Thursday, January 5, 2012

नास्तिक विचार इंसान को भ्रष्टाचार की प्रेरणा देता है। Atheist

@ भाई सुज्ञ जी ! वाक़ई आपने हक़ीक़त बयान की है। डर इंसान की प्रवृत्ति का अंग है। उसका सही इस्तेमाल किया जाए तो एक अच्छे चरित्र का निर्माण किया जा सकता है। हरेक इंसान को अपने अच्छे बुरे कर्मों का फल भोगना ही है। इसीलिए कुछ भी करने से पहले उसे उसके फल के बारे में ज़रूर सोच लेना चाहिए।
क़ुरआन में कहा गया है-
ऐ ईमान वालो! परमेश्वर का डर (तक़वा) इख्तियार करो और हर आदमी को देखना चाहिये कि उसने आने वाले कल के लिए आगे क्या भेजा है ? और डरो परमेश्वर से निस्संदेह परमेश्वर को उन तमाम कामों की ख़बर है जो तुम करते हो । -पवित्र कुरआन, 59, 18
 
आदमी का स्वभाव है कि वह काम का अंजाम चाहता है। परमेश्वर ने उसे उसके स्वभाव के अनुसार ही शिक्षा दी है कि हरेक आदमी को चाहिए कि वह पहले फल की चिन्ता करे ताकि उसका काम फलप्रद हो। जो भी उपदेशक आदमी को फल से बेफ़िक्र करता है दरअस्ल वह उसका दिल काम से ही उचाट कर देता है।

आपने बिल्कुल सही कहा है कि ‘नास्तिक सदाचार के पांव ही नहीं हैं।‘
झूठ के पांव होते भी नहीं हैं।
नास्तिकता के पांव तो क्या, शायद सिर भी नहीं होता वर्ना इंसान की प्रवृत्ति को तो नास्तिक जान ही लेते। जब ये लोग इंसान के दिल से डर ही निकाल देते हैं कि कर्मों का फल देने वाली कोई अलौकिक व्यवस्था नहीं है तो फिर लोग ऐसी जगह जुर्म करने से क्यों डरेंगे, जहां क़ानून के हाथ पहुंचते ही नहीं या वे उसे भी ख़रीदने की ताक़त रखते हैं। इस तरह ताक़तवर के लिए डरने की कोई वजह नहीं रह जाती।
आपके इस लेख की जितनी भी तारीफ़ की जाए कम है।
Fruit n work हरेक आदमी को चाहिए कि वह पहले फल की चिन्ता करे ताकि उसका काम फलप्रद हो।
http://vedquran.blogspot.com/2010/05/fruit-n-work.html

अब आप सुज्ञ जी की पोस्ट भी देखें :

ल मैने चर्चा के दौरान कहा था कि “नास्तिक-सदाचार अपने पैरों पर क्या खड़ा होगा? उस सदाचार के तो पैर ही नहीं होते”।

हमारे में सभी सद्गुण भय से ही स्थायित्व पाते है। भय प्रत्येक जीव की प्राकृतिक संज्ञा है। ईश्वर-आस्तिक को ईश्वर के नाराज़ होनें का भय रहता है। कर्म-फल-आस्तिक को बुरे प्रतिफल मिलने का भय रहता है। तो नास्तिक को बुरा व्यक्तित्व कहलाने का भय रहता है। इसी भय से सभी सदाचारी रहना उचित मानते है। आस्तिको को ईश्वर और कर्म-फल का आधार रहता है। उन्हें सदाचार की प्रसंसा और प्रतिफल अगर त्वरित नहीं मिलते तो आस्तिक सब्र कर लेता है। और निर्णायक दिन या अगले जन्म का इन्तजार कर लेता है। 

किन्तु भौतिकवादी नास्तिक, सदाचार के प्रतिफल में अनुकूल परिणाम न मिलने पर निराश होकर सदाचार से पल्ला झाड़ लेता है। इसप्रकार सदाचार पर टिके रहने को उसके पास पर्याप्त आधार नहीं होता। उसी आशय से मैने कहा था, “नास्तिकी सदाचार के पैर ही नहीं होते”

चुकिं सदाचार घोर परिश्रम, सहनशीलता और धैर्य मांगता है। कईं बार उपकार का बदला अपकार से मिलता है। कईं बार सदाचारी कायरों में गिन लिया जाता है। तो कभी भयभीत भी मान लिया जाता है। सदाचारी के शत्रुओं की संख्या भी बढ जाती है। कभी अपकीर्ती भी आरोपित हो जाती है। इस मार्ग पर डटे रहना तलवार की धार पर चलनें के समान है।

कर्म-फल पर विश्वास करता हुआ आस्तिक इस विश्वास के साथ अटल रहता है कि देर-सबेर मुझे अच्छे कर्मों का प्रतिफल अच्छा ही मिलना है। आज नहीं तो कल, इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में। मै अपने सब्र की डोर न छोडूं। वह दृढता से निभाता चला जाता है। इसी आत्मबल के कारण सदाचार निभ भी जाते है।

वहीं प्रतिकूल परिस्थिति में नास्तिक के सब्र का बांध टूट जाता है। भलाई का बदला बुराई से मिलते ही उसके भौतिक नियमों में खलबली मच जाती है। वह सोचता है तब तो सदैव सदाचार का बदला बुरा ही मिलता है। फिर क्यों वह अनावश्यक सदाचार निभाकर दुख पीड़ा और प्रतीक्षा मोल ले? धर्मग्रंथों से मिलने वाली उर्ज़ा के अभाव में, नास्तिक-सदाचार वह लम्बी दौड नहीं दौड सकता। स्टैण्ड़ विहिन इस नास्तिक-सदाचार को मैनें पैर रहित पाया। बिना आधार के वे सदाचार किसके पैरों पर खड़े होंगे? http://shrut-sugya.blogspot.com/2011/06/blog-post.html