Wednesday, May 23, 2012

आधुनिक सभ्यता वास्तव में इस्लाम धर्म की तरफ़ बढ़ रही है

पर हमारी टिप्पणी

@ इस्लाम भाईचारे और शांति के घोषित मकसद की आड़ में हिंसा को बल दे रहा है ?

पुलिस का घोषित मक़सद शांति व्यवस्था बनाए रखना है, मुजरिमों को पकड़ना है लेकिन इस घोषित मक़सद की आड़ में कुछ पुलिसकर्मी रिश्वत लेते हैं और ज़ुल्म करते हैं तो इससे पुलिस की ज़रूरत ख़त्म नहीं हो जाती।

इस्लाम भी एक व्यवस्था है। इस पर चलने वाले लोग ही होते हैं। जो इस्लाम का नाम लेकर अपने निजी हित साधे, उसे मुनाफ़िक़ कहा जाता है न कि आदर्श मुस्लिम। देखना यह चाहिए कि इस्लाम के उसूलों को छोड़ दिया जाए तो फिर माना क्या जाएगा ?
इस्लाम को छोड़कर भी जब कोई अच्छी बात मानता है तो वह इस्लाम को ही बिना नाम लिए मानता है।
जब भी संगठन बनेगा तो वहां शक्ति का उदय होगा। समय गुज़रेगा तो शक्ति पाने के लिए ग़लत आदमी वहां भी पहुंचेगे। अपना नाम ‘नन्स‘ रखकर वे बच नहीं पाएंगे।
<b>ईश्वर में विश्वास, जन सेवा और संगठन, तीनों इस्लामी उसूल हैं। </b>
इस्लाम परोक्ष ही नहीं प्रत्यक्ष भी पश्चिमी देशों में फैल रहा है। यह बात सामने रखी जाए तो ही यह जाना जा सकता है कि आधुनिक सभ्यता वास्तव में ही एक ऐसे धर्म की तरफ़ बढ़ रही है जो उसकी ज़रूरतों को पूरा करता है।
Please see

इटालियन राजदूत के दिल में दाखि़ल हुआ नूरे इस्लाम

http://drayazahmad.blogspot.in/2012/05/blog-post_12.html

आतंकवाद की परिभाषा ही तय नहीं है तो कैसे किसी को आतंकवादी कहा जा सकता है ?
राजनीतिक हितों के लिए शक्तिशाली देश पूरा देश तबाह कर दे तो वह शांति की स्थापना है और मज़लूम नागरिक पत्थर भी मारें तो आतंकवादी ?
भगत सिंह इसी अन्याय के शिकार हुए। अंग्रेज़ों का यह खेल पुराना है।
 

Tuesday, May 22, 2012

सबके लिए एक ही नैतिकता को स्टैंडर्ड घोषित किया जाए Vivah

शर्मनाक हरकतें और बुज़ुर्ग

पर हमारी टिप्पणी

आंखें जो देखती हैं और मन जो समझ लेता है, वह हमेशा सच नहीं होता।
मोटर साइकिल पर साथ जाते भाई बहन को भी आशिक़ माशूक़ समझ लिया जाता है और अपनी लड़की को विदा करते हुए बाप को भी उसका दूल्हा समझ लिया जाता है।
दूल्हा जैसा सेहरा इस बुज़ुर्ग के चेहरे पर नहीं है और इन्होंने लड़की का हाथ नहीं पकड़ा है बल्कि इनका हाथ बड़ी अपनाइयत से पकड़े हुए है, जैसे कि विदाई के वक्त एक लड़की अपने बाप का हाथ पकड़ती है।
यह तो हुई आपके चित्र पर टिप्पणी।

इसके बावजूद भी बड़ी उम्र के लोग कम उम्र लड़कियों के साथ विवाह करते हैं। विवाह के लिए लड़की की रज़ामंदी शर्त होती है। कहीं यह रज़ामंदी ग़रीबी की वजह से होती है और कहीं दिल की गहराई से। आर्थिक मजबूरियों के चलते रज़ामंदी देने की आलोचना कितनी भी कर ली जाए लेकिन जहां देश में दहेज का दानव बहुओं को और कन्या भ्रूणों को निगल रहा हो, वहां इस तरह के विवाह होते ही रहेंगे।
एक सर्वे में यह भी बात सामने आई थी कि कुछ लड़कियां नौजवानों के मुक़ाबले बुज़ुर्गों को तरजीह देती हैं अपना पति बनाने के लिए क्योंकि नौजवान अभी ख़ुद को जमाने के लिए संघर्ष ही कर रहा होता है जबकि बुज़र्ग ऑल रेडी स्थापित होते हैं और वे नौजवानों की तरह ग़ैर ज़िम्मेदार भी नहीं होते। लिहाज़ा उम्र का फ़ासला लड़कियों को हमेशा ही दुख दे, ऐसी बात नहीं है। यह तो दिल का मामला है।
दिल कब किस पर आ जाए ?
क्या कहा जा सकता है ?

बुज़ुर्गों के द्वारा छेड़छाड़ और अवैध यौन संबंध वाक़ई निंदनीय है लेकिन तब जबकि एक सही सोच को समाज में मान्यता मिली हुई हो।
नगर वधू और गणिका से लेकर कई और तरीक़ों तक को समाज और परिवार में मान्यता मिली हुई है जिनके तहत यौन संबंध हमेशा से ही यहां बनते आए हैं।
यहां तक कि शास्त्र में विवाह के 8 प्रकार बताए गए हैं और उनमें बलात्कृता और अपहरण की हुई कन्या को भी पत्नी ही स्वीकार किया गया है।
अलग अलग समाजों के रीति रिवाज अलग अलग हैं लेकिन अब समय आ गया है कि सबके लिए एक ही नैतिकता को स्टैंडर्ड घोषित किया जाए।
यह नैतिकता वह होगी जो सबके लिए आज के समय में व्यवहारिक हो और सबके लिए लाभदायक भी हो।

Sunday, May 20, 2012

जो लोग सहज ध्यान नहीं कर पाते वे जीवन भर असहज ही रहते हैं

एक प्रकार का ध्यान है टहलना

पर हमारी टिप्पणी
टहलने के लिए जब आदमी निकले तो वह अल्लाह की नेमतों पर ध्यान दे।
अपने पैरों पर ध्यान दे।
जिस ज़मीन पर टहल रहा है, उसकी बनावट पर और उसकी हरियाली पर ध्यान दे।
उगते हुए सूरज की किरणों पर ध्यान दे।
सूरज निकलता है तो उसकी किरणें पेड़ पौधों के पत्तों पर पड़ती हैं तो तब वे फ़ोटोसिंथेसिस की क्रिया करते हैं। इस तरह वे ऑक्सीजन छोड़ते हैं जो कि हमारे जीवन और हमारी सेहत के लिए ज़रूरी है और वे हमारी छोड़ी हुई कार्बन डाई ऑक्साइड को सोख लेते हैं जो कि हमारे लिए जानलेवा है।
रौशनी, हवा, ज़मीन और हमारा शरीर, इनमें से हरेक चीज़ ऐसी है कि इन पर ध्यान दिया जाए।
जब यह ध्यान दिया जाएगा तो टहलना एक सहज ध्यान बन जाएगा और मालिक का शुक्र दिल से ख़ुद ब ख़ुद निकलेगा।
जो लोग सहज ध्यान नहीं कर पाते वे जीवन भर असहज ही रहते हैं।
दिल मालिक के शुक्र से भरा हो, उसकी मुहब्बत से भरा हो तो जीवन से शिकायतें ख़त्म हो जाती हैं।
प्रकृति सुंदर है, हमारा शरीर सुंदर है।
सुंदरता पर ध्यान देंगे तो जीवन में मधुरता और सकारात्मकता आएगी।
सुबह सुबह अच्छा काम करेंगे तो शाम तक का समय अच्छा गुज़रेगा।

Friday, May 18, 2012

पांव हैं तो चलना ही पड़ेगा

अभिव्यक्ति: मैं चलूंगा - डॉ. शान्तिलाल भारद्वाज ‘राकेश’ की एक कविता
पर हमारी टिप्पणी

यह कविता बहुत अच्छी लगी।
यह कविता पढ़कर दिल में आया कि कह दूं-

तू चलेगा तो मैं भी चलूंगा।
पांव हैं तो चलना ही पड़ेगा।
घाव है तो ढकना ही पड़ेगा।
तू भी चल और मैं भी चलूं।
साथ दोनों चलेंगे तो हल मिलेगा।
चलने का तभी फल मिलेगा।
अकेले सफ़र कोई तय नहीं होता।
एक साथी ज़रूरी है सफ़र में।
मुश्किलें बहुत आती हैं डगर में।
चलना ही है तो एक दिशा में चलें।
कहीं तो पहुंच ही जाएंगे,
कभी न कभी एक रोज़।
यही एक आस है,
जिसके लिए चलना पड़ेगा।
नहीं चलेंगे तो यह आस भी न बचेगी।
आस क़ायम रहे, यह ज़रूरी है।
इसीलिए चलना बहुत ज़रूरी है।

Saturday, May 12, 2012

इलाज के नाम पर गर्म होता हवसख़ोरी का बाज़ार

अंतर्मंथन: ज़रा संभल के --- स्वास्थ्य के मामले में चमत्कार नहीं होते .

पर हमारी टिप्पणी

चमत्कार न होते तो डाक्टर को मौत न आती।

ऐसा देखा जा सकता है कि बहुत बार हायजीनिक कंडीशन में रहने वाले डाक्टर बूढ़े हुए बिना मर जाते हैं जबकि कूड़े के ढेर पर 80 साल के बूढ़े देखे जा सकते हैं।
मिटटी पानी और हवा में ज़हर है लेकिन लोग फिर भी ज़िंदा हैं।
क्या यह चमत्कार नहीं है ?

लोग दवा से भी ठीक होते हैं और प्लेसिबो से भी।

भारत चमत्कारों का देश है और यहां सेहत के मामले में भी चमत्कार होते हैं।
हिप्नॉटिज़्म को कभी चमत्कार समझा जाता था लेकिन आज इसे भी इलाज का एक ज़रिया माना जाता है।
जो कभी चमत्कार की श्रेणी में आते थे, उन तरीक़ों को अब मान्यता दी जा रही है।
एक्यूपंक्चर का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है लेकिन उसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अगर मान्यता दी जा रही है तो सिर्फ़ उसके चमत्कारिक प्रभाव के कारण।
होम्योपैथी भी एक ऐसी ही पैथी है।
वैज्ञानिक आधार पर खरी ऐलोपैथी से इलाज कराने वालों से ज़्यादा लोग वे हैं जो कि उसके अलावा तरीक़ों से इलाज कराते हैं।
पूंजीपति वैज्ञानिकों से रिसर्च कराते हैं और फिर उनकी खोज का पेमेंट करके महंगे दाम पर दवाएं बेचते हैं।
वैज्ञानिक सोच के साथ जीने का मतलब है मोटा माल कमाने और ख़र्च करने की क्षमता रखना।
भारत के अधिकांश लोग 20-50 रूपये प्रतिदिन कमाते हैं। सो वैज्ञानिक सोच और वैज्ञानिक संस्थान व आधुनिक अस्पताल उनके लिए नहीं हैं। इनकी दादी और उसके नुस्ख़े ही इनके काम आते हैं।
यही लोग वैकल्पिक पद्धतियां आज़माते हैं, जिनके पास कोई विकल्प नहीं होता।

बीमारियां केवल दैहिक ही नहीं होतीं बल्कि मनोदैहिक होती हैं।
...और मन एक जटिल चीज़ है।
मरीज़ को विश्वास हो जाए कि वह ठीक हो जाएगा तो बहुत बार वह ठीक हो जाता है।
मरीज़ को किस आदमी या किस जगह या किस बात से अपने ठीक होने का विश्वास जाग सकता है, यह कहना मुश्किल है।
यही वजह है कि केवल अनपढ़ व ग़रीब आदमी ही नहीं बल्कि शिक्षित व धनपति लोग भी सेहत के लिए दुआ, तावीज़, तंत्र-मंत्र करते हुए देखे जा सकते हैं।
आधुनिक नर्सिंग होम्स के गेट पर ही देवी देवताओं के मंदिर देखे जा सकते हैं। मरीज़ देखने से पहले डाक्टर साहब पहले वहां हाथ जोड़कर प्रार्थना करते हैं कि उनके मरीज़ों को आरोग्य मिले।

आपकी पोस्ट अच्छी है लेकिन चिकित्सा के पेशे को जिस तरह सेवा से पहले व्यवसाय और अब ठगी तक में बदल दिया गया है, उसी ने जनता को नीम हकीमों के द्वार पर धकेला है।