Sunday, March 6, 2011

इसलाम की ज्ञानराशि से अनायास संपन्न हो रही हिंदू कवयित्रियों में से एक हैं हरकीरत 'हीर' Across the river

इस्लाम आपको इतना अच्छा लगेगा कि आप भी मुसलमान हो जाएँगी , इंशा अल्लाह .
हाथ कंगन को आरसी क्या और पढ़े लिखे को पंजाबी क्या ?
बहन हरकीरत जी ! इस्लाम का इल्म रखने वाले और उस पर अमल करने वाले किसी भी आलिम के घर में या किसी भी आम आदमी के घर में जाकर देख लीजिये कि उनकी औरतें दुनिया में भी जन्नत में रहती हैं . आप मेरे घर में आकर देख लीजिये . आप न आ सकें तो मुझ से फोन नंबर लेकर मेरी बहनों और मेरी बीवी से बात कर लीजिये कि वो मुझ से और इस्लाम के कानून से कितनी संतुष्ट हैं . सभी परदे कीई  पाबंद हैं और कान्वेंट एजुकेटिड हैं, बीवी विदेश में तालीम पा चुकी हैं और मेरी बहनें पोस्ट ग्रेजुएट कर चुकी   हैं .
अब मैं आपको अन्दर की बात भी बट्टा  दूँ , जो कि आम तौर  पर  कोई आपको न बताएगा .
मेरी बीवी नेक है लेकिन किसी को तबलीग नहीं कर सकती अर्थात निहायत तन्हाई पसंद  है, कुछ उनके घरवालों की  गलतियाँ भी थीं कि शादी के बाद  मेरे घर में झगड़ा शुरू  हो गया और मैंने पक्का इरादा कर लिया कि मैं उन्हें हर हाल में तलाक़ देकर रहूँगा . यह गुस्सा इतनी पक्की बुनियादों पर था कि उनके वालिद न कल बोल सकते थे और न आज बोल सकते हैं कि मैं गलत हूँ. तीन बच्चे होने के बाद भी मेरा इरादा यही था कि तलाक़ तो मैं हर हाल में दूंगा लेकिन जब भी कुरान   पढ़ा , हदीस पढ़ी . अपने मौलाना से पूछा, हर जगह से यही आवाज़ आई कि यह काम मत करना , गलतियों को माफ़ करो और भुला दो तुम्हारा रब भी यही करता है और ऐसा ही करने के किये कहता है तमाम जायज़ चीज़ों में अल्लाह के नज़दीक सबसे नापसंद चीज़ तलाक़ है .
खुदा कि नापसंद चीज़ को मैं कैसे करूं  ?
माँ बाप और भाई बहन सब बीवी की    तरफ से  खड़े  हो गए . सास ससुर तो विदेश  लौट गए थे अपनी बेटी इण्डिया  में ब्याह कर . उनकी तरफ से मेरे घर वाले ही मेरे फैसले कि मुखालिफ़त  करते थे . उनकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ भी मैं जा ही नहीं सकता था .
मेरी हिम्मत नहीं होती थी तलाक़ देने की और वक़्त गुज़रता रहा और फिर ऐसा हुआ कि वक़्त ने दिल के घाव पर मरहम का काम  किया और अब मेरे दिल में अन्दर से भी कोई ख्वाहिश नहीं है कि मैं अपनी बीवी को तलाक़ दूं.  और मज़े की बात यह है कि मेरी बीवी मुझ से , मेरे बर्ताव से आज जितना खुश हैं  उससे ज्यादा  खुश वो तब थीं जब मैं तलाक़ देने  का इरादा रखता था क्योंकि पिछले एक साल से इंटरनेट मेरा बहुत वक्त पी जाता है.  
'गैरमुस्लिम इस्लाम-दुश्मनों' की  किताबों से इस्लाम को जानने की  कोशिश मत कीजिये . इस्लाम पर इल्म के साथ  अमल करने वालों  जिंदगियां की  देखिये  आपको इतना अच्छा लगेगा कि आप भी मुसलमान हो जाएँगी , इंशा अल्लाह .जैसे की कमलादास और बहुत सी हिन्दू कवयित्रियाँ  मुसलमान हो चुकी हैं .
मैं जो करता हूँ वही कहता हूँ और जो सोचता हूँ वही आपको बताता हूँ .
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आप मेरे इस कमेन्ट को हरकीरत 'हीर' जी के ब्लॉग भी देख दकते हैं.
अब आप देखिये उनकी वह कविता जिसमें वह अपनी जानकारी की कमी की कमी की वजह से इस्लाम को इलज़ाम दे रही हैं .

Harkeerat 'Heer'
 अब पेश है इक नज़्म ....' इक औरत ''
इस्लाम धर्म में औरत


पर इतनी पाबंदियां हैं कि रूह काँप जाती है सुन .....


इक औरत ....

सुप्त सी ...
अनसिये ज़ख्मों तले
लिपटा ली जाती है देह मेरी
जहाँ ज़िस्म की गंध उतरती हैकभी दूसरी,कभी तीसरी .....
तो कभी चौथी बन ....

रात गला काटती है
कई ज़ज्बात मरते हैंइक ज़हरीली सी कड़वाहट
उतर जाती है हलक में .....
तुम नहीं खड़ी हो सकतीखुदा की इबादत के लिएमेरी बराबरी पर .....
तुम्हारा वजूद .....
ज़ुल्म सहने ,तिरस्कार झेलने
और बुर्के की ओट में कैद है
तुम्हारी नस्ल को....
तालीम हासिल करने का हक नहींतुम्हारा गुनाह है ...
तुम इस कौम में पैदा हुई ....
तुम जिन्दा रहोगी
तो मेरे रहमोकरम पर .....
उफ्फ़ ....
.
इन शब्दों का खौफ
डराता है मुझे .....
ये किसकी अर्थी है ...
पत्तो से झूलती हुई .....
ये कौन लिए जा रहा है
मेरे मन की लाशें ......
ये कैसा धर्म है ...?
ये कैसा ईमान है ....?
ये कैसी जहालतें हैं ...?ये कैसा कानून है ...?
ये कैसी जड़ कौम है ....?

मेरे ज़िस्म पर मेरे खाविंद कामालिकाना हक़ है ...मेरे विचारों पर फतवे हैं ...मेरी सोच पर लगाम है ...

ओह ...!
यकसां ये 'तलाक' का
तीन बार कहा गया शब्दमेरे सामने चीखने लगा है ......मेरे अन्दर कोई पौधाकैक्टस बन उग आया हैये पत्थर क्यूँ रोशनदानों से झांकते हैं ?चुप की चादर ताने ये सुरमई अँधेरा
किस उडीक में है ......?

अधिकार
के सारे शब्द तुम्हारे हाथों में .....
और मेरे हाथों में सारे कर्तव्य ?

अय
खुदा ...!
बता मैं कटघरे में क्यों हूँ ?मैं औरत क्यों हूँ ...?
मुझे औरत होने से गुरेज है ...मुझे औरत होने से गुरेज है ......!!


( इस नज्म के लिए मैं राजेन्द्र जी से माफ़ी चाहूंगी क्योंकि उन्हें इस तरह की नज्में नजायज़ लगतीं हैं )