जैसी चीजों को भी शामिल किया।


क्या है नेचुरोपैथी
यह कुदरती तरीके से स्वस्थ जिंदगी जीने की कला है। मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि इस पद्धति के जरिये व्यक्ति का उपचार बिना दवाइयों के किया जाता है। इसमें स्वास्थ्य और रोग के अपने अलग सिद्धांत हैं और उपचार की अवधारणाएं भी अलग प्रकार की हैं। आधुनिक जमाने में भले इस पद्धति की यूरोप में शुरुआत हुई हो , लेकिन अपने वेदों और प्राचीन शास्त्रों में अनेकों स्थान पर इसका उल्लेख मिलता है। अपने देश में नेचुरोपैथी की एक तरह से फिर से शुरुआत जर्मनी के लुई कुहने की पुस्तक न्यू साइंस ऑफ हीलिंग के अनुवाद के बाद माना जाता है। डी वेंकट चेलापति ने 1894 में इस पुस्तक का अनुवाद तेलुगु में किया था। 20 वीं सदी में इस पुस्तक का अनुवाद हिंदी और उर्दू वगैरह में भी हुआ। इस पद्धति से गांधी जी भी प्रभावित थे। उन पर एडोल्फ जस्ट की पुस्तक रिटर्न टु नेचर का काफी प्रभाव था।


नेचुरोपथी का स्वरूप
मनुष्य की जीवन शैली और उसके स्वास्थ्य का अहम जुड़ाव है। चिकित्सा के इस तरीके में प्रकृति के साथ जीवनशैली का सामंजस्य स्थापित करना मुख्य रूप से सिखाया जाता है। इस पद्धति में खानपान की शैली और हावभाव के आधार पर इलाज किया जाता है। रोगी को जड़ी - बूटी आधारित दवाइयां दी जाती हैं। कहने का अर्थ यह है कि दवाइयों में किसी भी प्रकार के रसायन के इस्तेमाल से बचा जाता है। ज्यादातर दवाइयां भी नेचुरोपथी प्रैक्टिशनर खुद तैयार करते हैं।


कौन - कौन से कोर्स
इस समय देश में एक दर्जन से ज्यादा कॉलेजों में नेचुरोपैथी की पढ़ाई देश में स्नातक स्तर पर मुहैया कराई जा रही है। इसके तहत बीएनवाईएस ( बैचलर ऑफ नेचुरोपथी एंड योगा साइंस ) की डिग्री दी जाती है। कोर्स की अवधि साढ़े पांच साल की रखी गई है।


अवसर
संबंधित कोर्स करने के बाद स्टूडेंट्स के पास नौकरी या अपना प्रैक्टिस शुरू करने जैसे मौके होते हैं। सरकारी और निजी अस्पतालों में भी इस पद्धति को पॉप्युलर किया जा रहा है। खासकर सरकारी अस्पतालों में भारत सरकार का आयुष विभाग इसे लोकप्रिय बनाने में लगा है। ऐसे अस्पतालों में नेचुरोपैथी के अलग से डॉक्टर भी रखे जा रहे हैं। अगर आप निजी व्यवसाय करना चाहते हैं तो क्लीनिक भी खोल सकते हैं। अच्छे जानकारों के पास नेचुरोपैथी शिक्षण केन्द्रों में शिक्षक के रूप में भी काम करने के अवसर उपलब्ध हैं। आप चाहें तो दूसरे देशों में जाकर काम करने के अवसर भी पा सकते हैं।

क्वॉलिफिकेशन
अगर आप इस फील्ड में जाकर अपना करियर बनाना चाहते हैं तो आपके पास न्यूनतम शैक्षिक योग्यता 12 वीं है। 12 वीं फिजिक्स , केमिस्ट्री और बायॉलजी विषयों के साथ होनी चाहिए(निर्भय कुमार,नवभारत टाइम्स,दिल्ली,1.2.12)।