हिंदू भाईयों के तीन मेजर कॉम्पलैक्स
भाई घनश्याम मौर्य जी ! इस तत्व चर्चा में आपका स्वागत है। आप लोगों के साथ एक बड़ी प्रॉब्लम आपका अज्ञान है और दूसरी बेसलेस अहंकार और तीसरी प्रॉब्लम यह है कि आप लोग केवल वक्तव्य देते हैं लेकिन उसे प्रमाणित करने के लिए सुबूत कुछ भी नहीं देते। आप अपने नज़रिये वाले हिंदू धर्म को सनातन भी कह रहे हैं और धर्म भी और यह भी कह रहे हैं कि यह कोई मत या संप्रदाय नहीं है। जबकि हक़ीक़त यह है कि मौजूदा हिंदू धर्म मात्र एक मत या संप्रदाय नहीं है वरन् मतों और संप्रदायों का एक बहुत बड़ा समूह है। इसमें किसी भी आदमी के लिए किसी भी मत-संप्रदाय में आस्था रखना और उसके नियमों का पालन करना अनिवार्य नहीं है। आज एक हिंदू किसी एक या दो या एक साथ कई मतों में आस्था रख सकता है या सिरे से हरेक मत की निंदा भी कर सकता है। वह चाहे तो किसी भी नियम का कठोरता से पालन कर सकता है और वह चाहे तो सारे नियमों को ताक़ पर रख सकता है। लोगों को यह छूट हिंदू धर्म ने अपनी किसी उदारता के कारण नहीं दी है बल्कि जब वह लोगों को उनके जीवन की समस्याओं से मुक्ति दिलाने के बजाय उनकी परेशानी बढ़ाने वाला सिद्ध होने लगा तो लोगों ने खुद उससे अपना पिंड छुड़ाकर इधर-उधर भागना शुरू कर दिया। किसी ने एक गुरू का दामन पकड़ा और किसी ने दूसरे गुरू का। कोई खुद ही गुरू बन कर शुरू हो गया और कोई इन सब गुरूओं के ही खि़लाफ़ खड़ा हो गया।
हिंदू और मुस्लिम मतों में बुनियादी अंतर क्या है ?
आप हिंदू धर्म के मतों की तुलना शिया-सुन्नी आदि मुस्लिम मतावलंबियों से नहीं कर सकते। एक हिंदू वेद और ईश्वर को मान भी सकता है और उनकी निंदा भी कर सकता है। वह कुछ भी कर सकता है, धर्म के मामले में उसका कोई ऐतबार नहीं है कि वह क्या कह बैठे ? और क्या कर बैठे ?लेकिन शिया-सुन्नी हों या वहाबी-बोहरा किसी को भी कुरआन के ईश्वरीय होने में या खुदा के मौजूद होने में कोई शक नहीं है। सभी नमाज़-रोज़ा, ज़कात और हज को एक जैसे ही फ़र्ज़ मानते हैं। इन मतों के उद्भव का कारण खुदा, रसूल, दीन या कुरआन में अविश्वास नहीं है बल्कि परम चरम विश्वास है। हरेक ने अपने विश्वास और आचरण में एक दूसरे से बढ़ने की कोशिश की और इसी विश्वास में वे यह समझे कि कुरआन की व्यवस्था को जैसा उन्होंने समझा है, दूसरा वैसे नहीं समझ पाया। सबके केन्द्र में ईश्वर और ईश्वर की वाणी ही है। जबकि हिंदुओं में ऐसा नहीं है।
हाथ कंगन तो आरसी क्या ?
आज विश्व में कुल 153 करोड़ मुसलमान हैं और लगातार बढ़ते ही जा रहे हैं। दुनिया का हर चैथा आदमी आज मुसलमान है। दुनिया की हर नस्ल और हरेक कल्चर का आदमी इसलामी समाज का अंग है।इनमें से आप किसी से भी और कितनों से भी पूछ लीजिए कि वह कुरआन को क्या मानता है ?
उनमें से हरेक एक ही जवाब देगा कि ‘वह कुरआन को ईश्वर की ओर से अवततिरत ज्ञान मानता है ?‘
अब आप यही बात ज़्यादा नहीं बल्कि मात्र दस-पांच हिंदू भाईयों से पूछ लीजिए। उनमें से हरेक का जवाब एक-दूसरे से अलग होगा, विपरीत होगा।
सच एक होता है और झूठ कभी एक नहीं होता लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हिंदू धर्म की बुनियाद कभी सत्य पर नहीं रही। नहीं बल्कि ईश्वर की ओर से इस पवित्र भूमि पर ‘ज्ञान‘ उतरा है और उसके अवशेष आज भी मौजूद हैं। वे अवशेष भी अपने आप में इतने समर्थ कि पूरे सत्य को आज भी प्रकट कर सकते हैं, अगर कोई वास्तव में सत्य को उपलब्ध होना चाहे तो।
नेकी को इल्ज़ाम न दीजिए
इस्लाम में न कट्टरता कल थी और न ही आज है
एक नेक औरत अपने एक ही पति के सामने समर्पण करती है, हरेक के सामने नहीं और अगर कोई दूसरा पुरूष उस पर सवार होने की कोशिश करता है तो वह मरने-मारने पर उतारू हो जाती है। वह जिसे मारती है दुनिया उस मरने वाले पर लानत करती है और उस औरत की नेकी और बहादुरी के गुण गाती है। इसे उस औरत की कट्टरता नहीं कहा जाता बल्कि उसे अपने एक पति के प्रति वफ़ादार माना जाता है। दूसरी तरफ़ हमारे समाज में ऐसी भी औरतें पाई जाती हैं कि वे ज़रा से लालच में बहुतों के साथ नाजायज़ संबंध बनाये रखती हैं। उन औरतों को हमारा समाज, बेवफ़ा और वेश्या कहता है। वे किसी को भी अपने शरीर से आनंद लेने देती हैं, उनके इस अमल को हमारे समाज में कोई भी ‘उदारता‘ का नाम नहीं देता और न ही उसे कोई महानता का खि़ताब देता है। अपने सच्चे स्वामी को पहचानिए
ठीक ऐसे ही इस सारी सृष्टि का और हरेक नर-नारी का सच्चा स्वामी केवल एक प्रभु पालनहार है, उसी का आदेश माननीय है, केवल वही एक पूजनीय है। जो कोई उसके आदेश के विपरीत आदेश दे तो वह आदेश ठोकर मारने के लायक़ है। उस सच्चे स्वामी के प्रति वफ़ादारी और प्रतिबद्धता का तक़ाज़ा यही है। अब चाहे इसमें कोई बखेड़ा ही क्यों न खड़ा हो जाय। बग़ावत एक भयानक जुर्म है
जो लोग ज़रा से लालच में आकर उस सच्चे मालिक के हुक्म को भुला देते हैं, वे बग़ावत और जुर्म के रास्ते पर निकल जाते हैं, दौलत समेटकर, ब्याज लेकर ऐश करते हैं, अपनी सुविधा की ख़ातिर कन्या भ्रूण को पेट में ही मार डालते हैं। वे सभी अपने मालिक के बाग़ी हैं, वेश्या से भी बदतर हैं। पहले कभी औरतें अपने अंग की झलक भी न देती थीं लेकिन आज ज़माना वह आ गया है कि जब बेटियां सबके सामने चुम्बन दे रही हैं और बाप उनकी ‘कला‘ की तारीफ़ कर रहा है। आज लोगों की समझ उलट गई है। ज़्यादा लोग ईश्वर के प्रति अपनी वफ़ादारी खो चुके हैं।
खुश्बू आ नहीं सकती कभी काग़ज़ के फूलों से
अपनी आत्मा पर से आत्मग्लानि का बोझ हटाने के लिए उन्होंने खुद को सुधारने के बजाय खुद को उदार और वफ़ादारों को कट्टर कहना शुरू कर दिया है। लेकिन वफ़ादार कभी इल्ज़ामों से नहीं डरा करते। उनकी आत्मा सच्ची होती है। नेक औरतें अल्प संख्या में हों और वेश्याएं बहुत बड़ी तादाद में, तब भी नैतिकता का पैमाना नहीं बदल सकता। नैतिकता के पैमाने को संख्या बल से नहीं बदला जा सकता।
दुनिया भर की मीडिया उन देशों के हाथ में है जहां वेश्या को ‘सेक्स वर्कर‘ कहकर सम्मानित किया जाता है, जहां समलैंगिक संबंध आम हैं, जहां नंगों के बाक़ायदा क्लब हैं। सही-ग़लत की तमीज़ खो चुके ये लोग दो-दो विश्वयुद्धों में करोड़ों मासूम लोगों को मार चुके हैं और आज भी तेल आदि प्राकृतिक संपदा के लालच में जहां चाहे वहां बम बरसाते हुए घूम रहे हैं। वास्तव में यही आतंकवादी हैं। जो यह सच्चाई नहीं जानता, वह कुछ भी नहीं जानता।
मीडिया का छल
आप मीडिया को बुनियाद बनाकर मुसलमानों पर इल्ज़ाम लगा रहे हैं। यही पश्चिमी मीडिया भारत के नंगे-भूखों की और सपेरों की तस्वीरें छापकर विश्व को आज तक यही दिखाता आया है कि भारत नंगे-भूखों और सपेरों का देश है, लेकिन क्या वास्तव में यह सच है ?मीडिया अपने आक़ाओं के स्वार्थों के लिए काम करती आई है और आज नेशनल और इंटरनेशनल मीडिया का आक़ा मुसलमान नहीं है। जो उसके आक़ा हैं, उन्हें मुसलमान खटकते हैं, इसीलिए वे उसकी छवि विकृत कर देना चाहते हैं। आपको इस बात पर ध्यान देना चाहिए।
ग़लतियां मुसलमानों की भी हैं। वे सब के सब सही नहीं हैं लेकिन दुनिया में या इस देश के सारे फ़सादों के पीछे केवल मुसलमान ही नहीं हैं। विदेशों में खरबों डालर जिन ग़द्दार भारतीयों का है, उनमें मुश्किल से ही कोई मुसलमान होगा। वे सभी आज भी देश में सम्मान और शान से जी रहे हैं। उनके खि़लाफ़ न आज तक कुछ हुआ है और न ही आगे होगा। उनके नाम आज तक किसी मीडिया में नहीं छपे और न ही छपेंगे क्योंकि मीडिया आज उन्हीं का तो गुलाम है।
सच की क़ीमत है झूठ का त्याग
सच को पहचानिए ताकि आप उसे अपना सकें और अपना उद्धार कर सकें।तंगनज़री से आप इल्ज़ाम तो लगा सकते हैं और मुसलमानों को थोड़ा-बहुत बदनाम करके, उसे अपने से नीच और तुच्छ समझकर आप अपने अहं को भी संतुष्ट कर सकते हैं लेकिन तब आप सत्य को उपलब्ध न हो सकेंगे।
अगर आपको झूठ चाहिए तो आपको कुछ करने की ज़रूरत नहीं है लेकिन अगर आपको जीवन का मक़सद और उसे पाने का विधि-विधान चाहिए, ऐसा विधान जो कि वास्तव में ही सनातन है, जिसे आप अज्ञात पूर्व में खो बैठे हैं तब आपको निष्पक्ष होकर न्यायपूर्वक सोचना होगा कि वफ़ादार नेक नर-नारियों को कट्टरता का इल्ज़ाम देना ठीक नहीं है बल्कि उनसे वफ़ादारी का तौर-तरीक़ा सीखना लाज़िमी है।
धन्यवाद!
............................................................................................................................शासन आखि़र कब नहीं था ?
भाई मदन कुमार तिवारी जी ! यह भी आपने खूब कही कि पहले शासन व्यवस्था नहीं थी इसलिए लोगों ने ईश्वर की कल्पना अपने मन से कर ली। पहली बात तो यह है कि आप उस युग का नाम बताएं कि आख़िर शासन व्यवस्था कब नहीं थी ?
दूसरी बात यह बताएं कि जब लोगों ने ईश्वर की कल्पना अपने मन से कर ली तो क्या ईश्वर ने आकर फिर उनकी शासन व्यवस्था संभाल ली थी ?
आपको पता होना चाहिए कि शासन व्यवस्था कहते किसे हैं ?
समाज में एक शक्तिशाली व्यक्ति या कोई संगठित समुदाय जब दूसरों नियंत्रित करने में सफल हो जाता है तो वह व्यक्ति या समुदाय शासक कहलाता है। ऐसा कोई भी ज़माना इस ज़मीन पर नहीं गुज़रा जबकि कोई न कोई अपेक्षाकृत बलशाली मनुष्य या समुदाय समाज पर हावी न रहा हो।
आपकी बात एक बेबुनियाद कल्पना के सिवा कुछ भी नहीं है और इसे लेकर जाने आप कब से घूम रहे होंगे और समझ यह रहे होंगे कि बस ज्ञानी तो मैं ही हूं।
अपनी ग़लतफ़हमी से बाहर आईये या फिर हमें निकालिये।
धन्यवाद!
इस संवाद का पूरा सन्दर्भ जानने के लिए देखें -
https://www.blogger.com/comment.g?blogID=554106341036687061&postID=732433012198614140&isPopup=true
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खोट पर चोट Like cures like
किसी भी चीज़ के लिए केवल उसका दावा ही काफ़ी नहीं हुआ करता बल्कि उसके लिए दलील भी ज़रूरी होती है। यह दुनिया का एक लाज़िमी क़ायदा है। एक आदमी तैराक होने का दावा करे तो लोग चाहते हैं कि वे उसे तैरते हुए भी देखें। यह मनुष्य का स्वभाव है। ऐसी चाहत उसके दिल में खुद ब खुद पैदा होती है, यह उसका जुर्म नहीं है। लेकिन अगर कोई आदमी कभी तैर कर न दिखाए और पानी में पैर डालने तक से डरे तो लोग उसे झूठा, फ़रेबी और डींग हांकने वाला समझते हैं लेकिन मैं जनाब सतीश सक्सेना जी को ऐसा बिल्कुल नहीं समझता। इसके बावजूद भी मैं चाहता हूं कि वे अपने दावे पर अमल किया करें। उनका दावा है कि वे ईमानदार हैं, कि वे अमन चाहते हैं, कि वे हिंदू-मुस्लिम में भेद नहीं करते। यह तो उनका दावा है लेकिन मैंने जब भी उन्हें देखा तो हमेशा इसके खि़लाफ़ ही अमल करते देखा।
आज हमारीवाणी पर एक अजीब से शीर्षक पर मेरी नज़र पड़ी तो मैं वहां जा पहुंचा। मैं वहां क्या देखता हूं कि एक महिला ब्लागर को अश्लील गालियां दी जा रही हैं और जनाब सतीश साहब उन गालियां देने वालों को या उन्हें पब्लिश करने वाले ब्लागर को न तो क़ानून की धमकी दे रहे हैं और न ही उनसे इस बेहूदा बदतमीज़ी को रोके जाने की अपील ही कर रहे हैं। मुझे बड़ा अजीब सा लगा। बड़ों को अपना दामन बचाकर वापस आते देख मुझे सख्त झटका लगा।
हालांकि दिव्या जी मेरे सवाल पूछने की वजह से मुझसे नाराज़ हैं, उन्होंने मुझे गालियां भी दी हैं और अपने ब्लाग पर एक पोस्ट भी मेरे खि़लाफ़ लिखी है और भविष्य में मुझे कभी उनसे कोई टिप्पणी मिलने की भी उम्मीद नहीं है लेकिन इसके बावजूद मैंने वहां एक कोशिश करना ज़रूरी समझा, दिव्या जी मो खुश करने के लिए नहीं बल्कि अपने मालिक को राज़ी करने के लिए। वहां का माहौल इतना भयानक था कि जो भी बोल रहा था उसी पर बेनामी बंधु गालियां बरसा रहे थे।
जनाब सतीश सक्सेना जी वहां यह कह कर वापस आ गए-
...लेकिन मेरा काम ग़लत होते देखकर चुप रहना नहीं है। मैंने भाई किलर झपाटा जी से यह अपील की-
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