Saturday, February 26, 2011

नारी नर का सहारा होकर क्यों खुद बेसहारा है आज भी ? The greedy seller

नाव अलग थी ,
अलग था घाट भी
नदी अलग थी
अलग था मार्ग भी
तन वही था मन वही
नयन वही था
वही था सपन भी
जिनमें वफ़ा की आस थी
चातक सी प्यास थी
काया थी माया थी
सपनों की पूरी एक दुनिया थी
जीवन की यह माला थी
जो टूटी और बिखर गई
समय के प्रहार से
किन्तु मैं यह माला
आँसुओं की डोर में
पिरो रही हूं आज भी

उम्र तो पानी है
जिसमें रवानी है
जो बहता है पल पल
माटी के शरीर में
प्रत्येक नस नाड़ी में
अपने निशान छोड़ता हुआ
आत्मा अमर है और
मन भी चिर युवा
मानव का मूल मन है
मन एक दर्पण है
इच्छाओं का भंडार है
व्याकुल है यह आज भी
इंतज़ार है किसी का उसे आज भी

दान धर्म है
और प्रेम तपस्या
प्रेम, दान-धैर्य में बल है
मनुष्य, पर बड़ा निर्बल है
नर का सहारा नारी तो है आज भी
नारी मगर ख़ुद क्यों बेसहारा है आज भी ?
......
रश्मि प्रभा जी की रचना 'जो जीता वही सिकंदर' को पढ़कर जो भाव मन में उठे , उन्हें शब्दों में व्यक्त किया तो यह रचना सामने आई ।