Friday, September 14, 2012

हिफ़ाज़त की दुआ जो इंसान को गोलियों की बौछार में भी हादसों से महफ़ूज़ रखती है Dua for safety

इंसान से ग़लतियां होती ही हैं। इंसान ग़लतियों से सीखता है। मानव जाति के पास आज जो भी ज्ञान है। वह इसी तरह अर्जित हुआ है। ग़लतियों से मन में ग्लानि और पश्चात्ताप भी पैदा होता है। मन ग्लानि के बोझ से मुक्त हो जाए इसके लिए ही प्रायश्चित का विधान रखा गया है। किसी भी चीज़ में मन ऐसा उलझकर न रह जाए कि इंसान की तरक्क़ी रूक जाए। इसका ध्यान सदा रखना चाहिए।
माल के लालच ने इंसान की सही ग़लत की तमीज़ विकृत कर दी है और वह पश्चात्ताप और आत्मसुधार को भी भुला बैठा है। इंसान अपनी मौत को याद रखे तो वह अपने जीवन की क़ीमत को समझ सकता है वर्ना उसकी मौत तो क्या उसका जीना भी एक हादसा बनकर रह गया है। जो लोग हादसों में मर गए, वे मर तो गए। अब तो जीना भी दुश्वार हो रहा है। सड़कों पर चलना तो क्या घरों में रहना भी सुरक्षा की गारंटी नहीं बचा। घरों तक में ऐसे हादसे वुजूद में आ रहे हैं कि उन्हें न तो भुलाए बनता है और न ही कोई प्रायश्चित उन बुरी यादों को मन से निकाल पाता है।
हम तो अपने बच्चों को जब घर से बाहर स्कूल वग़ैरह भेजते हैं तो पहले अल्लाह के दो नाम ‘या हफ़ीज़ू या सलाम‘ चंद बार पढ़कर उनकी हिफ़ाज़त और सलामती की दुआ करते हैं फिर उन पर दम करते हैं। जहां इंसान की तदबीर काम नहीं देती दुआ वहां भी काम आती है।


पोस्ट अच्छी लगी।
-------------------------------------------
यह कमेंट पल्लवी सक्सेना जी की निम्न पोस्ट पर दिया गया है-

हादसे और ग्लानि

मैं तो यह सोचती हूँ जब नए-नए डॉक्टर के हाथों किसी मरीज की मौत हो जाती है तब उन्हें कैसा लगता होगा। क्या वह डॉक्टर उसे होनी या अनुभव का नाम देकर आसानी से जी लिया करते है। हालांकी कोई भी डॉक्टर किसी भी मरीज की जान जानबूझकर नहीं लेता। मगर हर डॉक्टर की ज़िंदगी में कभी न कभी ऐसा मौका ज़रूर आता है खासकर सर्जन की ज़िंदगी में, जब जाने अंजाने या परिस्थितियों के कारण उनके किसी मरीज की मौत हो जाती है। तब उन्हें कैसा लगता है और वो क्या सोचते हैं। वैसे तो आज डॉक्टरी पेशे में भी लोग बहुत ही ज्यादा संवेदनहीन हो गए हैं जिन्हें सिर्फ पैसों से मतलब है मरीज की जान से नहीं, खैर वो एक अलग मसला है और उस पर बात फिर कभी होगी या फिर यदि उन लोगों की बात की जाये जो बदले की आग में किसी पर तेज़ाब फेंक दिया करते है। क्या ऐसा घिनौना काम करने के बाद भी वो उस व्यक्ति के प्रति ग्लानि महसूस करते होंगे ? शायद नहीं क्यूंकि यदि ऐसा होता तो शायद वो इतना घिनौना काम करते ही नहीं मगर क्या ऐसे लोग उस हादसे को महज़ एक होनी समझ कर भूल जाते है ? या ज़िंदगी भर कहीं न कहीं दिल के किसी कौने में उन्हें इस बात की ग्लानि रहा करती है कि उनकी वजह से किसी की ज़िंदगी बरबाद हो गयी या जान चली गयी क्या इस बात का अफसोस उन्हें रहा करता है ? क्या ऐसे पेशे में यह बात इतनी साधारण और आम होती है जिस पर बात करते वक्त उस हादसे से जुड़े लोगों के चहरे पर किसी तरह का कोई अफसोस या एक शिकन तक नज़र नहीं आती।