देवताओं ने अमृत का घड़ा छिपा दिया था। कुंभ का आयोजन उसी अमृत कुंभ की तलाश है। उसी घड़े की तलाश में ज्ञानी जन बहुत समय से लगे हुए हैं। कुंभ में भी लोग कुछ पाने के लिए जुड़ते हैं और हज में भी। कुंभ का संबंध भी ब्रहमा जी से है और हज का संबंध भी अब्राहम से है। जैसे जैसे भाषाओं की जानकारी बढ़ेगी तो सबको पता चल जाएगा कि ब्रहमा और अब्राहम एक ही हैं जैसे कि मनु और आदम एक हैं। मनु और ब्रहमा के ज्ञान कलश को ढूंढना आज कुछ भी भारी नहीं है। कई बार चीज़ सामने रखी रहती है लेकिन आदमी उसे देख नहीं पाता। अमृत के बारे में यही ग़लती की जा रही है।
यह धरती तो मर्त्यलोक है ही। यहां से तो जाना ही है हरेक को लेकिन आदमी जाए तो अमर लोक जाए न कि नर्क लोक।
ऋग्वेद के पहले मंडल का पहला मंत्र ‘अग्निमीले‘ से शुरू होता है अर्थात हम अग्नि का ईलन करते हैं।
ईलन का अर्थ पूजन से है।
यह ईल शब्द ही इसराईल में मिलता है। इसराईल एक देश का नाम है जो कि नबी इसराईल के नाम पर रखा गया है। उनका वास्तविक नाम याक़ूब है। याक़ूब अब्राहम के वंशज हैं।
यह ‘ईल‘ शब्द ही सब फ़रिश्तों के नामों में मिलता है जैसे कि जिबराईल, मीकाईल और इज़राईल आदि।
ईल शब्द से ही इला और इलाह बना है।
अरबी में ‘इलाह‘ का अर्थ पूजनीय होता है।
‘इलाह‘ अजर और अमर है।
इलाह शब्द अरबी में गया तो इसमें ‘अल‘ लगाने से ‘अल्लाह‘ शब्द बना-
अल + इलाह = अल्लाह
इलाह का अर्थ अरबी में भी पूजनीय ही माना जाता है और अल्लाह को परमेश्वर का निजी नाम की हैसियत से जाना जाता है।
विकीपीडिया की यह जानकारी भी देखी जा सकती है।
The term Allāh is derived from a contraction of the Arabic definite article al- "the" andʾilāh "deity, god" to al-lāh meaning "the [sole] deity, God".
‘इलाह‘ केवल पूजनीय ही नहीं है बल्कि विधान का दाता भी है। वैध-अवैध निश्चित करने का अधिकार केवल उसी को है।
अब ‘अग्नि‘ को समझें।
स्थौलाष्ठीवि ऋषि के अनुसार ‘अग्नि‘ का अर्थ अग्रणी है अर्थात जो सबसे अग्र हो, सब रचनाओं से भी पहले होने से उस परमेश्वर को अग्नि कहा गया है।
अग्रणी परमेश्वर का पूजन ही अमर लोक जाने का एकमात्र उपाय है।
यही अमृत ज्ञान है।
इसे कुंभ वाले सारे ही भूल गए हों, ऐसी बात नहीं है। परंतु उन्होंने इस ज्ञान कलश को छिपा दिया है।
हज वाले दुनिया भर में यह ज्ञान लुटा रहे हैं। इस ज्ञान को आप अपने ग्रंथों से मिला कर देख लीजिए कि वही सनातन-पुरातन ज्ञान है कि नहीं ?
‘अग्नि‘ को आग समझ लेने से आग की पूजा शुरू हो गई। वेद का छंद ही ईरान में ‘ज़न्द‘ कहलाया। आर्य भारत में भी आग पूजते रहे और ईरान में भी। एक अग्रणी परमेश्वर को पूजने वाली आर्य जाति आग की पुजारी बनकर रह गई। शब्दों को ठीक से न समझा जाए तो अर्थ का अनर्थ हो जाता है।
रविकर जी की निम्न पोस्ट अच्छी लगी। इसी से प्रेरित होकर यह एक पोस्ट बन गई है।
दान समझ कर डाल दे, हो जा हिन्दु रिलैक्स -
डालो पैसे कुम्भ में, है नहिं मेला टैक्स । दान समझ कर डाल दे, हो जा हिन्दु रिलैक्स । हो जा हिन्दु रिलैक्स, फैक्स आया है भारी । हज पर अगली बार, सब्सिडी की तैयारी । अमरनाथ जय जयतु, नहीं इच्छा तुम पालो । नेकी कर ले भगत, दान दरिया में डालो ।। |